Home अमित सिंघल कैसे फ़ासते है बैंक लोगो को पॉलिसी के झांसे में

कैसे फ़ासते है बैंक लोगो को पॉलिसी के झांसे में

by अमित सिंघल
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मैंने सितम्बर 2020 में लिखा था कि कैसे एचडीएफसी बैंक ने मेरी माता जी को बहला-फुसलाकर 10 लाख रुपए की इंश्योरेंस पॉलिसी बेच दी थी और कैसे लुक आउट नोटिस की सीमा अवधी के बाद मैंने एचडीएफसी के नियमो के अनुसार उस पॉलिसी को कैंसिल करवाया।
इस कार्रवाई में मैंने कुछ तथ्यों का ध्यान रखा। यह कहने का कोई लाभ नहीं कि एचडीएफसी ने क्या बोल कर बेचा या मेरी माता जी ने उनको क्या बोला; क्योंकि किसने क्या कहा, इसका कोई प्रूफ नहीं था। अतः अपनी रणनीति के अंतर्गत शिकायत में व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाया। एचडीएफसी को केवल इन्हीं की ही भाषा में पकड़ने का प्रयास किया।
जनवरी 2021 में एक दूसरा केस पिता जी मेरी नोटिस में लाए। PNB बैंक ब्रांच के एक एजेंट ने, चीफ मैनेजर की सहमति से, उस समय 81 वर्षीय पिता जी को मेटलाइफ का 28 लाख रुपये का इंश्योरेंस नवंबर 2019 में बेच दिया। शर्तो के अनुसार पिताजी को प्रति वर्ष 4 लाख का प्रीमियम अगले पांच वर्षो तक भरना था। जब प्रीमियम भरने का पत्र आया, तब पता चला।
समस्या यह थी कि इंश्योरेंस पॉलिसी की रकम एवं प्रीमियम पहले पेज के ऊपर एक बॉक्स में स्पष्ट लिखा था; द्वितीय, पालिसी “खरीदे” हुए एक वर्ष से अधिक हो गया था।
फिलहाल, मैंने पालिसी के साथ अटैच 28 पेज की शर्तो को ध्यान से पढ़ा; छोटे अक्षरों में जो “काम” की बात लिखी थी, उसे हाईलाइट किया। इंटरनेट पर सर्च करके अतिरिक्त जानकारी जुटायी। फिर मैंने भतीजे को बोला कि मेरी ईमेल को इंश्योरेंस पॉलिसी के अकाउंट से जोड़ दे।
उसके बाद मैंने एक रणनीति के अंतर्गत (जो मैं लिख नहीं सकता) PNB मेटलाइफ से इलेक्ट्रॉनिक पत्राचार करना शुरू किया। कुछ प्रश्नोत्तर के आदान-प्रदान के बाद PNB मेटलाइफ ने मार्च 2021 में ना केवल पालिसी कैंसिल कर दी, बल्कि पूरा पैसा अकाउंट में ट्रांसफर भी कर दिया, जबकि HDFC ने कुछ फीस काट ली थी।
इन दो प्रकरणों से कुछ बाते स्पष्ट थी। प्रथम, आवेश से काम नहीं होता। ना ही व्यक्तिगत आरोप लगाने से। द्वितीय, आपको इन संस्थाओ को इन्ही के नियम-कानून, शर्तो के अनुसार पकड़ना होगा। तृतीय, टर्म्स एंड कंडीशंस भले ही 28 पेज की क्यों ना हो, आपको उसे ध्यान से पढ़ना होगा, अन्य स्रोतों से जानकारी जुटानी होगी, तभी तोड़ भी निकलेगा।
अब इस प्रकरण को दिल्ली दंगो के सन्दर्भ में देख सकते है। अधिकतर लोग केवल आवेश, क्रोध, बिना पढाई-लिखाई के अंट-शंट लिखे जा रहे है; अपने ही नेतृत्व को गरिया रहे है। कुछ बातो की अनदेखी कर रहे है।
उदाहरण के लिए, प्रथम, यह स्पष्ट होना चाहिए कि दिल्ली UT में योगी मॉडल नहीं चल सकता जहाँ छोटे से क्षेत्र में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों है; जहाँ सारा मीडिया एवं एम्बेसी है।
द्वितीय, चार्जशीट की शुरुवात में ही वर्णन करना होगा कि कौन सी शोभायात्रा, किस मार्ग से, किस समारोह के लिए, किसके मार्गदर्शन में, किस रूट से, किसकी अनुमति से निकली। मार्ग के किस पड़ाव पर शोभायात्रा पर पत्थर फेंका गया, गोली चलायी गयी, किसने चलायी, किस समय चलायी, कितने लोग घायल हुए; कौन प्रत्यक्षदर्शी है, क्या वीडियो एविडेंस है। अगर शोभायात्रा की परमिशन नहीं मिली थी, तो पुलिस ने यह एक्शन लिया। अगर फूलप्रूफ केस बनाना है, तो चार्जशीट भी तकनीकी रूप से स्ट्रांग लिखनी होगी।
तृतीय, वामपंथी नेताओ के धरने पे बैठने की वाह-वाही कर रहे है; लिख रहे है ममता अपने एक अधिकारी के लिए धरने पर बैठ गयीं थी। शिकायत करते है कि भाजपा नेता सामने खड़े नहीं होते। प्रश्न यह है कि क्या यह ममता या वामपंथी गंगा में स्नान करते है? श्रीराम मंदिर के शिलान्यास पर उपस्थित रहते है? क्या उनमे साहस है कि यह बोल दे कि आततायियों ने हमारी सभ्यता को तलवार के बल पर बदलने की कोशिश की थी; हमारी संस्कृति को कट्टरता से कुचलने की कोशिश की थी? जबकि प्रधानमंत्री मोदी यह स्पष्ट कह चुके है; बिना किसी लाग-लपेट के औरंगजेब को अत्याचारी और आतंकी बताया।
चतुर्थ, कई बार लिखा है कि अब गुजरात जैसे एनकाउंटर नहीं सुनाई पड़ते। इसका अर्थ यह तो नहीं कि आतंक से निपटा नहीं जा रहा है। हर समय भड़भड़ाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन आप को किसी साद की खोज-खबर लेनी है; कुछ वर्षो से गायब JNU के छात्र के बारे में पता करना है।
अंत में, पता होना चाहिए कि आप को एक अत्यधिक मंहगी पालिसी (संविधान) बेचीं जा चुकी है। यह पालिसी इन्ही वामपंथियों की लिखी हुई है जिन्होंने 1947-1950 की निर्धन एवं बहुसंख्यक अनपढ़ जनता को टिपा दिया था और जिसका अभी कुछ वर्षो पूर्व पता चला है। अभी हम उस पालिसी का प्रीमियम भर रहे है।
अगर इस “पालिसी” – एवं इसके “प्रीमियम” – से निपटना है तो चतुरता, रणनीति एवं ठन्डे दिमाग से काम लेना होगा; नेतृत्व पर भरोसा करना होगा।

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