60 के दशक तक बम्बइया फिल्मों में भारत दिखाई देता था। इसके बाद न मालूम क्या हुआ कि भारतीय परिवेश के नाम पर केवल हॉलीवुड का कूड़ा परोसा जाने लगा। 80 के बाद तो मौलिकता गायब ही हो गई। हर फिल्म पिछली की रीमेक लगने लगी।
इधर नई सदी में फिर कुछ काम शुरू हुआ, लेकिन बहुत भोंडे तरीके से। कहानी के नाम पर साफ साफ देश और समाज विरोधी साजिशें दिखाई दे रही हैं।
ऐसा लगता है कि कहानियां यहाँ बन नहीं रहीं। कहीं और से बनी बनाई भेजी जा रही हैं, फ़िल्म बनाने के पूरे खर्चे के साथ। बतौर लेखक, उन पर सिर्फ एक भारतीय सा दिखने वाला नाम चिपका दिया जा रहा।
इस तरह सिनेमा के जरिये निहायत थर्ड क्लास रीढ़विहीन लोगों को प्रसिद्धि और पैसा दोनों मिल रहा है।
कुपात्रों को जब कुछ मिल जाता है तो वे इतने कृतज्ञ हो जाते हैं कि अपना अस्तित्व ही भूल जाते हैं। मान-सम्मान, देश-समाज, धर्म-संस्कृति… किसी के भी प्रति उन्हें न तो अपने किसी कर्तव्य का भान रह जाता है और न ही दायित्व का।