Home विषयइतिहास अकबर का महाराणा के विरुद्ध अफवाह युद्ध
जब तक महाराणा प्रताप जीवित हैं, निराशा की कोई बात नहीं।”
गोस्वामी तुलसीदास जी ने यूँ ही नहीं कहा था। क्योंकि वह जानते थे कि सामान्य हिंदू की श्रद्धा और आशा कहाँ टिके हैं।
अकबर भी जानता था कि जिसने राजस्थान को नहीं जीता उसने हिन्द को नहीं जीता और जिसने मेवाड़ को नहीं जीता उसने राजस्थान नहीं जीता।
यानि भारत विजय की चाबी था मेवाड़ और उस चाबी के रखवाले थे महाराणा प्रताप।
लेकिन महाराणा की राह आसान नहीं थी क्योंकि उनका सामना एक ऐसे धूर्त व्यक्ति से था जो हिंदुओं के प्रति घृणा के बाद भी हिंदुओं को मूर्ख बना रहा था और स्थिति यहाँ तक आ गई कि श्रीराम पुत्र कुश के वंशधर राजवंश ने भी अपनी कन्याओं के डोले मुगलों को भेजकर राजपूतों की आन बान और शान पर बट्टा लगा दिया।
लेकिन अकबर चाहे जितना धूर्त हो लेकिन युद्धनीति के संदर्भ में उसने एक ऐसी नीति का प्रयोग किया जिसे कभी महामात्य चाणक्य ने सफलतापूर्वक प्रयोग किया था लेकिन अभागे भारतीयों ने उसे भुला दिया था और भविष्य में गोबेल्स उसका अलग ढंग से प्रयोग करने वाला था।
यह हथियार एक मनोवैज्ञानिक प्रचार था जो अंधविश्वास व अफवाहों के उस युग में कारगर भी था।
–सुपरनेचुरल प्रोपेगेंडा–
अकबर ने स्वर्णमुद्राओं से खरीदे मुल्ले, मौलाना व सूफियों को और उन्हें एक प्रोपेगेंडा टास्क दिया।
हिंदू, मुस्लिम बस्तियों में प्रचार किया जाने लगा कि अकबर अल्लाह का बंदा है और अल्लाह के हुक्म से रूहों और जिन्नातों की फौज उसकी रक्षा करती है और उसकी फौज के आगे आगे चलती है।
अकबर की आँख मूलतः महाराणा प्रताप पर ही लगीं थीं क्योंकि 1567 में चित्तौड़ जीतने के बाद भी मेवाड़ सिर उठाये खड़ा था और अब तो उसपर महाराणा प्रताप आसीन थे। अतः महाराणा के विरुद्ध मोर्चा खोलने से पूर्व एक होशियार कूटनीतिज्ञ के तौर पर वह गुजरात को जीत लेना चाहता था ताकि मेवाड़ के पीछे का मदद का रास्ता बंद हो जाये।
गुजरात विजय के बाद जब उसने 1573ई. में मुहम्मद हुसैन मिर्जा के विरुद्ध बेहद तीव्रता से आक्रमण किया तो विद्रोही सेना में पहले ही अफवाहें उड़ रही थीं कि अकबर के साथ जिन्नातों की फौज आ रही है।
केवल अपनी घुड़सवार सेना के साथ 600 मील का सफर नौ दिन में तय करके अकबर अप्रत्याशित रूप से आ धमका।
इज़के बाद तो गुजरात से होकर पूरे भारत में अफवाह फैल गई कि अकबर सैयदों सूफियों की रूहों की निगहबानी में रहता है, उसकी फौज जिन्नों की सवारी करती है और उसकी फौज के आगे-आगे जिन्न चलते हैं।
हर तरह से तैयार होकर अकबर ने मेवाड़ पर धावा बोला भारत की आजादी की मशाल को बुझाने को।
हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात अकबर स्वयं इस अभियान का संचालन करने लगा जिसमें मनोवैज्ञानिक चालें भी थीं।
मेवाड़ के सैनिकों व जनता में भी अकबर की पराशक्तियों का आतंक फैलाया जाने लगा।
तब मेवाड़ के बुद्धिमान चारण इस प्रचारयुद्ध का सामना करने आगे आए और चारण महाराणा के एक गुप्त अभियान की गाथा मेवाड़ी जनों को सुनाकर उनका साहस जगाने लगे-
“नीले घोड़े के सवार ने अकेले अकबर का सामना करने की ठानी और वे पहुंच गए अकबर के डेरे पर।
उनकी सिद्ध डाकिणी जो एक मक्खी के रूप में उनके साथ थी उसकी सहायता से पहरेदारों को छकाकर वे अकबर के महल की छत पर पहुंच गये जहाँ तुरक पादशाह सोया हुआ था।
लेकिन राणा ठिठक गये क्योंकि सैयदों की रूहें पादशाह की रक्षा में खड़ी थीं।
‘हुकुम देर किस बात की?” डाकिणी ने ललकारा।
“देखती नहीं, सैयदों की रूहें!”
“राणा सा अपने पीछे भी तो देखो जरा।”
महाराणा ने पीछे गर्दन घुमाई।
हाथ में खङ्ग और खप्पर लिए महाकाली विराट रूप में जीभ लपलपा रही थीं।
सैयदों सूफियों की रूहें सिर पर पैर रखकर भाग खड़ी हुईं।
राणा आगे बढ़े लेकिन सोये शत्रु पर वार करना रजपूती के विरुद्ध मान उसकी आधी मूँछें काटकर वापस आ गए।”
चारणों की सुनाई गाथा गाँव गाँव गूंजने लगी और अकबर का अब तक का गढ़ा हुआ अफवाहतंत्र मेवाड़ में न केवल बेअसर हो गया बल्कि अकबर हास्य का पात्र भी बन गया।
इस तरह वीर और बुद्धिमान चारणों ने भी महाराणा के स्वातंत्र्य समर में अपना योगदान दिया और सिद्ध किया कि जब कोई धर्म व राष्ट्र के लिए खड़ा होता है तो ब्राह्मण तुलसीदास हों या वैश्य भामाशाह, राजपूत हों या भील, बंजारे हों या चारण, बच्चा बच्चा उसके साथ उठ खड़ा होता है।
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बचपन में दैनिक भास्कर में पढ़ी व स्मृति पर आधारित।

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