बिल्कुल शतरंज का खेल चल रहा है और 1935 से 1962 की घटनाएं हूबहू दुहराई जा रही हैं।
स्टालिन के नेतृत्व में रूस के साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए चैम्बरलेन ने हिटलर के सामने चैकोस्लोवाक़ियाई मेमने की बलि दे दी।
चेकोस्लोवाकिया आखिरी क्षण तक सोचता रहा कि मित्र राष्ट्र उसकी मदद करेंगे।
बस रोल बदल गए हैं।
एडवर्ड बेनेस की जगह झेलेंस्की,
हिटलर की जगह पुतिन और
चैम्बरलेन की जगह जो बिडेन।
लेकिन इधर ‘पूरब का साँप’ अपने विषदंत गड़ाने की तैयारी भी कर रहा है बिल्कुल 1962 की तरह।
उस समय विश्व में दो जगह खिचड़ी पक रही थी।
एक पूरब में और एक पश्चिम में और चार वैश्विक नेता दोंनों घटनाओं में आमने सामने थे।
रूस ने अमेरिका को उँगली की थी और क्यूबा में मिसाइल तैनात कर दी।
सीआईए की रिपोर्ट व उपग्रह चित्रों से पुष्टि भी हो गई।
लेकिन संयुक्त राष्ट्रसंघ में टेबल पर जूता उतारकर रखने वाले टिपीकल रूसी ख्रुश्चेव अपने अमेरिकी समकक्ष को कमजोर आँकने की गलती कर बैठे।
कैनेडी!
युवा कैनेडी ख्रुश्चेव के आकलन के विपरीत कठोर प्रमाणित हुये और ‘मुनरो सिद्धांत’ का हवाला देकर अड़ गये।
उन्होंने न्यूक्स का मुँह रूस की ओर मोड़ दिया।
परमाण्विक घड़ी की सुइयाँ तेजी से आगे सरकने लगीं।
लेकिन अंततः ख्रुश्चेव ने समझ लिया कि लड़का मर्लिन मुनरो का इमोशनल आशिक भर नहीं है बल्कि ‘सख्त नेता’ भी है।
इधर पूरब में ड्रैगन मौका ताड़ रहा था और जब दुनियाँ क्यूबा पर फोकस थी ‘लाल साँप’ हिमालय में घुस आया।
माओ ‘सुन त्सू’ का चेला था लेकिन उसका समकक्ष नेहरू एक सनकी बुड्ढे ‘गांधी’ का।
ध्यान रहे कि यह रूस ही था जिसने उस समय ‘दोस्त भारत’ की पीठ में छुरा भोंका था और आँखें फेर ली थीं और यह कैनेडी थे जिन्होंने भारत को हथियार, सूचनाओं व रणनीतिक सलाहों की मदद बिना शर्त भेजी।
संयोग से आज भी यही स्थिति है।
समय फिर 1962 में पहुँच गया है।
रूस व अमेरिकी खेमा आमने सामने है लेकिन जहाँ रूस के पास ख्रुश्चेव से भी ज्यादा सख्तमिजाज रूसी है वहीं अमेरिका के पास फौलादी कैनेडी के स्थान पर जगह जगह रोते फिरने वाला बिडेन है।
इधर चीनी साँप फिर से ताक में बैठा है कि एक बार रूस व अमेरिका की लेंडी बिध जाये तो वह निश्चिंत होकर ताइवान का डिनर करे।
लेकिन 1962 को दुहराने की चीनी मंशा में बस एक अड़ंगा है-
अब चीन के सामने अय्याश नेहरू नहीं नरेन्द्र दामोदरदास मोदी है।

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