Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 59
रावण ने सहसा अपनी तलवार निकाली और जटायु के दोनों पंख और पैर काट डाले। पंख कटते ही पक्षीराज जटायु भूमि पर गिर पड़ा और युद्ध समाप्त हो गया। अब वह कुछ ही देर का मेहमान था।
जटायु की यह दशा देखकर सीता विलाप करने लगीं और अपनी रक्षा के लिए पुनः राम-लक्ष्मण को पुकारने लगीं।
सीता को बार-बार राम-राम की रट लगाते देख उस विकराल राक्षस ने एक झटके से उनके बाल पकड़कर उन्हें खींचा। उस झटके से सीता के आभूषण टूट-टूटकर गिरने लगे। उनके एक चरण का रत्नजटित नुपूर टूटकर भूमि पर गिर पड़ा।
रावण का पूरा शरीर कोयले जैसे काला था, जो युद्ध और क्रोध के कारण अब और भी भयावह दिखने लगा। सीता का स्वर्ण जैसा सुनहला मुख शोक के कारण मलिन दिखाई देने लगा। भयभीत सीता इस पापकर्म के लिए पुनः रावण को धिक्कारने लगीं और अनेक प्रकार की करुणाजनक बातें कहने लगीं।
लेकिन रावण पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह सीता को लेकर तीव्र वेग से आकाश-मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। व्यथित सीता को अपना कोई सहायक दिखाई नहीं दे रहा था, पर तभी अचानक मार्ग में उन्होंने एक पर्वत के शिखर पर पाँच श्रेष्ठ वानरों को बैठे देखा। शायद वे लोग सीता के अपहरण की बात श्रीराम को बता सकें, इस आशा में सीता ने अपनी सुनहरे रंग की रेशमी चादर उतारी और उसमें आभूषण लपेटकर उसे उन वानरों के बीच में फेंक दिया। रावण लंका पहुँचने की जल्दी में था, इसलिए सीता के इस कार्य पर उसका ध्यान नहीं गया।
पंपा सरोवर को लांघकर और अनेक वनों, नदियों, पर्वतों, सरोवरों और अंततः समुद्र को भी आकाशमार्ग से पार करते हुए रावण ने सीता को लेकर लंका में प्रवेश किया। लंका नगरी का विस्तार बहुत बड़ा था। वहाँ अनेक विशाल राजमार्ग बने हुए थे और लंका के प्रवेश द्वार पर बहुत-से भीषण राक्षस पहरा दे रहे थे।
लंका में पहुँचकर रावण ने सीता को लेकर अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया। तब उसने भयंकर आकार वाली पिशाचिनों को बुलाकर आज्ञा दी, “तुम सब सावधान रहकर सीता की रक्षा करो। मेरी आज्ञा के बिना कोई भी स्त्री-पुरुष सीता को देख या मिल न पाए। इसे मोती, मणि, स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण या जिस किसी भी वस्तु की इच्छा हो, वह तुरंत प्रस्तुत की जाए। यह मेरी आज्ञा है। तुम लोगों में से किसी ने यदि भूल से भी सीता से कोई अप्रिय बात कही या उसका अपमान किया, तो मैं समझूँगा कि तुम्हें अपना जीवन प्यारा नहीं है।”
ऐसी आज्ञा देकर रावण अब आगे के बारे में सोचता हुआ अन्तःपुर से निकला और कच्चे माँस का भी आहार करने वाले आठ विकराल राक्षसों से तत्काल मिला। उन सबके बल और पराक्रम की प्रशंसा करके उसने कहा, “जिस जनस्थान में खर रहता था, वह इस समय उजाड़ पड़ा है। वहाँ के सभी राक्षस मार डाले गए हैं।”
“राक्षस वीरों! तुम सब लोग अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उस सूने जनस्थान में जाओ और अपने पराक्रम से वहाँ जाकर निवास करो। राम ने वहाँ मेरी विशाल सेना के साथ-साथ खर और दूषण को भी मार डाला है। इसलिए मैं बहुत क्रोध में हूँ और उस शत्रु से बदला लेना चाहता हूँ। राम का वध होने पर ही मैं शान्ति पा सकूँगा।”
“अतः जनस्थान में रहकर तुम लोग राम की गतिविधियों पर दृष्टि रखो और वह कब, क्या करता है इसकी सूचना मेरे पास भेजते रहो। तुम सब लोग सतर्क होकर वहाँ रहना और राम का वध करने के लिए सदा प्रयत्न करना। तुम लोग बड़े वीर हो, इसी कारण मैंने इस कार्य के लिए तुम सबको चुना है।”
यह आज्ञा पाकर उन राक्षसों ने रावण को प्रणाम किया और लंका को छोड़कर उन्होंने जनस्थान की ओर प्रस्थान किया।
कामासक्त रावण को तब पुनः सीता का स्मरण हो आया और वह सीता को देखने अपने अन्तःपुर में वापस गया। वहाँ पहुँचने पर उसने देखा कि राक्षसियों के बीच बैठी सीता दुःख में डूबी हुई हैं। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है शोक से व्याकुल होकर वे अत्यंत पीड़ित दिखाई दे रही हैं। दुःख और विवशता के कारण सिर झुकाकर चुपचाप बैठी हुई सीता के पास जाकर उस पापी रावण ने जबरन सीता को अपना पूरा महल दिखाया।
उस महल में हजारों स्त्रियाँ निवास करती थीं। अनेक प्रकार के पक्षी वहाँ कलरव करते थे। कई प्रकार के रत्न उस अन्तःपुर की शोभा बढ़ाते थे। उसके खंभों में हाथीदाँत, सोने, स्फटिक, मणि, चाँदी, हीरा, नीलम आदि सुन्दर रत्न जड़े हुए थे। वहाँ मधुर वाद्य बजते रहते थे। उस अन्तःपुर को तपे हुए सोने के आभूषणों से सजाया गया था और उसकी सीढ़ियाँ भी सोने की बनी हुई थीं। उस महल की खिड़कियाँ हाथीदाँत और चाँदी की बनी हुई थीं, और वहाँ सोने की जालियों से ढँकी हुई प्रासाद-मालाएँ भी दिखाई दे रही थीं। उसमें सुर्खी (ईंट का बुरादा) और चूने से बना पक्का फर्श था, जिसे मणियों से सजाया गया था। रावण ने सीता को लुभाने के लिए उन्हें यह सब दिखाया और अनेक बावड़ियाँ, सुन्दर सरोवर आदि भी दिखाए।
इसके बाद वह नीच राक्षस उनसे बोला, “सीते! मेरे अधीन बत्तीस करोड़ राक्षस हैं। बूढ़े और बालक निशाचरों की संख्या इससे अलग है। मैं उन सबका स्वामी हूँ। अकेले मेरी सेवा में ही एक हजार राक्षस नियुक्त रहते हैं। चारों ओर से समुद्र से सुरक्षित इस लंका के राज्य का विस्तार सौ योजन है। सभी देवता और असुर मिलकर भी इसे जीत नहीं सकते। देवता, यक्ष, गन्धर्व, ऋषियों आदि में कोई ऐसा नहीं है, जो बल और पराक्रम में मेरा सामना कर सके।”
“मेरा यह सारा राज्य और मेरा जीवन भी अब तुम्हें ही समर्पित है। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। मेरे अन्तःपुर में मेरी अनेक सुन्दर स्त्रियाँ हैं। तुम उन सबकी स्वामिनी बनो। मेरी प्रिय भार्या बनो। यह यौवन सदा रहने वाला नहीं है, अतः राम के शोक में इसे नष्ट करने से अच्छा है कि तुम मुझे अंगीकार करो और मेरे साथ रमण करके यहाँ जीवन का आनंद लो।”
“वह राम तो अपना ही राज्य गँवाकर दीन-हीन की भाँति वन में पैदल भटक रहा है। उस तुच्छ मानव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह यहाँ तक आने का विचार भी कर सके। उसके लिए तुम अपना जीवन व्यर्थ मत गँवाओ। देखो! यह सुन्दर पुष्पक विमान मैंने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक छीना था। यह अत्यंत रमणीय, विशाल और मन के समान तीव्र वेग से चलने वाला विमान है। आओ, तुम इस पर मेरे साथ बैठकर सुखपूर्वक विहार करो।”
रावण की ऐसी बातें सुनकर दुःखी सीता ने अपने मुख को आँचल से छिपा लिया और शोक से बेचैन होकर वे श्रीराम के बारे में सोचते हुए धीरे-धीरे आँसू बहाने लगीं।
यह देखकर निर्लज्ज रावण ने पुनः कहा, “विदेहनन्दिनी! तुम्हारा और मेरा तो अब स्नेह का संबंध है, अतः तुम्हें मुझसे लजाना नहीं चाहिए। मैं तो अब तुम्हारे ही चरणों का दास हूँ।”
ऐसा कहकर रावण सोचने लगा कि ‘अब यह मेरे अधीन हो गई है’, किन्तु क्रोधित सीता एक तिनके की ओट करके निर्भय होकर उस पापी रावण से बोलीं, “अरे दुष्ट! केवल श्रीराम ही मेरे आराध्य और प्रिय हैं। उनका साहस सिंह के समान है। वे अपने भाई लक्ष्मण के साथ यहाँ आकर शीघ्र ही तेरा विनाश करेंगे। तूने जिन विकराल राक्षसों की चर्चा की है, श्रीराम के सामने जाते ही उन सबका भी निश्चित ही विनाश होगा। यदि तू श्रीराम के सामने मेरा अपहरण करता, तो अपने भाई खर के समान तू भी जनस्थान में ही मारा जाता, किन्तु अब तू निश्चित समझ ले कि इस लंका में ही तेरा अंत होगा। मेरा अपहरण करके तूने ऐसा भीषण कृत्य किया है कि अब तेरे साथ ही इन सभी राक्षसों का, तेरे समूचे अन्तःपुर का और लंका के इस पूरे राज्य का भी विनाश होगा। मैं पतिव्रता स्त्री हूँ और श्रीराम की धर्मपत्नी हूँ। तू कभी मुझे प्राप्त नहीं कर सकेगा।”
सीता के इन कठोर वचनों को सुनकर रावण अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने सीता को भय दिखाते हुए कहा, “मेरी बात सुन लो। मैं तुम्हें बारह मास का समय देता हूँ। यदि तब तक तुम स्वेच्छा से मेरे पास नहीं आई, तो मेरे रसोइये सुबह का नाश्ता बनाने के लिए तुम्हारे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे।”
सीता से ऐसी भयंकर बातें कहकर रावण ने कुपित होकर उन राक्षसियों से कहा, “रक्त-माँस का आहार करने वाली विकराल भयंकर राक्षसियों! तुम शीघ्र ही इस सीता का अहंकार दूर करो।”
यह सुनते ही वे सब राक्षसियाँ उसे चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गईं। तब उन्हें सीता से कुछ दूर ले जाकर रावण ने कहा, “तुम लोग सीता को अशोक वाटिका में ले जाओ और चारों ओर से घेरकर इस पर दृष्टि रखो। वहाँ तुम पहले भयंकर बातें और गर्जना करके इसे डराना, फिर मीठी-मीठी बातों से समझा-बुझाकर इसे अपने वश में लाने की चेष्टा करना।”
इस आदेश को सुनकर वे राक्षसियाँ सीता को लेकर अशोक वाटिका में चली गईं। वह वाटिका अनेक प्रकार के फल-फूलों वाले वृक्षों से भरी हुई थी व कई प्रकार के पक्षी भी वहाँ निवास करते थे। उन मनोरम वाटिका में भी सीता का व्याकुल मन शांत नहीं हुआ। अपने भीषण दुःख और उन विकराल राक्षसियों से मिलने वाली डाँट-फटकार व अपमान के कारण वे और व्यथित हो गईं। ऐसी अवस्था में भय व शोक से पीड़ित होकर अपने पति और देवर का स्मरण करती हुईं सीता दुःख से अचेत हो गईं।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

Related Articles

Leave a Comment