Home लेखकBhagwan Singh पुराणों का सच भाग -2

पुराणों का सच भाग -2

by Bhagwan Singh
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 चेतावनी – सर बचाना है तो इस पोस्ट को पढ़ने से बचें

 

पुराणों का जिस तरह का पाठ पार्जिटर ने किया, उसके अनुसार आर्य आक्रमण का सिद्धान्त गलत ही नहीं असंभव है।[1] भारतीय परंपरा के अनुसार आर्यों/ऐलों का अभ्युदय भारत में प्रयागराज से हुआ था।साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि वे बाहर से आए थे।[2] इस आधार पर कि भारतीय राजा, ऋषि-मुनि हिमालय को और उत्तर दिशा को श्रद्धा भाव से देखते रहे हैं वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आर्यों (ऐलों) का भारत में प्रवेश बहुत पहले उत्तर की दिशा से और मध्य हिमालय के पार के किसी देश से हुआ था।[3] यहां पार्जिटर खींच तान करते हुए ऐलों को मानवाें से अलग और विरोधी मान लेते हैं जब कि परंपरा के अनुसार इला मनु की दस संतानों में से एक है जिसका लिंग परिवर्तन हो गया था। इला के पुरुष से स्त्री बनने/ या कन्या के रूप में पैदा होने की कहानी और उसका बुध के योग से पुरूरवा को पैदा करनेके बाद पुरुष (सुद्युम्न) बन जाना एक ऐसा जटिल रूपक है जिसे समझने में सभी से चूक हुई है।

 

इसका व्याकरण जरूरी है। इ/ई, इर्/ईर् किसी पतली नली से निकलने वाले जल की ध्वनि है। इसका अर्थ जल है इसके ध्वनिभेद इल/ईल, इळ/ईळ, इड/ईड, इड़/ईड़ का जल तथा जलीय विशेषता वाले पदार्थो और क्रियाओं और गुणों में अर्थविस्तार हुआ है। इसका विवेचन मेरे भाषा विषयक फेसबुक के लेखों में है फिर भी संक्षेप में इसे गति, कांति, आहार, आदर, ऐश्वर्य और धरती या भूमि का आशय निहित है। इसे ध्यान में रखते हुए, इनसे आरंभ होने वाले और ऋग्वेद मे प्रयुक्त शब्दों के सायण द्वारा किया गया अर्थ देखें:

 

इयथ (8.1.7) गतवानसि पुरा; इयत्यै (7.42.4) उपगच्छन्त्यैः, इयर्ति (1.7.8; 1.56.4) प्राप्नोति, (8.12.31) पूजयन्तीं प्रीणयन्तीं ; इयर्मि (1.116.1) संपादयामि ;(3.34.2) प्रकर्षेण उच्चारयामि; इयानः (2.34.14) याचमानाः; (7.68.3) याच्यमानः सन्; इयानासो (5.22.3) उपगच्छन्तः; इरज्यति (1.7.9) ईष्टे, इरज्यत् (8.40.5) प्र इरज्यत् प्रेरयति; इरज्यथः (1.151.6) ईश्वरो स्वामिनो भवथः; इरज्यन्ता (6.60.1) ईशानौ, स्वामिनौ, इरज्यसि (8.39.10) ईश; इरधन्त (1.129.2) संराधन्ते सेवन्ते; इरध्यै (1.134.2) प्रापयितुं परिचरतुं वा; इरस्या (5.40.7) अन्नेच्छया, इलयत (1.191.6) ईरयत गच्छत ; इरावती (7.99.3) अन्नवती, इलां (1.31.11) एतन्नामधेयां पुत्रीं; इलाभिः (5.53.2) बहुविधैरन्नै; इलीबिशस्य (1.33.12) इलायाः बिले शयानस्य। यही दशा इकार के दीर्घत्व के साथ है:

 

ईजानः (4.51.7) =यागं कुर्वाणः; (7.59.2) इष्टवानः सन् ; ईजानं (1.125.4) =अनुतिष्ठनतं, ईजानस्य (6.48.20) =इष्टवतः; ईजानाय (1.113.20) = हविर्भिः इष्टवते; ईजे (6.1.9) =यजते, (6.16.4) इष्टवान्; ईट्ट (1.180.2) =स्तौति; ईट्टे (1.134.5) = स्तौति, (5.12.6) यजति; ईळा (8.39.1)= स्तुत्या; ईळानाय (2.6.6) पूजयित्रे; ईळित (1.13.4) =अस्माभिः स्तुतः सन्; ईळे (3.1.15) =याचे, (6.16.4) स्तुतवान्; ईळेन्यः=स्तुत्यः; ईड्यः (1.1.2; 12.3) =स्तुत्यः, ईमहे (1.6.10) =याचामहे, (1.10.6) प्राप्नुमः, (1.106.4) याचामहे, ईं (1.71.4) एनमग्निं; ईयते (6.59.5) अभिगच्छति; ईयन्ते (5.55.1) =प्राप्यन्ते; ईयसे (2.6.7) गच्छसि जानासि वा; ईयिवांसं (3.9.4) =गच्छन्तं; ईयुः (7.18.9) आययां चक्रुः; ईयुषीणां (1.113.15) गमनवतीनां पूर्वोत्पन्नानां; ईरते (1.187.5) गच्छति संचरति,\

 

हमने ऊपर का यह विस्तृत शब्दभंडार उन लोगों को कायल करने के लिए दिया है जो पौराणिक मान्यताओं की पवित्रता को बनाए रखने के लिए किसी तरह की छेड़छाड़ पर बेचैन हो जाते हैं। वे पढेंगे नहीं. सिर थाम कर बैठ जाएंगे । दूसरे आरोप अपनी जगह पर अडिग रहने के लिए ढूढ़ेंगे। परंतु उन लोगों को भी रास नहीं आएगा जिन्होंने पौराणिक विवरणों को न तो समझा है न ही समझना चाहते हैं। इस बोझिल उद्धरण से गुजर ना उनके लिए भी संभव नहीं है, जो इन दोनों शिविरों नहीं आते। वे केवल उतने ही प्रमाण चाहते हैं जिससे कथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध की जा सके। उनको मैं उन कतिपय शब्दो की याद दिलाना चाहूंगा : इरस्या (5.40.7) अन्नेच्छया, इलयत (1.191.6) ईरयत गच्छत ; इरावती (7.99.3) अन्नवती, इलां (1.31.11) और उस मूल रूपक की ओर लौटना चाहेंगे और निवेदन करना चाहेंगे कि इला या उर्वरा भूमि मनु की संतानों में सबसे उल्लेखनीय है, इसका प्रतीकात्मक चरित्र जगत/धरा का लिंग परिवर्तन होता रहता है। कभी पुल्लिंग द्युम्/अन्न, पृथुद्युम्न – समृद्ध, कभी स्त्री लिंग – धरा, पृथ्वी, भूमि।
ऋग्वेद में द्युम्न से संबंधित शब्दों का सायण ने जो अर्थ किया है उस पर ध्यान दें:
द्युमत् (3.13.7) दीप्तिमत् रत्नकनकादिकयुक्तं; द्युमत्तमं (5.24.2) अतिशयेन दीप्तिमन्तं; द्युम्न (1.9. धनं, (3.59.6) धनं; द्युम्नं (1.77.5) द्योतमानं सोमं; द्युम्नसाता (1.131.1) अन्नस्य यशस्य वा लाभाय; द्युम्नसाहं (1.121. धनस्य अभिभवितारं (यहां अर्थ करने में सायण से चूक हुई है। ग्रिफिथ इसका अनुवाद that giveth splendour किया है जो संगत है); द्युम्नहूतौ (6.26.7) धननिमित्ते स्तोत्रे; द्युम्नानि (3.40.7) द्योतमानानि; द्युम्नितमं (8.19.6) धनवत्तम; द्युम्निनः (1.138.2) द्योतनवतः यशवन्तः अन्नवन्तः वा; द्युम्नेन (1.48.1) अन्नेन।
अब हम पौराणिक कथा पर आएं तो इला मनु के दस पुत्रों में सबसे बड़ा था जो उमा द्वारा शिव के साथ अपने विहार क्षेत्र में प्रवेश करने पर उसके स्त्री बन जाने का शाप दिया था।
यह विशेष प्रसंग पार्जिटर की उस स्थापना के विपरीत है जिसमें वह ऐलों को मानवों से अलग करते हुए प्रयागराज से उनका उत्थान दिखाते है। यह निषिद्ध क्षेत्र वह पर्वतीय ढलान है जिसमें जाने या बसने का कोई साहस नहीं कर सकता था पर मनु के सबसे बड़े और साहसी पुत्र ने इसे स्थायी कृषि के लिए चुना या कहें मनु इस कष्टसाध्य और बनों से भरे क्षेत्र को चुना। उमा और शिव का यह क्षेत्र पर्वतीय ही हो सकता था। जन संख्या बढ़ जाने पर उनका यहां से नीचे उतरने और क्रमशः नदियों के कछारों पर अधिकार करते हुए पूरे मध्यदेश में फैल जाने की कहानी है यह। इला का बुध से विवाह बुद्धिमानों (कृषिकर्म अपने समय का सबसे बड़ा आविष्कार था और इस दिशा मेंअग्रसर लोगों को मनु, दक्ष, बुध, आर्य कहना उसी का द्योतक है) को इस दिशा में प्रेरित करने की ओर इंगित करता है। इला और बुध की संतान पुरुरवा में दूसरे जन-समुदायों को कृषि की ओर आमंत्रित करने का प्रतीक लगता है। इला का पुनः पुरुष रूप में आ जाना और उसका नाम समृद्धि का द्योतक है जो कृषि से पैदा हुई। मनु के दस पुत्रों का होना और पूरे मध्यदेश को आपस में बांट कर राज्य करना बहुत सारे समुदायों के कृषि अपनाने का द्योतक है।
इस तरह हम पाते हैं की उत्तर की दिशा से ऐलों का आना और प्रयाग पर अधिकार करना भारत से बाहर के किसी देश से उनके आगमन का सूचक नहीं। उनका प्रसार भी इलाहाबाद से आरंभ नहीं हुआ। उनको संगम क्षेत्र अधिक पसंद था इसे गर्व के साथ ऋग्वेद में दुहराया भी गया है।
ब इसके मर्म को अपनी कोशिश के बाद पार्जिटर समझ नहीं सके। वह उतनी प्राचीन भारतीय इतिहास की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। संभव है मनु के पुत्रों का विजय अभियान अनेकानेक जनों द्वारा कृषि कर्म अपनाने को प्रकट करता है।
अब इस दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय आर्य या कृषि कर्म अपनाने वाले किसी एक रक्त के नहीं थे। देव, ब्राह्मण, ऐल, आर्य उन्ही जनों से निकले थे जिनमें से अधिकांश नैतिक वर्जना के कारण अंत तक कृषि कर्म से बचते रहे, आर्यों के संपर्क में आए भी तो उद्योग विद्या में तरह-तरह की योग्यताएं अर्जित करके अपनी सेवाएं प्रदान करते रहे। इनके सहयोग के बिना सभ्यता का उत्थान नहीं हो सकता था।

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