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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड भाग 86

सुमंत विद्वांस

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श्रीराम को देखते ही हनुमान जी ने उनके चरणों में सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और फिर बोले, “प्रभु! मैंने सीता देवी का दर्शन कर लिया है। उन्हें रावण के अन्तःपुर में रखा गया है। अनेक राक्षसियाँ उन्हें धमकाती रहती हैं, किन्तु फिर भी आपके प्रति उनका अनन्य अनुराग है। अभी तक उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँची है। वे कुशल हैं, किन्तु रावण ने उन्हें जीवित रखने के लिए अब केवल दो मास की अवधि दी है।”
इसके बाद श्रीराम के पूछने पर हनुमान जी ने लंका पहुँचने से लेकर वापस लौटने तक की अपनी पूरी यात्रा का विवरण उन्हें बताते हुए कहा, “प्रभु! मैं सौ योजन के समुद्र को लाँघकर उस पार पहुँचा। वही रावण की लंका नगरी है। वहाँ मैंने रावण के अन्तःपुर में प्रमदावन के भीतर राक्षसियों से घिरी हुई सीता जी का दर्शन किया। वे केवल आपका ही स्मरण करती हुईं किसी प्रकार वहाँ जी रही हैं। वे नीचे भूमि पर सोती हैं। विकराल रूप वाली राक्षसियाँ उनकी रखवाली करती हैं और बार-बार उन्हें डाँटती-फटकारती रहती हैं। सीताजी का मन केवल आप में ही लगा रहता है। उन्हें रावण से कोई प्रयोजन नहीं है। उन्होंने दो माह के बाद अपने प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया है।”
“श्रीराम! मैंने बड़ा प्रयत्न करके उनका पता लगाया और फिर आपके इक्ष्वाकुवंश की कीर्ति का वर्णन करते हुए किसी प्रकार उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं आपका ही दूत हूँ। इसके बाद मैंने उन्हें यहाँ की सब बातें बताईं और आपका सन्देश सुनाया। चित्रकूट में आपके साथ रहते समय एक कौए को लेकर जो घटना हुई थी, वह वृतांत उन्होंने मुझे प्रमाण के रूप में बताया है। उन्होंने आपको देने के लिए यह चूड़ामणि भी मुझे दी थी।”
ऐसा कहकर हनुमान जी ने सीता जी की वह चूड़ामणि श्रीराम के हाथों में रख दी।
श्रीराम ने उस मणि को देखते ही अपने सीने से लगा लिया और अत्यंत व्याकुल होकर वे रोने लगे। उनका दुःख देखकर भाई लक्ष्मण भी रो पड़े।
श्रीराम कहने लगे, “मित्र सुग्रीव! किसी यज्ञ में राजा जनक को देवराज इन्द्र से यह मणि प्राप्त हुई थी। उन्होंने हमारे विवाह के समय यह सीता को दी थी। आज इसे देखकर ऐसा लग रहा है, मानो मैं सीता को ही देख रहा हूँ। वह तो एक माह तक जीवित रह लेगी, किन्तु मैं तो उसके बिना अब एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता।”
फिर वे हनुमान जी से बोले, “वीर पवनकुमार! तुमने जहाँ सीता को देखा है, वहीं मुझे भी ले चलो। अब मैं एक क्षण भी यहाँ नहीं रुक सकता। घनघोर रूप वाले उन भयंकर राक्षसों के बीच में सीता कैसे रहती होगी! उसने तुमसे क्या-क्या कहा है? मेरे लिए उसने क्या सन्देश दिया है? वह इतने दुःख उठाकर भी किस प्रकार जीवित है? तुम मुझे सब-कुछ बताओ। सीता के बारे में सुनकर ही अब मेरा मन शांत हो सकता है।”
तब हनुमान जी बहुत विस्तार से कहने लगे, “पुरुषोत्तम! जानकी देवी ने पहले चित्रकूट में हुई एक घटना के बारे में मुझे बताया। एक बार आप दोनों सोये हुए थे और वे आपसे पहले सोकर उठ गई थीं। तब सहसा एक कौआ उड़ता हुआ आया और उसने उनकी छाती में चोंच मार दी। ऐसा उसने बार-बार किया, जिससे उनके शरीर से रक्त बहने लगा। उस पीड़ा के कारण उन्होंने आपको जगा दिया। उनकी छाती में हुआ घाव देखकर आप कुपित हो उठे और इधर-उधर देखने पर आपको वह कौआ दिखाई दिया। उसके तीन पंजे खून में रँगे हुए थे और वह सीता जी की ओर ही देख रहा था। सुना है कि वह इन्द्र का पुत्र ही था, जो उन दिनों पृथ्वी पर विचर रहा था।”
“क्रोधित होकर आपने चटाई में से एक कुश निकाला और उसे ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित करके उस कौए पर चला दिया। प्रलयकारी अग्नि के समान जलता हुआ वह दर्भ उस कौए का पीछा करने लगा। वह कौआ अपने प्राण बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता फिरा, किन्तु आपके भय से किसी देवता ने भी उसको संरक्षण नहीं दिया। सब ओर से निराश होकर अंततः वह आपकी ही शरण में आया। शरणागतवत्सल होने के कारण आपने उसे शरण दे दी। लेकिन ब्रह्मास्त्र भी व्यर्थ नहीं जा सकता था, इसलिए आपने उस कौए की दाहिनी आँख फोड़ डाली।”
“यह प्रसंग सुनाने के बाद सीताजी ने मुझसे पूछा था, ‘हनुमान! इतने शक्तिशाली और पराक्रमी होते हुए भी श्रीराम अथवा लक्ष्मण अब मेरी रक्षा क्यों नहीं करते हैं? वे अपने तीखे बाणों से रावण का वध क्यों नहीं करते हैं? उन दोनों को युद्ध में जीतना तो देवताओं के लिए भी असंभव है, फिर वे मेरी इस प्रकार उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? मुझसे ऐसा क्या पाप हुआ है कि वे दोनों समर्थ होते हुए भी मेरी सहायता के लिए नहीं आ रहे हैं?’”
“रघुनन्दन! तब मैंने सीता जी से कहा, ‘माता! मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई आपके दुःख से ही दुःखी हैं। अब आपका पता लग गया है, तो वे शीघ्र ही आकर इस लंका को भस्म कर देंगे। रावण को उसके बन्धु-बान्धवों सहित मारकर वे आपको अपने साथ ले जाएँगे। अब आप मुझे कोई ऐसी पहचान दीजिए, जिसे श्रीराम जी जानते हों तथा जो उनके मन को प्रसन्न कर सके।’ तब उन्होंने मुझे अपनी यह चूड़ामणि दी थी।”
“मैंने तो उनसे यह भी कहा था कि ‘आप मेरी पीठ पर ही बैठकर तुरंत यहाँ से चलिए।’ यह सुनकर उन्होंने मुझसे कहा, ‘वीर महाकपि! रावण ने मेरी इच्छा के बिना मेरा हाथ पकड़ लिया था, किन्तु मैं स्वेच्छा से श्रीराम के सिवा किसी पुरुष को स्पर्श नहीं कर सकती। अतः तुम वापस जाकर श्रीराम को मेरा समाचार दो। यहाँ जिस प्रकार इन राक्षसों द्वारा मुझे डराया-धमकाया जाता है, वह भी जाकर तुम उनसे कहो। वे स्वयं आकर इस पापी का संहार करेंगे और मुझे यहाँ से मुक्त कर कराएँगे। जिस प्रकार रावण ने वन में छल से मेरा अपहरण कर लिया था, उस प्रकार श्रीराम को मुझे छल से मुक्त नहीं करवाना चाहिए। वे संपूर्ण सेना के साथ यहाँ आकर रावण को युद्ध में मार डालें और विजयी होकर मुझे साथ ले जाएँ, तो इससे उनके यश में और वृद्धि होगी।’”
हनुमान जी ने आगे कहा, “प्रभो! उन्होंने यह भी चिंता व्यक्त की थी कि श्रीराम और लक्ष्मण इतने बड़े समुद्र को लाँघकर सेना-सहित इस पार कैसे आएँगे। तब मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि ‘देवी! वानरराज सुग्रीव बड़े शक्तिशाली हैं। उनकी सेना में मुझसे भी अधिक पराक्रमी अनेकों वानर हैं, जिन्होंने अनेक बार वायुमार्ग से पृथ्वी की परिक्रमा की है। आप तो जानती ही होंगी कि साधारण श्रेणी के लोगों को ही दूत बनाकर भेजा जाता है, बहुत श्रेष्ठ लोगों को ऐसे कार्य नहीं दिए जाते। इसी कारण मुझे भेजा गया है। सुग्रीव की सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो किसी भी प्रकार मुझसे कम हो। जब मैं यहाँ तक आ गया हूँ, तो वे सब तो एक ही छलाँग में यहाँ पहुँच जाएँगे, अतः आप शोक न करें। शीघ्र ही आप देखेंगी कि महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण हाथ में धनुष लेकर लंका के द्वार तक आ पहुँचेंगे। वनवास की अवधि पूरी होते ही आपको श्रीराम के साथ अयोध्या लौटकर उनके राज्याभिषेक को देखने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा।’”
“जब मैंने ऐसी बातें कहीं, तब जानकी जी के पीड़ित मन को कुछ शान्ति मिली तथा उन्होंने मुझे यहाँ वापस लौटने की आज्ञा दी।”
वाल्मीकि रामायण का सुन्दरकाण्ड यहाँ समाप्त हुआ। अब अगले भाग से युद्धकाण्ड आरंभ होगा।
आगे जारी रहेगा….

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