Home विषयमुद्दा जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने

जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने

by Swami Vyalok
595 views

2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो कानून-व्यवस्था उनका सबसे मजबूत दांव था। लालू-राबड़ी के जंगलराज से बुरी तरह डरे, ऊबे और चटे बिहारियों ने उनको झूमकर वोट भी दिया था। पहले कार्यकाल के 5 वर्षों में नीतीश कुमार ने एक सख्त प्रशासक की छवि भी बनायी और उस मुताबिक काम भी किए। (2005 से पहले, दौरान और बाद जिसने भी बिहार देखा है, 2010 तक…वे इसकी कसमें खाएंगे)

 

उन्होंने राज्य की रसातल में जा चुकी कानून-व्यवस्था को न केवल कामचलाऊ बनाया, बल्कि माफिया को भी उसकी औकात दिखाई। जिस अनंत सिंह का समर्थन लिया, उसी को जेल भी भेजा, सुनील पांडेय से लेकर शहाबुद्दीन जैसे तमाम गुंडे-मवालियों को सही जगह दिखाई।

 

पर हा दैव। न जाने किस बुरी घड़ी में उनके किसी चाटुकार ने यह अफवाह फैला दी कि वह पीएम-मटीरियल हैं और उसके बाद तो ज़माना गवाह है। लालू जैसे सजायाफ्ता से हाथ मिलाने से लेकर (जबकि उनकी पूरी राजनीति ही लालू और उन जैसों के विरोध पर थी) राजद को संजीवनी देने और शराबबंदी की बेलगाम सनक में तुगलक बनने तक के कुकर्म इतने हैं कि आज के नीतीश पुराने सुशासन कुमार का एक भद्दा कैरिकेचर नजर आते हैं।

 

प्रशासक जब समाज-सुधारक बन जाए तो शासन की जड़ों में मट्‌ठा पड़ जाता है। प्रशासक का काम कानून-व्यवस्था को कायम रखना, सुरक्षा प्रदान करना है, ताकि समाज फल-फूल सके। नीतीश कुमार ने इस मूल बात को ही भुला दिया। जब उन्होंने बिहार की पहले से विषाक्त और खंड-खंड हो चुकी सामाजिक व्यवस्था में महादलित का विष घोल कर देख लिया, तो अपने लिए नयी भूमिका की तलाश समाज-सुधारक के तौर पर की।
समाज-सुधार भी उनका अहं है, जिद है, हठ है, कोई सदिच्छा नहीं, करुणा नहीं, आंतरिक बोध नहीं। करुणा होती, तो गरीबों को जेल में नहीं ठूंसते। सदिच्छा होती तो इतनी लाशें देखकर उसके बोझ तले ही दब जाते। आंतरिक बोध होता, तो सीना ठोंककर नहीं कहते कि शराबबंदी पर सोचेंगे भी नहीं, क्योंकि उन्हें भी पता है कि 25हजार करोड़ की काली अर्थव्यवस्था को पैदा करने का श्रेय उनको ही जाता है।
गांधी की हत्या हो गयी। मुझे नहीं पता कि वह प्रशासक कैसे होते। एक फकीर, एक महात्मा अच्छा प्रशासक भी हो, यह कतई जरूरी नहीं। प्रशासन सदिच्छाओं से नहीं चलता, वह साम, दाम, दंड और भेद से चलता है। गांधी के चेले नेहरू ने यह जरूर तवारीखी तौर पर दिखाया है कि वह कितनी बड़ी दुर्घटना और असफलता रहे, भारत के लिए। नेहरू की जगह अंबेडकर भी होते तो शायद भारत बन जाता, पटेल और सुभाष की तो चर्चा ही रहने दें।
———–
और, अंत में। पेंच टाइगर रिजर्व की मादा बाघिन को भी पूरे रीति-रिवाज के साथ अग्नि के हवाले कर दिया गया। (इस पर एक कहानी, बिल्लियों की है। वह फिर कभी कहूंगा।) यही सनातन है, यही हिंदू है। आप इसे फक करें या फख्र करें, यह बिल्कुल आप पर है…।

Related Articles

Leave a Comment