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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 110

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अतिकाय के मरने का समाचार सुनकर रावण उद्विग्न हो उठा। वह बड़बड़ाता हुआ बोला, “धूम्राक्ष, अकम्पन, प्रहस्त और कुम्भकर्ण जैसे महाबली राक्षस कभी किसी शत्रु से पराजित नहीं होते थे, किन्तु राम ने उन सबका संहार कर डाला। मेरे पुत्र इन्द्रजीत ने उन दोनों भाइयों को नागस्वरूप बाणों से बाँध दिया था, जिनके बन्धन को वरदान के कारण देवता, असुर, यक्ष, गन्धर्व और नाग, कोई भी नहीं खोल सकते थे। फिर भी न जाने किस प्रकार वे दोनों भाई राम और लक्ष्मण उस बन्धन से भी छूट गए। मेरे द्वारा जो भी शूरवीर राक्षस-योद्धा भेजे गए थे, उन सबको युद्ध में वानरों ने मार डाला। अब मुझे ऐसा कोई वीर दिखाई नहीं देता, जो युद्ध में राम-लक्ष्मण, सुग्रीव एवं विभीषण सहित वानर-सेना को नष्ट कर सके।”
“राक्षसों! तुम लोग हर समय लंका की रक्षा में सावधान रहो। सीता को जहाँ रखा गया है, उस अशोक वाटिका की विशेष रूप से रक्षा करो। वहाँ कब कौन प्रवेश करता है और कब वहाँ से बाहर निकलता है, इसकी पूरी जानकारी रखो। सैनिकों के शिविर जहाँ-जहाँ हैं, उनकी बराबर देखभाल करो और पहरा दो। वानरों की प्रत्येक गतिविधि पर सदा-सर्वदा दृष्टि रखना।”
रावण का यह आदेश सुनकर सब राक्षस उसका पालन करने चले गए।
उन सबके जाने पर रावण अपने दुःख और क्रोध के कारण भयंकर शोक करने लगा। अपने पुत्र की मृत्यु का स्मरण करके वह अत्यंत व्याकुल हो गया। उसकी आँखों से आँसुओं की बाढ़ आ गई।
अपने पिता की यह अवस्था देखकर उसके पुत्र इन्द्रजीत ने कहा, “तात! जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक आप चिन्ता और मोह में न पड़िये। मैं प्रतिज्ञा कर रहा हूँ कि आज ही मैं राम और लक्ष्मण दोनों का वध कर डालूँगा।”
ऐसा कहकर इन्द्रजीत ने रावण से विदा ली और अपने रथ पर सब युद्ध-सामग्री रखकर वह युद्ध-स्थल की ओर बढ़ा। उसे देखकर अनेक महाबली राक्षस भी हाथों में धनुष-बाण लेकर उसके पीछे-पीछे चल पड़े। उन सबने प्रास, पट्टिश, खड्ग, फरसे, गदा, भुशुण्डि, मुद्गर, डंडे, शतघ्नी और परिघ आदि आयुध धारण कर रखे थे।
शंखों की ध्वनि और भेरियों की भयानक आवाज चारों ओर गूँज उठी। सोने के आभूषणों से सजा इन्द्रजीत उस तुमुलनाद के बीच युद्ध-भूमि की ओर चला। उसके सिर पर श्वेत छत्र तना हुआ था और उसके दोनों ओर सुवर्णनिर्मित चँवर डुलाए जा रहे थे। इन्द्रजीत को प्रस्थान करता हुआ देखकर रावण ने उसे विजय का आशीर्वाद दिया। सिर झुकाकर इन्द्रजीत ने अपने पिता को प्रणाम किया और फिर वह रथ से उतर गया।
पृथ्वी पर अग्नि की स्थापना करके उसने चन्दन, फूल, लावा आदि के द्वारा अग्निदेव का पूजन किया। फिर विधिपूर्वक श्रेष्ठ मन्त्रों का उच्चारण करते हुए उस अग्नि में हविष्य की आहुति दी। उस समय शस्त्रों को ही अग्निवेदी के चारों ओर बिछे हुए कुश मान लिया गया और समिधा का काम बहेड़े की लकड़ी से पूरा हुआ। फिर उसने काले रंग के एक जीवित बकरे की गरदन पकड़ी और एक ही झटके में उसकी बलि दे दी।
उस आहुति से अग्नि प्रज्वलित हो उठी। उसमें धुआँ नहीं दिखाई दे रहा था और आग की लपटें उठ रही थीं। अग्नि की लपटें दक्षिण दिशा की ओर मुड़ी हुई दिख रही थीं और उनका रंग तपे हुए सोने के समान दिखाई दे रहा था। उस समय अग्नि में उसे विजय के सारे संकेत दिखाई दिए। फिर उसने ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया और अपने धनुष तथा रथ आदि सबको ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित कर लिया।
इसके पश्चात उसने धनुष, बाण, रथ, खड्ग, घोड़े और सारथी सहित स्वयं को आकाश में अदृश्य कर लिया और वह युद्धभूमि में राक्षस-सेना के बीच पहुँचा। वे राक्षस अपने अपने हथियारों से वानरों पर प्रहार कर रहे थे। उनका उत्साह बढ़ाते हुए इन्द्रजीत ने भी नालीक, नाराच, गदा, मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों से वानरों का संहार आरंभ कर लिया। अनेक वानरों का शरीर उसने छिन्न-भिन्न कर डाला। एक-एक बाण से वह पाँच-पाँच, सात-सात और नौ-नौ वानरों को विदीर्ण कर डालता था।
इस भीषण आक्रमण से व्यथित होकर वानरों ने विजय की आशा छोड़ दी, पर वे युद्ध से पीछे नहीं हटे। घायल होते हुए भी वृक्षों और शिलाओं से वे मेघनाद पर आक्रमण करते रहे। लेकिन उसने अपने बाणों से उनके सब प्रहार निष्फल कर दिए।
अब उसने विषधर सर्पों के समान भयंकर और अग्नि जैसे तेजस्वी बाणों से वानरों को मारना आरंभ किया। अठारह बाणों से उसने गन्धमादन को घायल कर दिया और नल पर भी नौ बाण चलाए। इसके बाद सात मर्मभेदी सायकों से उसने मैन्द को तथा पाँच बाणों से गज नामक वानर को भी बींध डाला। फिर उसने दस बाणों से जाम्बवान को तथा तीस सायकों से नील को घायल किया। वरदान में मिले असंख्य भयानक सायकों से उसने सुग्रीव, ऋषभ, अंगद और द्विविद को भी मरणासन्न कर डाला।
वानर-सेना की यह दुर्गति देखकर राक्षसों का उत्साह कई गुना बढ़ गया। अब वे और अधिक आक्रोश से वानरों को रौंदने लगे। माया के कारण इन्द्रजीत छिपा हुआ था। अतः वानरों को केवल पैनी धार वाले तीर ही आकाश से गिरते हुए दिखाई दे रहे थे, किन्तु उन्हें चलाने वाले इन्द्रजीत को वे नहीं देख पा रहे थे।
अनेक श्रेष्ठ वानरों को इस प्रकार घायल कर देने के बाद इन्द्रजीत ने श्रीराम और लक्ष्मण पर भी बाण-वर्षा आरंभ कर दी। निर्भय श्रीराम ने यह देखकर लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ब्रह्मास्त्र का सहारा लेकर इस इन्द्रद्रोही राक्षस ने हमारी सेना को धराशायी कर दिया है और अब तीखें बाणों से हम दोनों को भी पीड़ित कर रहा है। वह अदृश्य है, इसलिए हम उसे देख भी नहीं सकते। ऐसी दशा में किस प्रकार उसे मारा जाए?”
“यह स्वयं भगवान ब्रह्मा का ही अस्त्र है। अतः तुम किसी भी प्रकार का भय मन में लाए बिना चुपचाप मेरे साथ यहाँ खड़े रहकर इन बाणों की मार सहते रहो। जब हम दोनों अचेत होकर गिर जाएँगे, तो इससे हर्षित होकर वह राक्षस अवश्य ही लंका को लौट जाएगा।”
यह तय करके वे दोनों भाई उसी प्रकार खड़े रहे और इन्द्रजीत के बाणों से घायल होकर अंततः मूर्च्छित हो गए। यह देखकर इन्द्रजीत अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ लंका को वापस लौट गया और उसने जाकर रावण को अपनी विजय का समाचार बताया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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