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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड भाग 85

सुमंत विद्वांस

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समुद्र को पार करके हनुमान जी महेन्द्रगिरि पर उतरे। अपने वानर-मित्रों से शीघ्र मिलने की उत्सुकता में उन्होंने बड़े तीव्र स्वर में गर्जना की। उसे सुनते ही जाम्बवान हर्ष से खिल उठे। तुरंत ही उन्होंने सब वानरों को बुलाकर उनसे कहा, “वानरों! निसंदेह हनुमान जी अपना कार्य सिद्ध करके लौटे हैं। तभी वे ऐसी गर्जना कर रहे हैं।”
यह सुनते ही सब वानर प्रसन्नता से झूम उठे और वृक्षों की ऊँची-ऊँची शाखाओं पर चढ़कर हनुमान जी को ढूँढने का प्रयास करने लगे। उतने में ही हनुमान जी भी पर्वत से उतरकर नीचे आ गए। वानरों ने उन्हें देखते ही चारों ओर से घेर लिया।
हनुमान जी ने वहाँ आते ही जाम्बवान और अगंद को प्रणाम किया। फिर वे संक्षेप में बोले, “मुझे सीता देवी का दर्शन हो गया।”
इतना कहकर वे आराम से बैठ गए। सब वानरों ने पुनः उन्हें घेर लिया। तब हनुमान जी ने विस्तार से बताया कि ‘सीता जी लंका के अशोक वन में निवास करती हैं। अत्यंत भयंकर राक्षसियाँ उनकी रखवाली में नियुक्त हैं। सीता जी बड़ी भोली-भाली हैं। वे सदा श्रीराम के दर्शनों के लिए व्याकुल रहती हैं। अपने कष्टों के कारण वे बहुत थक गई हैं और दुर्बल व मलिन हो गई हैं।’
सीता से मिलने का समाचार सुनकर सब वानर हर्षित होकर झूमने लगे। तब अंगद ने हनुमान जी से कहा, “कपिश्रेष्ठ! इतना बल व पराक्रम केवल तुम में ही था, जो तुम इस विशाल सागर को लाँघकर फिर वापस इस पार भी लौट आए। तुम्हारे कारण ही अब हम सब लोगों के प्राण बचेंगे। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि तुमने सीता देवी का पता लगा लिया है। अब श्रीराम का शोक भी दूर हो जाएगा।”
फिर जाम्बवान ने हनुमान जी से कहा, “महाकपे! तुमने देवी सीता को कैसे देखा? वह क्रूर रावण उनके साथ कैसा व्यवहार करता है? तुम लंका तक कैसे पहुँचे? हमें किष्किन्धा पहुँचने पर कौन-सी बातें कहनी चाहिए तथा किन बातों को गुप्त ही रखना चाहिए? यह सब तुम विस्तार से हमें बताओ।”
तब हनुमान जी ने अपनी पूरी यात्रा का वर्णन विस्तार से बताया। फिर उन्होंने आगे कहा, “मित्रों! मैंने सुग्रीव की आज्ञा से सीता का पता लगा लिया है। अब मुझे लगता है कि हम लोग सीता को रावण के कारावास से मुक्त करवाएँ और उन्हें साथ लेकर ही किष्किन्धा लौटें। रावण को तो मैं अकेला ही युद्ध में मार सकता हूँ। आप सबकी सहायता से पूरी लंका को भी नष्ट करने में देर नहीं लगेगी। अब आप लोग अपना विचार बताएँ।”
अंगद ने भी हनुमान जी की बात का समर्थन किया। वह बोला, “हनुमान जी ने तो अकेले ही लंका तक जाकर सीता का पता लगा लिया है। अब खाली हाथ लौटकर श्रीराम से यह कहना मुझे उचित नहीं लगता कि ‘हमने सीता देवी का पता तो लगा लिया, किन्तु हम उन्हें ला नहीं पाए।’ इतने सारे पराक्रमी वानरों के होते हुए भी हम यदि यह कार्य न कर सकें, तो यह बड़ी अनुचित बात होगी। चलो, हम सब समुद्र पार करके लंका चलें और सीता जी को लेकर ही किष्किन्धा लौटें।”
यह सुनकर जाम्बवान ने सबको समझाया, “वानरों! हमें वानरराज सुग्रीव तथा परम बुद्धिमान श्रीराम ने दक्षिण दिशा में जाकर केवल सीता का पता लगाने की ही आज्ञा दी थी, उन्हें साथ लाने की नहीं। श्रीराम ने स्वयं रावण को मारकर सीता को मुक्त करवाने की प्रतिज्ञा सब वानरों के सामने की थी। अब यदि हम ही जाकर रावण का वध करें, तो उनकी प्रतिज्ञा झूठी हो जाएगी। उससे न श्रीराम को प्रसन्नता होगी, न हमें। अतः यही उचित है कि हम किष्किन्धा को लौट चलें व उन्हें जाकर सीता का समाचार दें। उसके बाद श्रीराम जैसी आज्ञा देंगे, हम उसके अनुसार आगे का कार्य करेंगे।”
सब वानरों को जाम्बवान की यह बात ठीक लगी। तब वे सब लोग हनुमान जी को आगे करके उछलते-कूदते हुए किष्किन्धा की ओर चल पड़े।
किष्किन्धा में सुग्रीव का एक बड़ा मनोरम मधुवन था। वह चारों ओर से सुरक्षित था। सुग्रीव का मामा दधिमुख उस वन की रक्षा करता था। किष्किन्धा पहुँचते ही हनुमान जी के साथ लौटे वे सभी वानर वहाँ का मधु (शहद) पीने और फल खाने के लिए उत्कंठित हो गए। अंगद और जाम्बवान की आज्ञा लेकर वे मधुवन में घुस गए और वृक्षों पर चढ़कर उछल-कूद करने लगे।
हनुमान जी ने उन सबसे कह दिया, “वानरों! तुम सब लोग निश्चिन्त होकर मधुपान करो और फल खाओ। कोई तुम्हें रोके, तो उससे मैं निपट लूँगा।”
अंगद ने भी कहा कि “हनुमान जी हम सबका कार्य सिद्ध करके लौटे हैं। अतः इस समय उनकी बात मुझे भी माननी ही होगी।”
यह सुनते ही सब वानर निर्भय होकर उस वन में उत्पात मचाने लगे। उन्होंने खूब फल तोड़कर खाए और पेड़ों पर चढ़कर मधुमक्खियों के छत्तों से ढेर सारा शहद निकाल-निकालकर पीने लगे। ऐसा करते-करते उन्होंने पूरे वन को ही उजाड़ दिया।
यह सब देखकर दधिमुख को बड़ा क्रोध हुआ और उसने वानरों को ऐसा करने से रोका। लेकिन वे सब वानर उस समय इतने उन्माद में थे कि वे सुग्रीव के मामा दधिमुख को व उसके साथ आए सब रक्षक वानरों को मारने-पीटने और इधर-उधर घसीटने लगे।
उनसे किसी प्रकार स्वयं को छुड़ाकर दधिमुख ने छलांग लगाई और आकाश-मार्ग से तुरंत वह सुग्रीव के पास जा पहुँचा। श्रीराम व लक्ष्मण भी वहीं थे। उन सबको प्रणाम करके दधिमुख ने निवेदन किया, “राजन! जिस मधुवन में किसी को भी प्रवेश करने की आज्ञा आपके पिता ऋक्षराज ने, वाली ने अथवा आपने भी कभी नहीं दी, आज वहाँ हनुमान आदि वानर बिना आज्ञा के ही घुस आए हैं और उस वन का उन सबने नाश कर दिया है। वे बेखटके वहाँ के फल तोड़-तोड़कर खा रहे हैं और मधु पी रहे हैं। मेरे मना करने पर उन्होंने मेरे साथ-साथ वहाँ के रक्षकों को भी पकड़ लिया और बहुत मार-पीट की।”
यह सुनकर सुग्रीव ने कहा, “जिस प्रकार से वानरों ने ऐसा दुस्साहस किया है, उससे तो मेरा यही अनुमान है कि निश्चित रूप से उन लोगों ने सीता का पता लगा लिया है। यदि उन्होंने वह कार्य सिद्ध न किया होता, तो वे ऐसा कुछ करने का साहस कभी न करते। मुझे विश्वास है कि हनुमान जी ने ही सीता का पता लगाया होगा। ऐसे दुष्कर कार्य को करने की शक्ति व बुद्धि केवल उन्हीं में है।”
यह सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण भी बहुत प्रसन्न हुए।
तब सुग्रीव ने दधिमुख से कहा, “मामा! वे वानर बहुत बड़ा कार्य सिद्ध करके लौटे हैं। उन्होंने मेरे मधुवन का जिस प्रकार आनंद लिया है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें भी आज उनकी उद्दण्डता को क्षमा कर देना चाहिए। अब तुम शीघ्र वापस जाओ और हनुमान आदि सब वानरों को शीघ्र यहाँ भेजो।”
यह सुनते हुए दधिमुख उन्हें प्रणाम करके वापस लौटा और उसने मधुवन में पहुँचकर सब वानरों से क्षमा माँगी। फिर उसने हाथ जोड़कर अंगद से कहा, “युवराज! आपके चाचा सुग्रीव ने बहुत प्रसन्न होकर आप सबको शीघ्र बुलवाया है।”
यह सुनते ही अंगद ने सब वानरों से कहा, “वानरों! ऐसा लगता है कि श्रीराम हम लोगों के आगमन से बहुत प्रसन्न हैं। हमने मधुवन का आनंद तो ले ही लिया है। अब यहाँ हमारे लिए कुछ शेष नहीं है। अतः शीघ्र ही हमें वानरराज सुग्रीव के पास चलना चाहिए।”
सब वानरों ने इस बात का समर्थन किया। तब वे सब वानर आकाश-मार्ग से चले और कुछ ही देर में सुग्रीव के पास आ पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर वे सब हनुमान जी को आगे करके उनके पीछे-पीछे चलने लगे।
श्रीराम को देखते ही हनुमान जी ने उनके चरणों में सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और फिर बोले, “प्रभु! मैंने सीता देवी का दर्शन कर लिया है।”
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस)

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