चेतावनी – सर बचाना है तो इस पोस्ट को पढ़ने से बचें
पुराणों का जिस तरह का पाठ पार्जिटर ने किया, उसके अनुसार आर्य आक्रमण का सिद्धान्त गलत ही नहीं असंभव है।[1] भारतीय परंपरा के अनुसार आर्यों/ऐलों का अभ्युदय भारत में प्रयागराज से हुआ था।साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि वे बाहर से आए थे।[2] इस आधार पर कि भारतीय राजा, ऋषि-मुनि हिमालय को और उत्तर दिशा को श्रद्धा भाव से देखते रहे हैं वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आर्यों (ऐलों) का भारत में प्रवेश बहुत पहले उत्तर की दिशा से और मध्य हिमालय के पार के किसी देश से हुआ था।[3] यहां पार्जिटर खींच तान करते हुए ऐलों को मानवाें से अलग और विरोधी मान लेते हैं जब कि परंपरा के अनुसार इला मनु की दस संतानों में से एक है जिसका लिंग परिवर्तन हो गया था। इला के पुरुष से स्त्री बनने/ या कन्या के रूप में पैदा होने की कहानी और उसका बुध के योग से पुरूरवा को पैदा करनेके बाद पुरुष (सुद्युम्न) बन जाना एक ऐसा जटिल रूपक है जिसे समझने में सभी से चूक हुई है।
इसका व्याकरण जरूरी है। इ/ई, इर्/ईर् किसी पतली नली से निकलने वाले जल की ध्वनि है। इसका अर्थ जल है इसके ध्वनिभेद इल/ईल, इळ/ईळ, इड/ईड, इड़/ईड़ का जल तथा जलीय विशेषता वाले पदार्थो और क्रियाओं और गुणों में अर्थविस्तार हुआ है। इसका विवेचन मेरे भाषा विषयक फेसबुक के लेखों में है फिर भी संक्षेप में इसे गति, कांति, आहार, आदर, ऐश्वर्य और धरती या भूमि का आशय निहित है। इसे ध्यान में रखते हुए, इनसे आरंभ होने वाले और ऋग्वेद मे प्रयुक्त शब्दों के सायण द्वारा किया गया अर्थ देखें:
इयथ (8.1.7) गतवानसि पुरा; इयत्यै (7.42.4) उपगच्छन्त्यैः, इयर्ति (1.7.8; 1.56.4) प्राप्नोति, (8.12.31) पूजयन्तीं प्रीणयन्तीं ; इयर्मि (1.116.1) संपादयामि ;(3.34.2) प्रकर्षेण उच्चारयामि; इयानः (2.34.14) याचमानाः; (7.68.3) याच्यमानः सन्; इयानासो (5.22.3) उपगच्छन्तः; इरज्यति (1.7.9) ईष्टे, इरज्यत् (8.40.5) प्र इरज्यत् प्रेरयति; इरज्यथः (1.151.6) ईश्वरो स्वामिनो भवथः; इरज्यन्ता (6.60.1) ईशानौ, स्वामिनौ, इरज्यसि (8.39.10) ईश; इरधन्त (1.129.2) संराधन्ते सेवन्ते; इरध्यै (1.134.2) प्रापयितुं परिचरतुं वा; इरस्या (5.40.7) अन्नेच्छया, इलयत (1.191.6) ईरयत गच्छत ; इरावती (7.99.3) अन्नवती, इलां (1.31.11) एतन्नामधेयां पुत्रीं; इलाभिः (5.53.2) बहुविधैरन्नै; इलीबिशस्य (1.33.12) इलायाः बिले शयानस्य। यही दशा इकार के दीर्घत्व के साथ है:
ईजानः (4.51.7) =यागं कुर्वाणः; (7.59.2) इष्टवानः सन् ; ईजानं (1.125.4) =अनुतिष्ठनतं, ईजानस्य (6.48.20) =इष्टवतः; ईजानाय (1.113.20) = हविर्भिः इष्टवते; ईजे (6.1.9) =यजते, (6.16.4) इष्टवान्; ईट्ट (1.180.2) =स्तौति; ईट्टे (1.134.5) = स्तौति, (5.12.6) यजति; ईळा (8.39.1)= स्तुत्या; ईळानाय (2.6.6) पूजयित्रे; ईळित (1.13.4) =अस्माभिः स्तुतः सन्; ईळे (3.1.15) =याचे, (6.16.4) स्तुतवान्; ईळेन्यः=स्तुत्यः; ईड्यः (1.1.2; 12.3) =स्तुत्यः, ईमहे (1.6.10) =याचामहे, (1.10.6) प्राप्नुमः, (1.106.4) याचामहे, ईं (1.71.4) एनमग्निं; ईयते (6.59.5) अभिगच्छति; ईयन्ते (5.55.1) =प्राप्यन्ते; ईयसे (2.6.7) गच्छसि जानासि वा; ईयिवांसं (3.9.4) =गच्छन्तं; ईयुः (7.18.9) आययां चक्रुः; ईयुषीणां (1.113.15) गमनवतीनां पूर्वोत्पन्नानां; ईरते (1.187.5) गच्छति संचरति,\