Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 96
भयभीत शुक ने रावण के पूछने पर इस प्रकार उत्तर दिया, “महाराज! मैंने समुद्र के उस पार पहुँचकर आपका सन्देश बहुत मधुर वाणी में उन लोगों को सुनाया। परन्तु मुझे देखते ही वानर कुपित हो गए व उन्होंने उछलकर मुझे पकड़ लिया। वे मुझे घूँसों से मारने लगे व मेरे पंखों को नोंचने लगे। उनसे यह पूछना भी संभव नहीं था कि ‘मुझे क्यों मार रहे हो’ क्योंकि वे वानर स्वभाव से ही ऐसे क्रोधी हैं कि उनसे बात ही नहीं की जा सकती।”
“राक्षसराज! समुद्र पर सेतु बनाकर श्रीराम इस पार आ चुके हैं। उन्होंने पहले ही विराध, कबन्ध व खर का वध किया है और अन्य राक्षसों को भी वे तिनके के समान तुच्छ समझते हैं। जिस प्रकार देवताओं और दानवों का मेल होना असंभव है, उसी प्रकार वानरों व राक्षसों में भी सन्धि नहीं हो सकती। इससे पहले कि वे लंका की चारदीवारी पर चढ़ जाएँ, आप या तो तुरंत ही सीता को उन्हें लौटा दीजिए अथवा शीघ्र आगे जाकर युद्ध कीजिए।”
शुक की यह बात सुनकर रावण की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। उसने गरजते हुए कहा, “यदि देवता, गन्धर्व और दानव भी मुझसे युद्ध करने आ जाएँ, तो भी मैं सीता को नहीं लौटाऊँगा। युद्ध-भूमि में अपने तेजस्वी बाणों से मैं राम के शरीर को लहूलुहान कर डालूँगा और उसकी समस्त वानर-सेना को नष्ट कर दूँगा। इससे पहले कभी राम ने मेरे पराक्रम का सामना नहीं किया है, इसी कारण वह मुझे लड़ने का साहस दिखा रहा है। महासमर में तो स्वयं यमराज भी मेरे आगे नहीं टिक सकते।”
ऐसा कहकर रावण ने अपने दोनों मंत्रियों शुक व सारण से कहा, “राम के द्वारा सागर पर सेतु बना लेना एक अभूतपूर्व कार्य है। इसलिए मुझे अभी भी विश्वास नहीं होता कि समुद्र पर सेतु बनाया जा सकता। तुम दोनों वेश बदलकर वानर-सेना में प्रवेश करो और वहाँ जाकर पता लगाओ कि वानरों की कुल संख्या कितनी है, उनकी शक्ति कैसी है, उनमें मुख्य वानर कौन-कौन से हैं, अगाध सागर में उन लोगों ने पुल कैसे बना लिया, वानरों की छावनी कैसी है, राम-लक्ष्मण के पास कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र हैं, उनका बल-पराक्रम कैसा है, उनकी योजना क्या है? इन सब बातों का तुम पता लगाओ।”
यह आदेश पाकर वे दोनों वानर का रूप धारण करके वानर-सेना में घुस गए। लेकिन उस अपार सेना को देखकर वे भय से काँप उठे। गिनना तो दूर, वे अनुमान भी नहीं लगा पाए कि उन वानरों की संख्या कितनी है। वह वानर-सेना पर्वत-शिखरों पर, झरनों के आसपास, गुफाओं में, सागर किनारे और वनों-उपवनों में भी हर ओर फैली हुई थी। थोड़ी सेना समुद्र को पार कर चुकी थी, कुछ अभी भी पार कर रही थी, और कुछ पार करने की तैयारी कर रही थी।
वानर-सेना का इस प्रकार घूम-घूमकर निरीक्षण कर रहे शुक और सारण को विभीषण ने देखते ही पहचान लिया। उन्हें पकड़कर वह श्रीराम के सामने ले गया। श्रीराम को देखते ही वे दोनों भय से घबराकर हाथ जोड़ते हुए बोले, “रघुनन्दन! हम दोनों को रावण ने भेजा है। हम इस सेना के बारे में सारी आवश्यक जानकारी पाने आए हैं।”
यह सुनकर श्रीराम ने हँसते हुए कहा, “यदि तुमने सारी सेना को देखकर हमारी सैन्य-शक्ति का अनुमान लगा लिया हो, तो अब तुम प्रसन्नतापूर्वक वापस लौट जाओ। तुम दोनों शस्त्रहीन अवस्था में पकड़े गए दूत हो, अतः तुम वध के योग्य नहीं हो। इसलिए तुम भयभीत न हो।”
“अब तुम वापस लौटकर रावण को मेरा यह सन्देश सुना देना कि ‘कल प्रातःकाल ही मेरे बाणों से लंकापुरी का तथा अपनी राक्षसी सेना का विनाश होता हुआ तुम देखोगे। जिस बल के भरोसे तुमने मेरी सीता का अपहरण किया है, अब आकर तुम अपना वह बल दिखाओ।’”
फिर श्रीराम ने विभीषण से कहा, “रावण के ये दोनों गुप्तचर छिपकर यहाँ का भेद जानने आए हैं। ये हमारी सेना में फूट डालने का प्रयास कर रहे हैं। परन्तु अब तो इनका भेद ही खुल गया है, अतः तुम अब इन्हें छोड़ दो।”
तब मुक्त हो जाने पर शुक और सारण श्रीराम की जय जयकार करते हुए वहाँ से भागे और रावण के पास पहुँचकर उससे बोले, “राक्षसेश्वर! हमें तो विभीषण ने वध करने के लिए पकड़ लिया था, किन्तु महापराक्रमी श्रीराम की कृपा से हम जीवित बच गए। श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव तथा विभीषण चारों ओर ही परम शौर्यशाली, दृढ़ पराक्रमी तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता हैं। उनकी विजय निश्चित है। वे चारों तो वानर-सेना के बिना ही इस पूरी लंका को नष्ट कर सकते हैं। उन तीनों के बिना भी श्रीराम अकेले ही अपने तीव्र अस्त्र-शस्त्रों से लंका का विनाश कर डालेंगे। सारे वानर भी इस समय युद्ध करने के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं। उनकी सेना से लड़कर आपको कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए यही अच्छा है कि आप उनसे संधि कर लीजिए और सीता को श्रीराम के पास वापस लौटा दीजिए।”
यह सुनते ही रावण फिर क्रोधित हो गया। वे आवेश में भरकर उन दोनों से बोला, “ऐसा लगता है कि उन वानरों ने तुम्हें बहुत तंग किया है। इसी कारण भयभीत होकर तुम सीता की लौटाने की बात कर रहे हो। मैं सीता को कभी नहीं लौटाऊँगा। ऐसा कोई नहीं है, जो समरभूमि में मेरा सामना कर सके।”
ऐसा कहकर रावण उस वानर सेना का निरीक्षण करने के लिए अपनी ऊँची अट्टालिका पर चढ़ गया। वे दोनों गुप्तचर भी उसके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गए। तब वानरों की उस अपार सेना को देखकर रावण ने सारण से पूछा, “सारण! इनमें से कौन-कौन से वानर मुख्य हैं? इनमें से कौन-कौन अधिक शूरवीर हैं?”
इस पर सारण ने उत्तर दिया, “महाराज! यह जो लंका की ओर मुख करके गरजता हुआ खड़ा है, इसका नाम नील है। यह बड़ा वीर है। वह जो दूसरा वानर अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर क्रोध से इधर-उधर टहल रहा है, वह वाली का पुत्र अगंद है। सुग्रीव ने उसे युवराज बनाया है। अंगद के पीछे जो खड़ा है, उसका नाम नल है। उसी ने समुद्र पर सेतु बनाया था। वह जो चाँदी के समान सफेद रंग का चंचल वानर दिखाई दे रहा है, उसका नाम श्वेत है। वह भयंकर पराक्रमी और बुद्धिमान है। उसके पीछे कुमुद, चण्ड, रम्भ, शरभ,पनस, विनत, क्रोधन, गवय आदि वानर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए उत्तेजित होकर ललकार रहे हैं।”
“इस ओर हर नामक वानर है। उधर जो नीले व काले रंग वाले हजारों रीछ खड़े हैं, उनके बीच खड़ा वह धूम्र उनका राजा है। उस धूम्र का छोटा भाई जाम्बवान है, जिसने देवासुर संग्राम में इन्द्र की सहायता की थी। उस ओर दम्भ, संनादन, क्रथन, प्रमाथी, गवाक्ष, शतबलि आदि अनेक बड़े-बड़े वानरवीर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए तैयार दिखाई दे रहे हैं। इनके अतिरिक्त और भी अन्य अनेक वानरवीर हैं, किन्तु इस सेना की इतनी बड़ी संख्या के कारण उन सबको पहचाना नहीं जा सकता।”
इतना कहकर सारण चुप हो गया। तब शुक ने आगे कहा, “राजन्! वे जो देवताओं के समान दिखने वाले दो वानर खड़े हैं, वे मैन्द तथा द्विविद हैं। युद्ध में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता। इस ओर जो वानर वीर खड़ा दिखाई दे रहा है, वह केसरी का पुत्र है, जो पवनपुत्र और हनुमान भी कहलाता है। यही वानर पहले भी समुद्र को लाँघकर लंका में घुस आया था और सीता से भी मिलकर लौटा था। इस वानर की किसी से कोई तुलना नहीं है। यह तीव्र गति से कहीं भी जा सकता है और कोई भी रूप धारण कर सकता है। इसके समान वीर वानर तीनों लोकों में कोई नहीं है। इसके बल, रूप और प्रभाव का वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।”
“उसके पास ही जो कमल जैसे सुन्दर नयनों वाले साँवले रंग के वीर पुरुष दिखाई दे रहे हैं, वे इक्ष्वाकुवंश के श्रीराम हैं, जिनकी भार्या सीता को आप जनस्थान से उठा लाए हैं। श्रीराम को समस्त वेदों का ज्ञान है और वे कभी भी धर्म का उल्लंघन नहीं करते हैं। वे ब्रह्मास्त्र सहित सभी अस्त्रों के भी ज्ञाता हैं। उनका क्रोध मृत्यु के समान व उनका पराक्रम इन्द्र के समान है। उनकी दाहिनी ओर जो घुँघराले केश वाले राजकुमार खड़े हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। वे अपने भाई के प्रिय हैं तथा सदा भाई के हित में ही कार्य करते हैं। वे राजनीति व युद्ध में कुशल हैं तथा सभी धनुर्धारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। श्रीराम के रक्षा के लिए ये अपने प्राणों की भी चिंता नहीं करते हैं।”
“इस पूरी सेना के बीच वह जो वानर अविचल भाव से खड़ा है, वह उनका राजा सुग्रीव है। वह अपने गले में सौ कमलों वाली सोने की माला पहनता है, जिसमें सदा लक्ष्मी जी निवास करती हैं। देवता और मनुष्य सभी उस माला को पाना चाहते हैं। श्रीराम ने वाली को मारकर किष्किन्धा का राज्य, यह माला और तारा आदि सब-कुछ सुग्रीव को उपलब्ध करवा दिया। अपनी विशाल सेना से घिरा हुआ सुग्रीव भी महान बल व पराक्रम से संपन्न है।”
“महाराज! अब आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे आपकी विजय हो जाए और आपको शत्रुओं के हाथों अपमानित न होना पड़े।”
यह सब सुनकर रावण और क्रोधित हो गया। उसने पुनः शुक और सारण को कड़ी फटकार लगाई। वह बोला, “राजा निग्रह और अनुग्रह (दमन करने और कृपा करने) दोनों में समर्थ होता है। उसके सहारे जीविका चलाने वाले मंत्रियों को ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, जो उसे अप्रिय लगें। जो शत्रु युद्ध के लिए हमारे सामने आए हैं, उनकी प्रशंसा करना तुम लोगों के लिए अत्यंत अनुचित था।”
“तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ है क्योंकि तुम लोग राजनीति का सार भी नहीं समझ पाए। तुम लोग केवल अज्ञान का बोझ ढोने वाले मूर्ख हो। तुम लोगों ने पहले मेरी जो सहायता की है, उसी कारण मैं तुम्हें आज जीवित छोड़ रहा हूँ, अन्यथा शत्रु की प्रशंसा करने के कारण तुम केवल मृत्युदंड के योग्य हो। आज से मेरी राजसभा में तुम्हारा प्रवेश वर्जित है। अब तुम दोनों कभी मुझे अपना मुँह न दिखाना।”
यह सब सुनकर वे दोनों बहुत लज्जित हुए और वहाँ से निकल गए।
उनके जाने पर रावण ने अपने पास बैठे हुए महोदर से कहा, “गुप्तचरों को शीघ्र ही मेरे सामने उपस्थित होने की आज्ञा दो।”
यह आदेश मिलते ही गुप्तचरों को बुलवाया गया। वे आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। रावण ने उनसे कहा, “तुम लोग अभी यहाँ से जाओ और राम की योजना का पता लगाओ। उसकी गुप्त-मंत्रणा में किस-किस को बुलाया जाता है, कौन उसके अंतरंग मंत्री हैं, कौन-कौन उससे मिल गए हैं, कौन उसके मित्र बन गए हैं, उन सबकी क्या योजना है, वे लोग कैसे सोते हैं, किस प्रकार जागते हैं, आज वे क्या करने वाले हैं, यह सब पता लगाकर शीघ्र लौटो।”
आज्ञा पाते ही वे गुप्तचर रावण की परिक्रमा करके वहाँ से निकले व शार्दूल के नेतृत्व में सुवेल पर्वत के निकट छिपकर श्रीराम, लक्ष्मण सुग्रीव और विभीषण को देखने लगे। उस विशाल वानर-सेना को देखकर वे भय से व्याकुल हो गए। तभी अचानक विभीषण ने उन सब राक्षस गुप्तचरों को देख लिया। उसने उन सबको फटकार लगाई और सबसे दुष्ट समझकर अकेले शार्दूल को ही पकड़ लिया। सब वानर उसे पीटने लगे, पर दया करके श्रीराम ने उन सब को छोड़ दिया।
वे सब राक्षस अपने प्राण बचाकर वहाँ से भागे और हाँफते हुए रावण के पास वापस पहुँचे। फिर उन्होंने रावण को सूचना दी कि “श्रीराम की अजेय सेना सुवेल पर्वत के पास आकर ठहरी है।”
यह सुनकर रावण कुछ भयभीत हो गया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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