जम्मू-कश्मीर के 17 लाख बेघर लोग : भाग-6
कहां से : कश्मीर घाटी
कौन : कश्मीरी पंडित
कब से : 1989
कितने : तकरीबन 3,00,000
साल 2014 में लिखी गयी 7 भागों की इस सीरीज को दोबारा आपके सामने रखते हुए आग्रह रहेगा कि जरूर पढ़िए : इन्हीं 17 लाख लोगों में लाखों कश्मीरी पंडितों की कहानी भी अब आ गयी है…
देश की केंद्र सरकारें तमाम बातों के बीच आधिकारिक रूप से राज्य सरकार कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने के लिए कहती रही है, लेकिन क्या वहां का बहुसंख्यक समाज इस समुदाय को अपनाने के लिए तैयार हैं ?
कश्मीर घाटी में हम पंडितों की वापसी का स्वागत करते हैं। इसमें हमारी तरफ से कोई रुकावट नहीं है-सैयद अली शाह गिलानी। कहने को तो बदजुबानी करने वाला ये शख्स भी यही कहता है। लेकिन हकीकत की जमीन यह नही कहती।
घाटी से कश्मीरी पंडितों को विस्थापित हुए 23 साल हो गए। पंडितों की एक नई पीढ़ी सामने है और सामने है यह प्रश्न भी कि क्या कभी ये लोग वापस अपने घर कश्मीर जा पाएंगे।14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया। टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी 90 को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था। घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इस के निशाने पर आ गए कश्मीरी पंडित। उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित थे। वे किसी भी कीमत पर सभी पंडितों को मारना चाहते थे या फिर उन्हें घाटी से बाहर फेंकना चाहते थे. इसमें वे सफल हुए।
आतंक की आड़ में यह शरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी मगर 19 जनवरी 90 को जो हुआ वह ताबूत में अंतिम कील थी। पंडितों के घरों में कुछ दिन पहले से फोन आने लगे थे कि वे जल्द-से-जल्द घाटी खाली करके चले जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें। घरों के बाहर ऐसे पोस्टर आम हो गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़कर जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की नसीहत दी गई थी। लोगों से उनकी घड़ियों को पाकिस्तानी समय के साथ सेट करने का हुक्म दिया जा रहा था। सिंदूर लगाने पर प्रतिबंध लग गया था। भारतीय मुद्रा को छोड़कर पाकिस्तानी मुद्रा अपनाने की बात होने लगी थी।
जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज सुनाई देती थी आज उनसे कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था। ये लाउडस्पीकर लगातार तीन दिन तक इसी तरह उद्घोष करते रहे थे। ‘यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’ ‘आजादी का मतलब क्या ला इलाह इल्लल्लाह’’कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है’ और ‘असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान’ जिसका मतलब था कि हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना। उस दौरान कर्फ्यू लगा हुआ था फिर भी कर्फ्यू को धता बताते हुए कट्टरपंथी सड़कों पर आ गए। कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारने, उनकी बहन-बेटियों का बलात्कार करने और हमेशा के लिए उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ने की शुरुआत हो चुकी थी।
आखिरकार 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित अनिश्चितकाल के लिए अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से बाहर जाने को विवश हो गए। स्थानीय तपकों में कहा जाता है कश्मीरी पंडितों को सिर्फ दो चीजें ही आती हैं। एक पढ़ना और दूसरा पढ़ाना। ऐसे में उन लोगों का मुकाबला करना, जो उनके खून के प्यासे थे, संभव ही नहीं था।
23 साल हो गए इन घटनाओं को। पिछले 23 साल से ही कश्मीरी पंडित अपने घर से दूर शरणार्थियों का जीवन गुजार रहे हैं। उस समय घाटी से जान बचाकर शरण की आस में लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित जम्मू, दिल्ली समेत देश के अन्य दूसरे इलाकों में चले गए। जम्मू में पहुंचने के बाद ये लोग वहां अगले 20 साल तक लगातार कैंपों में रहे। शुरुआती पांच साल तक तो ये लोग टेंट वाले कैंपों में रहे। अंदाजा लगाया जा सकता है कि पांच साल तक लगातार पूरे परिवार ने छोटे-से टेंट में किस तरह से सर्दी-गर्मी-बरसात बिताये होंगे। खैर, एक लंबे समय के बाद इन्हें टेंट के स्थान पर ‘घरों में शिफ्ट कर दिया गया।
घर के नाम पर उन मकानों में पूरे परिवार के लिए सिर्फ एक कमरा था जहां औसतन पांच सदस्यों के एक परिवार को रहना था। इसके अलावा एक बड़ी दिक्कत यह थी कि ये कश्मीर घाटी में रहने वाले लोग थे जहां की जलवायु जम्मू से बिल्कुल अलग है। जम्मू में लंबे समय तक रहने का नतीजा यह रहा कि ज्यादातर कश्मीरी पंडित स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से जूझने लगे।
विभिन्न रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि पिछले 23 साल में कश्मीरी पंडितों की जनसंख्या तेजी से कम हुई है। एक कमरे में पूरा परिवार रहता था। मां-बाप भाई-बहन सब। पिछले 23 साल में पर्सनल स्पेस जैसी कोई चीज नहीं रह गई थी। यही कारण है कि जनसंख्या में गिरावट दिखाई देती है। इसके अलावा जिस तरह की आर्थिक समस्या से समाज गुजर रहा था उसमें किसी नए सदस्य को दुनिया में लाना उसके साथ अन्याय करने के समान था।
आज कश्मीरी पंडितों की बड़ी आबादी को उस एक कमरे के घरों वाले कैंपों, जहां वे लगातार 20 साल तक रहे, से निकालकर उनके लिए बनाई गई कालोनियों में बसा दिया गया है। इस तरह के पुनर्वास पर पंडित कहते हैं, कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास की समस्या तो कश्मीर में ही रहने से हल होगी। सरकार ये सोचे कि कश्मीर के बाहर किसी जगह पर उनके लिए रहने की व्यवस्था करा देने से मामला हल हो जाएगा तो ऐसा नहीं है।
(#अवनीश पी. एन. शर्मा)
जारी : जम्मू-कश्मीर के 17 लाख बेघर लोग अन्तिम भाग 7 में…