10 मार्च 1990 से लेकर 06 मार्च 2005 तक लालूजी की छाया बिहार सरकार पर बनी रही थी। मतलब तीन दिन बाद बिहार वालों का मुक्ति दिवस हो सकता था, यदि नीतीशजी ने बिहार को ‘यथास्थिति’ में रखने की जगह परिवर्तन के लिए बीते पन्द्रह सालों में कुछ प्रयास किया होता।
सुनील छैला बिहारी द्वारा दस साल पहले गाया हुआ एक भोजपुरी गीत ‘अलग भइल झारखंड’ सुनते हुए, लगा कि गीत पर टिप्पणी करनी चाहिए। जिसमें अश्लीलता नहीं है लेकिन अतिश्योक्ति ‘भरपूर’ है।
”मिसरी मलाई खाया तुमने संयुक्त बिहार-झारखंड में। अर्थात वर्ष 2000 से पहले। जब बिहार बंटा नहीं था। संयुक्त बिहार-झारखंड में अच्छा खाकर तुमने अपनी सेहत बना ली। अब तो राज्य में भूखमरी होगी और बिहारियों के हिस्से में खाने के लिए सिर्फ शकरकंद होगा क्योंकि झारखंड बंट गया है। ना सैलरी सही समय पर आएगी और ना गन्ने का पेमेन्ट सही समय पर होगा क्योंकि झारखंड बंट गया है। ”
एक समय अपनी धून और सुनील छैला के स्वर की वजह से यह गीत बिहार—झारखंड में बहुत लोकप्रिय हुआ था। ”मिसरी मलाई खइलू, कइलू तन बुलंद। अब खइह शकरकंद। अलग भइल झारखंड, अब खइह शकरकंद।”
इस गीत का सच से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन अब जब नीतीशजी ने पन्द्रह साल से अधिक समय तक बिहार की सरकार को चला लिया, क्या बिहारियों को उनसे नहीं पूछना चाहिए कि एक बिहारी होने के नाते, शकरकंद से अधिक उनके हिस्से में क्या है?
प्रसंगवश : जिस एल्बम में ‘अलग भइल झारखंड’ गीत शामिल था, उस एल्बम का नाम था — ‘बिहार नाही सुधरी’। अब इस नाम पर सहमत होना है या नहीं, यह जेर-ए-बहस हो सकता है।