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संसार में जितने भी धर्मप्रतीक हुये वे कभी अकेले नहीं रहे।
महावीर, बुद्ध, मूसा, ईसा, मुहम्मद, नानक, कबीर कोई भी हों वे अपने अनुयायियों से घिरे रहे।
सिद्धांतवश या स्वार्थवश, उनके ऐसे अनुयायी रहे जो उनकी बात को आँख मूंदकर मानते रहे लेकिन कृष्ण अकेले ऐसे धर्मपुरुष रहे जो आजीवन अकेले ही जिये और अकेले ही धरा को छोड़कर गये।
उनके अन्यतम मित्र, अनुयायी अर्जुन भी कभी गीता को आत्मसात न कर सके और न कृष्ण के विराटस्वरूप को स्वीकार कर पाये।
कृष्ण का जीवन और उनका एकांतिक रूप से जाना इस बात का प्रबल उदाहरण है कि मनुष्य मूलतः वही मानता और सुनता है जो मानना और सुनना चाहता है।
विश्व के हर धर्मपुरुष ने कोई न कोई प्रलोभन अवश्य दिए लेकिन कृष्ण ने साफ-साफ कह दिया कि तुम्हारे कर्म ही तुम्हारी नियति है।
ऐसे व्यक्ति, विचार और दर्शन मानवों द्वारा पूजे तो जोरशोर से जाते हैं लेकिन विश्वास नहीं किये जाते, आचरण में लाना तो दूर की बात है।
महावीर सफल हैं कि अहिंसा व्रत का पालन करोगे तो किसी युग में तीर्थंकर बन सकोगे।
बुद्ध सफल हैं कि मज्झिम प्रतिपदा को फॉलो करो तो तुम्हें निर्वाण मिलेगा।
जीसस सफल हैं कि परमेश्वर में विश्वास करो वह तुम्हें पापों से मुक्त कर देगा।
मुहम्मद के बारे में तो कहना ही बेकार है क्योंकि इस्लाम मनुष्य की हीनतम वृत्ति लालच, भय और हिंसा पर ही टिका है।
नानक कहते हैं भक्ति और सेवा में मन लगाओ ईश्वर तुम्हारा है।
और कृष्ण?
कृष्ण किसी भी प्रलोभन को देने से साफ इनकार कर देते हैं। वे कहते हैं जो किया है वह तो भुगतना ही पड़ेगा और अगर बचना ही है तो लगा लंबी छलांग और हो जा निष्काम कर्मयोगी और समर्पित कर दे सारे कर्म मुझे।
जाहिर इतना कड़वा सत्य बोलने वाला, ब्रह्मांड का इतना भयावह विराट सत्यस्वरूप दिखाने वाले के पीछे क्यों कोई चलना चाहेगा?
इसीलिये,
अकेले जीना ही कृष्ण की नियति है,
अकेले रह जाना ही कृष्ण की नियति है,
अकेले मर जाना ही कृष्ण की नियति है।
संसार में कोई भी धर्मपुरुष ऐसे इस धरा को छोड़कर न गया होगा कि उसके लिए दो बूंद आँसू बहाने वाला भी न हो लेकिन कृष्ण का जाना कृष्ण के अलावा कोई नहीं जान पाता है।
कृष्ण की एकांतिक मृत्यु इस जगत का सबसे कारुणिक सत्य है।
कृष्ण अपनी मृत्यु से भी एक संदेश देकर जाते हैं।

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