Home हमारे लेखकसुमंत विद्वन्स वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 95
तब श्रीराम ने सागर से कहा, “वरुणालय! मेरी बात सुनो। मेरा यह बाण खाली नहीं जा सकता। इसलिए पहले यह बताओ कि इसे कहाँ छोड़ा जाए।”
इस पर सागर ने उत्तर दिया, “श्रीराम! मेरी उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नामक एक देश है, जहाँ आभीर आदि जातियों के मनुष्य निवास करते हैं। उनका रूप और कर्म दोनों ही बड़ा भयानक है। वे सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं, जिससे उन पापियों का स्पर्श मुझे भी सहना पड़ता है। इसलिए आप अपना बाण वहीं छोड़ दीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम ने उसी देश की ओर अपना वह प्रज्वलित बाण छोड़ दिया। वह बाण जहाँ जाकर गिरा, वह स्थान एक दुर्गम मरुस्थल बन गया। तब से वह स्थान मरुकान्तार के नाम से जाना जाने लगा।
इसके पश्चात सागर बोला, “श्रीराम! आपकी सेना में यह जो नल नामक वानर है, यह साक्षात् विश्वकर्मा का पुत्र है। यह शिल्पकला में उन्हीं के समान निपुण है। यह मेरे ऊपर पुल बनाए, तो मैं उसे धारण करूँगा।”
इतना कहकर सागर अदृश्य हो गया।
तब नल ने आकर श्रीराम से कहा, “प्रभु! मैं बिना पूछे स्वयं ही अपने गुणों का वर्णन नहीं कर सकता था, इसलिए मैं अभी तक चुप था। इस समुद्र ने ठीक कहा है। मैं विश्वकर्मा का औरस पुत्र हूँ और महासागर पर पुल बनाने में समर्थ हूँ। मैं इस विस्तृत समुद्र पर सेतु का निर्माण करूँगा। सब वानर आज ही पुल-निर्माण का कार्य आरंभ कर दें।”
तब श्रीराम की आज्ञा से बड़े-बड़े सैकड़ों वानर जंगल में घुस गए। वहाँ से वे पर्वत की चट्टानों व वृक्षों को तोड़कर समुद्रतट पर खींचकर लाने लगे। साल, अश्वकर्ण, धव, बाँस, कुटज, अर्जुन, ताल, तिलक, तिनिश, बेल, छितवन, कनेर, आम, अनार की झाड़ियों, ताड़, नारियल, बहेड़े, करीर, बकुल, नीम और अशोक आदि वृक्षों से वे समुद्र को पाटने लगे।
सबसे पहले वे लोग विभिन्न यन्त्रों की सहायता से बड़ी-बड़ी शिलाओं को लाकर समुद्र में फेंकते थे। तब समुद्र का जल सहसा आकाश में उछल जाता था और फिर नीचे गिरता था। उन सब पत्थरों को फेंककर उन्होंने समुद्र में हलचल मचा दी।
कुछ वानर लंबा सूत पकड़े हुए थे, कुछ ने नापने के लिए डंडे पकड़ रखे थे और कुछ वानर सामग्री जुटा रहे थे। नीचे पत्थर और उसके ऊपर काष्ठ रखकर उन्होंने पाँच दिनों में सौ योजन लंबा पुल बना दिया। उसकी चौड़ाई दस योजन थी। अंतरिक्ष में आकाशगंगा जिस प्रकार दिखाई देती है, समुद्र में वह सेतु भी उसी प्रकार दिखाई देता था।
असंभव लगने वाला वह कार्य साकार हो जाने से सभी लोग अत्यंत प्रसन्न हुए। वानर उछल-कूदकर गर्जना करते हुए उस रोमांचकारी, अद्भुत सेतु को देख रहे थे। उस सेतु की रक्षा के लिए विभीषण हाथ में गदा लेकर अपने सचिवों के साथ समुद्र के उस पार जाकर खड़े हो गए, ताकि कोई राक्षस यदि उसे पुल को तोड़ने आए, तो उसे रोका जा सके।
तब वानर सेना ने सेतु को पार करना आरंभ किया। सबसे आगे श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव चल रहे थे। अन्य वानर उनके पीछे थे। कई वानर तो जल में कूद पड़े और पुल के किनारे-किनारे तैरते हुए बढ़ने लगे। कुछ पुल पर चलने लगे और कुछ आकाश में उछलकर आगे बढ़े। इस प्रकार नल के बनाए हुए उस सेतु पर चलकर पूरी वानर सेना सागर के उस पार पहुँचने लगी। फल-मूल, जल आदि की समुचित व्यवस्था देखकर सुग्रीव ने सेना को पड़ाव डालने का आदेश दिया।
कुछ समय बाद श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! हमें अपनी सेना को व्यूहबद्ध करके अनेक समूहों में बाँट देना चाहिए तथा इसकी रक्षा में सदा सतर्क रहना चाहिए। मुझे अनेक अपशकुन दिखाई दे रहे हैं, जो रीछों, वानरों व राक्षसों के विनाश के सूचक हैं।”
“धूल से भरी हुई प्रचण्ड वायु चल रही है। धरती काँपती है। पर्वतों के शिखर हिल रहे हैं। पेड़ गिर रहे हैं। मेघों की घटा घिर आई है। वे मेघ दिखने में बड़े भयंकर हैं व उनकी गर्जना भी बड़ी भीषण है। वे रक्त से मिले हुए जल की वर्षा करते हैं। सूर्य से आग की ज्वालाएँ टूट-टूटकर गिर रही हैं। क्रूर पशु और पक्षी सूर्य की ओर मुँह करके दीनतापूर्वक चीत्कार कर रहे हैं।”
“चंद्रमा भी रात में पूर्ण प्रकाशित नहीं होता है और अपने स्वभाव के विपरीत वह तप रहा है। उसकी किरणें भी इस प्रकार लाल दिखाई दे रही हैं, मानो प्रलय का काल आ गया हो। निर्मल सूर्यमण्डल में नीला चिह्न दिखाई दे रहा है। सूर्य के चारों ओर एक छोटा, रुखा, अशुभ तथा लाल घेरा दिखाई दे रहा है। तारे धूल से ढक गए हैं। कौए, बाज तथा अधम गीध चारों ओर उड़ रहे हैं। सियारिनें अशुभ स्वर में चिल्ला रही हैं। ऐसा लगता है कि वानरों एवं राक्षसों के इस युद्ध में यह सारी भूमि शिलाओं, शूलों व तलवारों से पट जाएगी तथा यहाँ मांस व रक्त का कीचड़ जम जाएगा। हम लोगों को यथाशीघ्र आज ही धावा बोल देना चाहिए।”
ऐसा कहकर भगवान श्रीराम ने हाथ में धनुष लेकर लंका की ओर प्रस्थान किया। उनके पीछे-पीछे विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य वानर भी आगे बढ़े। लंका के निकट पहुँचने पर उन वानरों को भारी कोलाहल सुनाई पड़ा। भेरी और मृदंग की ध्वनि के साथ वह और अधिक रोमांचक तथा भयंकर लग रहा था। उसे सुनकर वानर भी उत्साह में भरकर उससे भी ऊँचे स्वर में जोर-जोर से गर्जना करने लगे। वानरों की वह गर्जना राक्षसों ने भी सुनी।
श्रीराम ने युद्ध के नियमों के अनुसार सेना का विभाजन किया था। उन्होंने अंगद तथा नील को आदेश दिया कि वे अपनी-अपनी सेनाओं के साथ वे पुरुषव्यूह के हृदय-स्थल में रहें। ऋषभ नामक वानर को अपनी सेना के साथ व्यूह की दाहिनी ओर तथा गन्धमादन की सेना को बायीं ओर रखा गया। लक्ष्मण के साथ श्रीराम उस व्यूह के मस्तक पर खड़े थे। जाम्बवान, सुषेण तथा वेगदर्शी को अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सैन्य-व्यूह के बीच में रखा गया। वानरराज सुग्रीव के नेतृत्व वाले सैन्य दल को पीछे की ओर नियुक्त किया गया।
इस प्रकार व्यूहबद्ध सेना अब युद्ध के लिए तैयार हो चुकी थी।
तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “हम लोगों ने अपनी-अपनी सेनाओं को भली-भांति विभक्त करके व्यूह बना लिया है। अतः अब इस शुक को छोड़ दिया जाए।”
तद्नुसार रावण के दूत शुक को बन्धनों से मुक्त कर दिया गया।
वानर-सेना से छुटकारा पाते ही भयभीत शुक शीघ्रता से रावण के पास गया। उसे देखकर रावण ने उसका उपहास करते हुए हँसते-हँसते कहा, “ये तुम्हारे दोनों पंख बँधे हुए क्यों हैं? तुम्हें देखकर ऐसा लगता है मानो तुम्हारे पंख नोच लिए गए हों। कहीं तुम उन वानरों के चंगुल में तो नहीं फँस गए थे?”
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…

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