2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो कानून-व्यवस्था उनका सबसे मजबूत दांव था। लालू-राबड़ी के जंगलराज से बुरी तरह डरे, ऊबे और चटे बिहारियों ने उनको झूमकर वोट भी दिया था। पहले कार्यकाल के 5 वर्षों में नीतीश कुमार ने एक सख्त प्रशासक की छवि भी बनायी और उस मुताबिक काम भी किए। (2005 से पहले, दौरान और बाद जिसने भी बिहार देखा है, 2010 तक…वे इसकी कसमें खाएंगे)
उन्होंने राज्य की रसातल में जा चुकी कानून-व्यवस्था को न केवल कामचलाऊ बनाया, बल्कि माफिया को भी उसकी औकात दिखाई। जिस अनंत सिंह का समर्थन लिया, उसी को जेल भी भेजा, सुनील पांडेय से लेकर शहाबुद्दीन जैसे तमाम गुंडे-मवालियों को सही जगह दिखाई।
पर हा दैव। न जाने किस बुरी घड़ी में उनके किसी चाटुकार ने यह अफवाह फैला दी कि वह पीएम-मटीरियल हैं और उसके बाद तो ज़माना गवाह है। लालू जैसे सजायाफ्ता से हाथ मिलाने से लेकर (जबकि उनकी पूरी राजनीति ही लालू और उन जैसों के विरोध पर थी) राजद को संजीवनी देने और शराबबंदी की बेलगाम सनक में तुगलक बनने तक के कुकर्म इतने हैं कि आज के नीतीश पुराने सुशासन कुमार का एक भद्दा कैरिकेचर नजर आते हैं।