कोई ट्रिक , कोई पैतरा , कोई चश्मा , जिस के सरोकार में आते होंगे , आते होंगे । मेरे सरोकार में नहीं । मेरा सरोकार सच से है , किसी पार्टी से नहीं । दूसरे , अगर किसी का अपना कोई नजरिया है तो वह अपने पास ही रखे । पत्रकारिता या लेखन में नज़र और नज़रिया दोनों ही का ध्यान रखना पड़ता है । लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि खूंटे से बंध कर रहना होता है , बिकाऊ बन कर रहना पड़ता है । बल्कि इस के उलट सच को सच ही रखना पड़ता है । अगर बारिश हो रही है तो धूप कैसे लिख दिया जाए ? हां , पेड मीडिया और वैचारिकी और प्रतिबद्धता के हठ में लोग यह करते रहते हैं । लेकिन पत्रकारिता या किसी लेखक का काम यह नहीं है । सो कोई मित्र पत्रकारिता तो मुझे सिखाने की होशियारी किया मत करें । आप अपना लीगी या जातीय चश्मा घर में रख कर ही मेरी वाल पर आएं तो ख़ुशी होगी । यहां मौलानाओं की तजवीज या तावीज नहीं , सच की सूरत और सीरत चलती है । दर्पण है मेरी वाल । बारिश हो रही है तो बारिश , धूप खिली है तो धूप , बादल है कि चांदनी , सब सच-सच ! पत्रकारिता में हम ने कभी किसी की दलाली , भडुवई नहीं की है , न किसी खूंटे में बंध कर रहा हूं। इस लिए सच कहने और लिखने की ताब रखता हूं। हमारी नज़र में अभी सभी की सभी राजनीतिक पार्टियां सांप नाथ और नाग नाथ की ही हैसियत रखती हैं । लेकिन इस बिना पर हम किसी को अपनी तरफ से हराने या जिताने वाले होते कौन हैं ? यह तो जनता जनार्दन है , उस का ही यह काम है । हमें तो बस आंखिन देखी ही लिखना होता है । पेड नहीं , वैचारिकी या प्रतिबद्धता के खाने में लोट-पोट कर नहीं । आप अपना चश्मा संभालिये या अपनी जाति या वैचारिकी , या अपने इमाम , मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता । आप को पड़ता है , तो यह आप जानिए । फिर दुहरा रहा हूं , मेरा सरोकार सच से है , किसी पार्टी से नहीं । किसी को यह नहीं सूट करता तो मेरी बला से ! लेकिन किसी सूरत मैं दिन में अंधेरा नहीं बसा सकता , न ही रात में सूरज उगा सकता हूं। अलग बात है कि यह काम पेड मीडिया और वैचारिकी के खूंटे में बंधे लोग पूरी गुंडई और समूची बदसूरती से कर रहे हैं ।

दयानंद पांडेय
आत्म-कथ्य : पीड़ित की पैरवी कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।