सैंकड़ों वर्ष पूर्व पूरी दुनिया में समय था कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था का.हर व्यक्ति अपने भर की खेती करता था. उस समय जितनी ज़्यादा जनसंख्या, उतने ज़्यादा लोग खेत में काम करने वाले. अन्य व्यवसाय जैसे लुहार किसानों के लिए औज़ार बनाते,तो बढ़ई बैलगाड़ी, व्यापारी किसानों की फसलें मसाले ख़रीदते बेंचते. मोटा मोटा यह कि अर्थ व्यवस्था खेती पर आधारित थी और खेती मनुष्यों की संख्या पर. उस काल में अधिक जनसंख्या वाले देश जैसे भारत और चीन ने काफ़ी प्रगति की. कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था को नदियाँ मिल जाएँ, अच्छा मौसम मिल जाए तो सोने पर सुहागा. भारत को प्रकृति ने सब दिया था, उस काल में भारत विश्व का सबसे सम्पन्न राष्ट्र सोने की चिड़िया बन कर उभरा.
फ़िर आईं मशीने. सत्रहवीं अठारहवीं सदी का औद्योगिक युग. जितनी मेहनत दस इंसान कर सकते थे, मशीने आईं जो इंसान ही नहीं अश्वों के जैसी मेहनत करने लगीं बग़ैर थके बग़ैर रुके. अकस्मात् मशीन का उपयोग करने वाले देशों का प्रडक्शन केवल मनुष्य की मेहनत वाले देशों से कई गुना होने लगा. इस काल में यूरोप ने अत्यधिक ग्रोथ की. इतना ही नहीं मशीनी करण से तैयार हथियारों की मदद से केवल मनुष्यों और सामान्य तलवार भाले से लड़ने वाले देशों पर इन देशों ने मशीन की वजह से राज भी किया.
जिस युग में शेष विश्व में मशीनी करण हो रहा था भारत में मुग़लों का शासन था. लुटेरी धरती से आए यह लोग भारत की सम्पदा के उपभोग में व्यस्त थे, उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि बाक़ी दुनिया कहाँ पहुँच रही है. एक ओर रेल का इंजन बन रहा था तो इधर हमारे शासक बुत्कशी, तीतर लड़ाने की प्रतियोगिता, पतंग उड़ाना, क़ुल्फ़ी बिरयानी कबाब और हरम बनाने में व्यस्त थे. मुग़ल गए तो अंग्रेज आए, उनका भी इकमात्र लक्ष्य सम्पदा लूटना था, भारत की उन्नति नहीं.
अंग्रेज गए तो भारत में गांधी वादी नेता आए. पूरी दुनिया में इस वक्त तक मशीन की बादशाहत साबित हो चुकी थी. यहाँ तक कि चीन के कॉम्युनिस्ट शासकों को भी समझ आ गई थी कि एक मशीन दस का कार्य करती है, उद्योग खोल जनता को मशीनों पर कार्य कराओ और एक एक आदमी दस का आउट्पुट दे. इसी वजह से लेट बीसवीं सदी में चीन की उन्नति हुई.
भारत 1920 के आस पास से गांधी वादी सम्मोहन में फँस गया. ग़रीबी का शो ओफ़ होने लगा. बकरी का दूध पीने के लिए जहाज़ के फ़र्स्ट क्लास केबिन में बकरी चलने लगी. जब हमें मशीने पकड़नी थीं हम तब भी हथ करधा, चर्खा में फँसे रहे. जनता तो ग़ुलाम रही तो उसे अक़्ल न थी और लोकतंत्र में इसी कम अकली का फ़ायदा नेताओं ने उठाया मशीन के ख़िलाफ़ भड़का कर, यह समझा कर कि कृषि / मनुष्य की मेहनत आधारित अर्थ व्यवस्था का भविष्य है. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब चीन जैसे देशों की खूब प्रगति हुई उनके नेताओं द्वारा तीस पैंतीस वर्ष पूर्व लिए गए मशीनी करण के निर्णयों से तो उस वक्त भारत अपने सोसलिस्ट नेताओं द्वारा बोई गई चरस काट रहा था.
अगला भाग जारी रहेगा ….