Home हमारे लेखकइष्ट देव सांकृत्यायन दुनिया एक ईकोइंग वैली है

दुनिया एक ईकोइंग वैली है

by Isht Deo Sankrityaayan
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ये दुनिया एक ईकोइंग वैली है। यहाँ आप जो कुछ भी कहते हैं, वह कुछ दिनों बाद आप ही के पास लौट आता है। व्यक्ति के रूप में कौन लौटाएगा, यह तय नहीं है। लेकिन लौटेगा जरूर, यह तय है। यह किसी व्यक्ति की नहीं, स्वयं प्रकृति की व्यवस्था है और इसीलिए अचूक और अकाट्य भी।

 

मरे हुए दुश्मनों के शवों से सिर काटकर उससे फुटबॉल खेलना उतनी नीच, उतनी घटिया, उतनी बेहूदी और उतनी कायरतापूर्ण हरकत नहीं है जितनी गंभीर मुद्रा बनाकर बड़ी अदा के साथ पूरी बेशर्मी से चेहरे पर ढाई इंच मुस्कान चस्पा कर यह कहना कि – मरने के बाद हर किसी को महान बना दिया जाता है। बेशक मानसिकता शव से सिर निकाल कर फुटबॉल खेलने की भी उतनी ही गलीज है, लेकिन वह है अपने आदिम भदेस स्वरूप में ही। जितना बर्बर वह है, उतना ही बर्बर दिखने से उसे कोई परहेज नहीं है।

 

इसमें जीते जी उंस शत्रु के सामने खड़े न हो पाने का मलाल तो है, लेकिन शिष्टता का ढोंग और बौद्धिकता का पाखंड नहीं है। इसीलिए वह कम खतरनाक भी है। लेकिन इसमें, यानी ओढ़ी हुई मुस्कान के साथ किसी की महानता को नकारने की मानसिकता में, शत्रु से भय और अपनी बेहद कमतरी के एहसास के साथ साथ अपने रूहानी घटियेपन को नकारने की एक बेहद चालाक लेकिन उतनी ही नाकाम कोशिश भी शामिल है।
मेरी दृष्टि में इसके लिए इकलौता जिम्मेदार बौद्धिकता का पंथों का गिरवी हो जाना है। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि विचारधारा के नाम पर बने संगठनों ने काम वास्तव में लुटेरे गिरोहों की तरह किया है। जनता के पैसे से बने सरकारी संसाधनों की वैधानिक लूट। भाईचारे और साम्प्रदायिक एकता की बात करने वालों ने समुदाय विशेष के तुष्टीकरण की अति कर समाज में घृणा के बीज बोए हैं। उससे उगी फसल को खाद पानी दिया है। अहिंसा की बात करने वालों ने कई नरसंहार कराए और किए हैं।
ऐसे पाखंडियों की व्यवस्था के पुरजे भी अपने आकाओं की ही तरह पाखंडी और क्रूर हो गए। वह होना ही था। उससे वे बच नहीं सकते थे। क्योंकि विचारधारा उनके लिए किसी मशाल नहीं, बल्कि चोरबत्ती की तरह काम कर रही थी। अब जिन्होंने उसे सत्ता से हटाया, वे उसे जानी दुश्मन ही दिखेंगे, वैचारिक विरोधी नहीं। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है।
तो उनके चट्टो बट्टों ने वह सब किया, जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। कम से कम बौद्धिकता का लबादा ओढ़ने के नाते तो कतई नहीं। माना कि तुम्हारा कोई चरित्र नहीं। कालनेमियों का कोई चरित्र होता भी नहीं। उंस लबादे की ही थोड़ी इज्जत रख ली होती, जो तुमने केवल लक्ष्य संधान के लिए ओढ़ ली थी।
कालनेमियों के इस दौर में कुछ समझदार लोगों को राम याद आ रहे हैं। धर्म का तत्व याद आ रहा है। काश! राम तब याद आए होते जब उनके काल्पनिक होने का एफिडेविट सुप्रीम कोर्ट में लगाया गया। धर्म के तत्व तब याद आए होते जब क्रिया की गई। वैज्ञानिक विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों ने ‘प्रतिक्रियावाद’ को एक अपराध की तरह स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वे यह भूल जाते हैं कि प्रतिक्रिया हमेशा क्रिया की होती है और हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है। यह प्रकृति का नियम है। ‘लॉ ऑफ मैन’ नहीं, ‘लॉ ऑफ नेचर’।
काश! बुद्धिजीवियों को आज जो सन्मति मिल रही है, वह तब मिली होती।
जो आज दुखद घटनाओं पर हर्षध्वनि की प्रतिक्रिया कर रहे हैं, उन्हें भी याद रखना चाहिए कि उनकी यह प्रतिक्रिया भी आकाश के किसी कोने में वैसे ही दर्ज हो रही है जैसे इसकी प्रेरक क्रिया कभी हुई थी। इसकी भी प्रतिक्रिया कभी वैसे ही लौट कर आएगी, जैसे अभी यह जा रही है। भाड़े के बुद्धिजीवी ऐसे ही बिलबिलाएँगे।
यह सृष्टि क्रिया और प्रतिक्रिया की ऐसी ही अंतहीन शृंखला है। कभी न्याय को सांख्य के साथ पढ़कर देखें। उससे न समझ आए तो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जरूर पढ़ें।

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