“सौ!”, कीमती वस्त्र, पगड़ी और रत्नजटित अंगूठियां पहने सेठजी ने बोली बढ़ाई।
“डेढ़ सौ!”, सादी श्वेत धोती व कुर्ता पहने सज्जन ने भी उत्तर दिया।
नीचे मैली बंडी व घुटनों तक की कछौटी में बैठा किसान आश्चर्य के भाव से दोंनों को देख रहा था जो चार आने भर की उसकी कचरिया के ढेर पर अपनी बोली बढ़ाते जा रहे थे।
“दो सौ”
“तीन सौ”
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“हजार!”, सेठजी के माथे पर कोई शिकन नहीं थी।
किसान आह्लादित था। कल ही तो वह रोया था घर पर दीपावली पर पूजा करते समय अपनी गरीबी को लेकर।
“तुम सब पर कृपा करती हो, मेरी ओर देखती तक नहीं।” उसने माता लक्ष्मी को उलाहना दिया था।
हजार रुपये उस युग में भारी रकम थी लेकिन उसके आह्लाद पर उसकी सहज मानवजन्य उत्सुकुता हावी हो गयी।
इस कचरिया के ढेर में ऐसा क्या है जो ये दोंनों सज्जन इस तरह बोली लगाने में प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
उसने बोली रोककर सादी धोती वाले सज्जन को बुलाकर पूछा,”आप क्यों इतनी जिद पकड़े हैं इस सब्जी के जरा से ढेर पर।”
“आज अन्नकूट है। मंदिर में कान्हाजी को सारे अन्न व सब्जियों का भोग लगना है। पुजारी जी बोले कि सारी सब्जियां हैं लेकिन कचरिया नहीं है।
संभवतः मेरे साथ सेठजी ने भी कान्हाजी को कचरिया अर्पित करने का संकल्प लिया होगा।”
“बाबूजी सेठजी बड़े आदमी हैं। वे कितनी भी बोली लगा लें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन आप क्यों..?” किसान आश्चर्य में था।
” जो कुछ है उन्हीं का दिया तो है। कान्हा जी के समक्ष सर्वस्व का संकल्प लिया था तो एक कौड़ी भी शेष रहते कैसे पीछे हट जाऊं?” वह सज्जन मुस्कुराकर बोले।
बोली फिर शुरू हो गयी, लेकिन अब किसान का ध्यान बोली में नहीं था। उसके मस्तिष्क में तो निरंतर शब्द गूंज रहे थे।
“आज प्रभु के भोग में कचरिया नहीं है।”
“अपने सर्वस्व का संकल्प लिया है मैंने।”
उसे दीपावली पर रात्रि में की गई अपनी प्रार्थना स्मरण हो आई।
“एक लाख!” उधर सेठ जी विजेता के भाव से बोले।
बोली समाप्त हुई।
दूसरे सज्जन की आँखों में प्रभु समर्पण में असफलता के भाव में आँसू छलछला उठे।
सेठजी ने गठरी बांधने को कहा।
लेकिन किसान किसी और ही लोक में था।
उसने कचरिया की पोटली की गठरी को समेटकर गांठ लगाई और सेठजी को देने के स्थान पर गठरी को पीठ पर लादकर चल पड़ा मंदिर की ओर।
सेठजी आवाज लगाते रह गए।
पुजारी जी मंदिर के द्वार से सब कुछ देख सुन रहे थे।
“प्रभु के अन्नकूट के लिये!” पुजारी जी को अपनी गठरी समर्पित करते हुए।
“अंदर चलकर स्वयं अर्पित करो।” पुजारीजी गंभीर स्वर में बोले।
“लेकिन पंडितजी मैं…अछूत..मंदिर में…”
“अगर तुम मंदिर में नहीं तो फिर और कौन…..” पंडितजी का गला अवरुद्ध हो गया और उन्होंने उसे बाँहों में भर लिया।
अश्रु बहाते हुये अंदर किसान ने अपनी गठरी कान्हाजी के सामने खोल दी।
कान्हा जी चेहरे पर वही नटखट मुस्कुराहट थी- “तेरी गरीबी दूर हो गई ना!”

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