भविष्यदृष्टि

देवेन्द्र सिकरवार

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जब भी किसी समाज की भविष्य दृष्टि मर जाती है वह अतीत के ज्ञान को भी भूल जाता है। भारत पर बर्बरों की सैन्य प्रभुता का प्रारंभ 1192 से नहीं हुआ था बल्कि तभी प्रारंभ हो गया जब विदेश गमन व पुनर्धर्मान्तरण पर रोक लगा दी गई जिसके कारण आक्रांताओं को भारत के अंदर बिना प्रयास के स्काउट्स मिलने लगे।
आपको इतिहास की पुस्तकों में सदैव एक वाक्य लिखा मिलेगा-
“सुल्तान/बादशाह की विशाल सेना के सम्मुख मुट्ठी भर राजपूत खड़े थे…”
आपको अजीब नहीं लगता?
आक्रांता संख्याबल में ज्यादा सैनिक ला रहे हैं जबकि अपने ही देश में हिंदू सैन्य मुट्ठी भर?
ऐसा कैसे हुआ?
इसका उत्तर मिलता है अल मसूदी नामक अरबी यात्री के विवरण में जो बताता है कि क्षत्रियों के दो वर्ग हैं- ‘सबकतारिया’ और ‘सबकफूरिया’।
स्पष्टतः वह शासक राजपूत वर्ग और सामान्य क्षत्रिय वर्ग जैसे जाट, यादव, गुर्जर आदि की चर्चा कर रहा है।
अब हुआ यह कि ठाकुर साहबों ने सारी मलाई ‘भाई बंदी प्रथा’ के अंतर्गत अपनों में बांट दी और कावेरी से लेकर लाहौर तक अपनी रियासतें गढ़ लीं और बाकी लड़ाकू जातियों को बाबाजी का ठुल्लू।
पंडीजी लोग्स हमेशा की तरह सत्ता के साथ खड़े होकर राजपूतों के इस अधिकार का समर्थन कर रहे थे और बदले में विशेषाधिकार भोग रहे थे।
अब अगर कोई आक्रांता आता है तो सामना तो क्षत्रियों को करना था, किया भी लेकिन हर हिंदू का आह्वान कभी नहीं किया गया..कभी नहीं।
क्यों?
चाहे जितना शास्त्र…शास्त्र चिल्ला लें सत्ताधीश वर्ग जानता था कि सत्ता तलवार की धार पर चलती है और जो तलवार जन सामान्य के हाथों में पहुंचकर विदेशी आक्रांताओं के सिर उड़ा सकती है तो कल उसकी नोंक स्वयं उनकी ओर भी मुड़ सकती है।
यानि देशभक्ति तो थी लेकिन वर्गीय स्वार्थ की प्रधानता के साथ इसीलिये आक्रांताओं से लड़ना, मरना, साके, जौहर मंजूर था लेकिन आम जनता के हाथों में तलवार जाना मंजूर नहीं था क्योंकि यह उनके जन्मनाजातीय विशेषाधिकार को नकार सकती थी।
शस्त्रों के लिये, सत्ता के लिए ही उस ऐतिहासिक षड्यंत्र की रचना हुई जिसमें ग्रंथों में ऐसे उपाख्यान ठूंसे गये ताकि जन्मनाजातिगतश्रेष्ठता को जनसामान्य कभी चुनौती न दे सके और शस्त्र उठाने की सोच भी न सके।
संस्कृत को देवभाषा घोषित कर आम जन की पहुंच से उसे दूर कर दिया और इतने पर भी मन न भरा तो संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन की विशेष शर्तें लगा दी गईं ताकि जनसामान्य इन अतार्किक बातों को मानकर उसे धर्म मानकर, अपना प्रारब्ध मानकर हड्डियों तक से स्वीकार कर ले और विद्रोह की सोचे तक नहीं।
रही सही कसर पुनरधर्मान्तरण को रोक कर पूरी कर दी गई क्योंकि चाहे एक ही विशेषता हो लेकिन वह धर्मांतरित व्यक्ति हिंदुओं में लौटने के बाद बताते थे और वह यह थी कि मस्जिद में नमाज के समय बादशाह और भिखारी एक ही कतार में नमाज पढ़ सकते थे।
एक छोटी सी बात लेकिन सदियों से तलवार, संस्कृत, मंदिरों से बाहर रखे गए लोगों को कितना प्रभावित करती होगी इसका अंदाजा वही लगा सकता है जिसमें स्वाभिमान हो।
उस स्पार्क को रोकने के लिए, चिंगारी पर पानी डालने के लिए नियम बनाया गया-
‘एक बार धर्म से बाहर तो सदा के लिए बाहर’
नतीजा यह हुआ कि बंदी योद्धा भी इस नियम की चपेट में आ गए जिसका नतीजा हुआ कि हिंदू सैन्य संख्या में निरंतर कमी आती चली गई।
लेकिन महान ऋषि पूर्वजों के विपरीत जड़ हो चुके समाज नियंता हठ पर अड़े रहे कि शस्त्र चलाना तो केवल क्षत्रियों का कार्य है।
अंततः वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप, ब्राह्मण शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने जिस सामाजिक जड़ता को तोड़ भीलों को गले लगाया उसकी चरम परिणिति छत्रपति द्वारा ग़ैरक्षत्रिय मावलों, गड़रियों, महारों, कुनबियों को योद्धाओं में बदलने से हुई जिसके साथ ही एक झटके में विदेशी प्रभुत्व खत्म हो गया।
लेकिन हजार वर्ष की इस गलत नीति का परिणाम हमें मुस्लिम अफगानिस्तान, मुस्लिम पंजाब, मुस्लिम सिंध व मुस्लिम बांग्लादेश के रूप में भुगतना पड़ा और कश्मीर केरल में भुगत रहे हैं।
इसलिये आज समय की मांग है कि शास्त्रों के नाम पर, धर्म के नाम पर जहाँ भी, जिस किसी भी ग्रंथ में, जिस किसी भी पन्ने पर जन्मनाजातिगतश्रेष्ठता का प्रतिपादन मिलता हो, उस पन्ने को अतीत के उन धूर्तों का षड्यंत्र मानकर फाड़कर फैंक दें और इसका समर्थन करने वाले ऐसे धर्मगुरुओं, बुद्धिजीवियों, नेताओं को हिंदुत्व का घोर शत्रु मानकर उनसे वैसा ही व्यवहार करें।
वरना जो प्रक्रिया इस्लाम के आक्रमण से शुरू हुई वह थमेगी नहीं और अंततः सम्पूर्ण भारत इस्लाम से आक्रांत हो जाएगा।

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