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एक_जोगी_मुख्यमंत्री_से_मिलना

देवेन्द्र सिकरवार

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विगत 8 जुलाई को जब फोन की घंटी बजी और उसपर डिसप्ले हुआ- ‘Yogi Aditynath’ तो एक पल मैं थोड़ा हड़बड़ा सा गया। खैर, उधर से उनके निजी सचिव ने अपने परिचय देने के बाद मुझे सूचित किया कि योगी जी रविवार को सांय 5:45 पर मुझसे कालिदास मार्ग स्थित अपने निजी आवास पर मिलेंगे।

मैंने तुरंत प्रस्तावित समय को बिना सोचे समझे स्वीकृति दे दी लेकिन जब ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिला तब थोड़ा तनाव बढ़ा। इसलिये स्लीपर बस में शैय्या की खोज के साथ विमान के टिकिट पर भी उंगली रखे रहा। बहरहाल पता लगा कि ऐसी लग्जरी बस की यात्रा ट्रेन के सैकिंड क्लास से भी मँहगी पड़ती है।

बहरहाल पता लगा कि ऐसी लग्जरी बस की यात्रा ट्रेन के सैकिंड क्लास से भी मँहगी पड़ती है। लखनऊ पहुँचकर पता लगा कि शर्ट तो कोई रखी ही नहीं मैंने, सारी टीशर्ट हैं तो फिर मित्र प्रदीप पांडे ने चारबाग पर लंच के बाद पास के एक बाजार में मुझे एक शर्ट ख़रीदवाये। संध्या को कालिदास मार्ग निकलते समय जब शर्ट पहनकर तैयार हुआ तो पता चला कि शर्ट अघोर स्वामी रामदासजी को फिट बैठ सकती है, मुझे नहीं। पर अब क्या हो सकता था। हल्की फुल्की चैकिंग के बाद योगी जी के कक्ष के पास प्रतीक्षा कक्ष में पहुँचा दिये गए।

अब आया मुलाकात का क्षण।

दुर्दम्य आत्मविश्वास व स्वाभिमान की मूल प्रकृति के कारण सामान्यतः किसी व्यक्तित्व से आसानी से प्रभावित नहीं हो पाता लेकिन उन क्षणों में मेरे अंदर एक अजीब उत्सुकता अवश्य थी और सच कहूँ तो वह उत्सुकता पुस्तक के संदर्भ से भी भारी हो गई थी और वह थी–योगीजी के व्यक्तित्व के विश्लेषण की। अधिकारी ने मुझे अंदर जाने का इशारा किया और मैंने उनके ‘संन्यास प्रोटोकॉल’ को ध्यान में रखते हुए चमड़े के बने होने के कारण जूतों व बैल्ट के उतारने के विषय में पूछा। अधिकारी ने स्मित के साथ इनकार किया।

अधिकारी ने दरवाजा खोला और मैं उनके सामने था। दाँयी ओर एक विशाल डैस्क के पीछे वे विराजमान थे। मेरे अभिवादन का उन्होंने अपनी चिर परिचित बालसुलभ मुस्कान के साथ प्रतिउत्तर दिया बैठने के पश्चात उन्होंने न केवल परिचय लिया बल्कि पूरी पारिवारिक पृष्ठभूमि व अन्य जानकारियों को पूरी रुचि से सुना। इस बीच मैं मन ही मन उनका आकलन करता रहा- ‘राजतेज, दृढ़, रूक्षता की हद तक स्पष्टतावादी और स्विंगिंग मूड’

लेकिन जब उन्होंने मुलाकात का मंतव्य पूछा और उनके दाँयी ओर भेंट की गयी पुस्तकों का पहाड़ देखा तो मेरा मन निराशा से भर गया और लगा कि मेरी पुस्तक भी इस ढेर का हिस्सा बनने वाली है। जब मैंने पुस्तक पर चर्चा शुरू ही की कि उन्होंने टोकते हुये कह दिया,”इतिहास बहुत जटिल विषय है, पहले इसपर छ: सात साल मेहनत कीजिये।”
मैंने उनका सही आकलन किया था। मूड स्विंग और रूखेपन की हद तक स्पष्टवादी।
यह मुलाकात खत्म हो जाने का इशारा था।
मैंने तनिक अपमानित सा महसूस किया और मेरे भीतर वही दुर्दम्य स्वाभिमान नाग की तरह फन उठाकर खड़ा हो गया–

आपने बिल्कुल सही कहा महाराज जी इसीलिये पिछले सात वर्षों में ऋग्वेद से लेकर मॉडर्न रिसर्च पेपर्स के अध्ययन व अथक परिश्रम के बाद ये पुस्तक तैयार हुई है।”, मैंने विनीत परन्तु दृढ़ स्वर में कहा और जाने के लिये उठ खड़ा हुआ।

योगी जी ने देखा, समझा और मुस्कुराते हुए पुनः बैठने का इशारा किया। फिर घंटी बजाकर पुस्तक को लाने का आदेश दिया। (भेंटकर्ताओं के उपहार, बुके आदि बाहर ही ले लिए जाते हैं और जांच के बाद मुख्यमंत्री की इच्छानुसार उनको कक्ष में लाने की अनुमति होती है।)

सर्वप्रथम मैंने उन्हें एक स्मारिका भेंट की और फिर योगीजी ने खड़े होकर पुस्तक का रैपर अलग किया और हाथ में पुस्तक लेकर उसका विधिवत इनॉगरेशन कर दिया। वो बात अलग है कि वहाँ सिर्फ तीन व्यक्ति उपस्थित थे और फोटोग्राफर बुलाने का विचार किसी के चित्त में आया ही नहीं।

इसके बाद वे पुनः आसनस्थ हो गए और पुस्तक के मुखपृष्ठ का अवलोकन करने के पश्चात उसके बैक कवर को देखने लगे जहाँ मेरा परिचय और पुस्तक का एक अंश लिखा हुआ है।

उन्हें दत्तचित्त पढ़ता देख मैंने धीरे से कहा,

“महाराज जी, पीछे के बीस पृष्ठों में संदर्भ ग्रंथों पर यदि एक दृष्टि डाल लें तो इस पुस्तक के लिए किए गए परिश्रम की एक झलक मिल सकती है।”

उन्होंने बीस पन्ने एक-एक करके पलटे और फिर वे पुस्तक का कोई प्रारंभिक अध्याय पढ़ने में ऐसे तल्लीन हो गए कि मानो सर्वथा एकांत में हों।

फिर उन्होंने मध्य से एक दो अध्याय पढ़े और अंत में आखिरी अध्याय।

उन्होंने प्रारंभिक अध्याय पढ़ने में तुलनात्मक अधिक समय लिया और मैं उनके तेजोद्दीप्त मुण्डित शीश को सकारात्मक रूप से हिलते देख उत्साहित होता रहा।

अंत में उन्होंने पुस्तक को अपनी बाँयी ओर रखे अपने थैले में रखा और अपने आशीर्वचन कहे,

“आपने सचमुच बहुत मेहनत की है, मैं इसे पूरा पढूँगा और उसके बाद अपनी टिप्पणी दूँगा।”

मैंने समय देने के लिए कृतज्ञता व्यक्त की और अभिवादन के पश्चात बाहर निकल आया।

कुछ दिन पश्चात उनके निजी सचिव का फोन आया और पुस्तक के विषय में उनकी निजी रुचि के विषय में बताया गया तथा उनका आशीर्वाद पत्र प्राप्त हुआ जो आपके सामने है।

इस बीच पूरे विवरण को सुनकर मेरे पिता मुझसे रुष्ट हो गये कि मैंने उनका अभिवादन चरणस्पर्श से क्यों नहीं किया। आखिरकार वे एक योगी संन्यासी और गोरखपीठ के प्रधान हैं। अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि मैं मुख्यमंत्री योगी जी से मिलने गया था न कि गोराखपीठ के पीठाधीश्वर से। बहरहाल उन्हें यह कहकर शांत किया कि गोरखपुर में जब मिलना होगा तब निश्चय ही आपके आदेश का पालन होगा।

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