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हारमोनियम के हज़ार टुकड़े का कुछ अंश

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ख़ैर, अख़बार चाहे जैसा था संपादक अच्छे थे और ख़ासे कड़ियल। किसी के आगे झुकते नहीं थे। प्रबंधन के आगे भी नहीं। उस समय संपादक नाम की संस्था थी भी। उस ने बहुतेरे संपादक देखे और भोगे थे पर ऐसा संपादक तो भूतो न भविष्यति। राजनीति, साहित्य, खेल, साइंस, कामर्स, ज्योतिष, सिनेमा यहां तक कि खगोलशास्त्र पर भी वह हमेशा अपडेट रहते थे। वह सुनता था कि घर में तो वह हमेशा पढ़ते ही रहते थे दफ्तर में भी दिन के समय वह पढ़ते ही मिलते थे। किसी भी विषय पर वह पूरी तैयारी के साथ बोलते या लिखते थे। ख़बर चाहे किसी अल्लाह मियां के खि़लाफ़ भी क्यों न हो वह रोकते नहीं थे। प्रबंधन और मालिकान के लाख दख़ल के बावजूद। यह शायद इसी नीति का नतीजा था कि एक बार पानी सिर से ऊपर निकल गया।

 

और अख़बार मालिकान की एक चीनी मिल के खि़लाफ़ भी विधान परिषद के हवाले से एक ख़बर पहले पेज पर छप गई। संपादक उस दिन छुट्टी पर थे। रिपोर्टर नया था। उसे जानकारी ही नहीं थी कि उक्त चीनी मिल इसी व्यवसायी की है और डेस्क ने भी ख़बर देर रात पास कर दी। बावजूद इस सब के संपादक ने उस रिपोर्टर को नौकरी से निकाला नहीं। उसे रिपोर्टिंग से हटा कर डेस्क पर कर दिया। मालिकान को समझा दिया कि रिपोर्टर को निकालने से ख़बर और उछलेगी फिर आप की बदनामी ज़्यादा होगी। मालिकान मान गए थे। रिपोर्टर की आंख में भी पानी था। उस ने भी जल्दी ही दिल्ली के एक अख़बार में नौकरी ढूंढ कर इस्तीफ़ा दे दिया। इस अख़बार के तब का प्रबंधन और मालिकान भी अख़बार वालों के साथ सम्मान से पेश आते थे।

 

मालिकान भी तब संपादक से कहते थे, ‘अगर आपके पास समय हो तो बताइए हम मिलना चाहते हैं।’ और संपादक भी ऐसे कि अगर काम का समय हो तो मना कर देने का जिगरा रखने वाले थे।
अख़बार की यूनियन भी तब कड़ियल थी। अगर प्रबंधन बारह परसेंट बोनस का ऐलान करता तो यूनियन की दो घंटे के काम बंद और ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद में ही बोनस चौदह परसेंट का ऐलान हो जाता। कर्मचारी भी अगर एक बार नौकरी में आ जाते तो अपने को सरकारी कर्मचारी मान बैठते। यहीं से रिटायर होना वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लेते। कहीं किसी के हितों पर प्रबंधन भी चोट नहीं करता। कहीं किसी के साथ किसी कारण कुछ होता भी था तो यूनियन चट्टान की तरह उस के साथ खड़ी हो जाती, प्रबंधन को झुकना पड़ता। उसे याद है कि चौहान नाम का एक चपरासी अकसर शराब के नशे में कुछ न कुछ बवाल कर देता और सस्पेंड हो जाता। यूनियन बीच बचाव करती। वह बहाल हो जाता। एक बार यूनियन के महामंत्री ने आजिज़ आ कर उस से कहा कि, ‘चौहान सुधर जाओ। ऐसे जो हर महीने तुम बवाल काट कर सस्पेंड होओगे तो हम तुम्हारा साथ नहीं दे पाएंगे।’
‘कैसे नहीं दे पाएंगे?’ चौहान भी अड़ गया और अपनी जेब से यूनियन के चंदे की रसीद दिखाते हुए बोला, ‘ई पांच रुपए की रसीद क्या मु़त में कटाइत है हर महीने?’ यूनियन के महामंत्री सहित बाक़ी सदस्य भी हंसने लगे। वैसे ही यूनियन का एक ख़ास हिस्सा था लखन। लखन था तो अख़बार में पेस्टर। पर जब यूनियन का जलसा होता सालाना हो या कोई और, हड़ताल हो या कोई तात्कालिक मोर्चा! हर किसी मौके़ पर गले में हारमोनियम लटका कर जब वह माइक के सामने खड़ा होता तो क्रांति का जैसे बिगुल फूंक देता।
कोई ढोलक या नगाड़े की जो उसे संगत मिल जाती तो वह एक-एक को अपनी गायकी के ललकार में लपेट लेता। ख़ास कर एक शब्द जय हिंद! जय हिंद!! जय हिंद!!! को तीन तरह के उच्चारण में भर कर नारे में तब्दील करता हुआ नुक्कड़ गीत गाने वालों को मीटर और सुर दोनों देता तो बड़े-बड़े उस के क़ायल हो जाते। कई बार तो बाक़ी अख़बारों के यूनियन वाले भी उसे उस की हारमोनियम के साथ अपने मोर्चे में ले जाते। कभी-कभी यह भी होता कि शासन और प्रशासन से भी प्रेस वालों को अपनी बात मनवानी होती। तो नारे लगाते जुलूस निकाले जाते, मशाल जुलूस निकलते। प्रेस क्लब से जी.पी.ओ. तक का मार्च होता। लखन अपनी हारमोनियम लटकाए सब के साथ होता। कई मौक़ों पर गाना-बजाना नहीं भी होता तो भी लखन हारमोनियम लटकाए ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!’ गाने को सार्थक करता यहां वहां घूमता रहता।
ऐसे ही थे एक इदरीस मियां। पढ़े-लिखे कुछ ख़ास नहीं थे पर हर किसी मार्च में वह अपने अख़बार के मैनेजमेंट के खि़लाफ़ ही नारे लगाते रहते। भले ही वह मोर्चा या मार्च शासन या प्रशासन के खि़लाफ़ हो पर उन का नारा जैसे शाश्वत रहता, ‘मनेजर साहिब होश में आओ!’ और वह माइक पर गए बिना रहते भी नहीं थे। फ़र्क़ यही था कि लखन पी पा कर बेगानी शादी में अब्दुल्ला बना रहता और इदरीस मियां बिना पिए, बिना छुए। पर दोनों की लय, उल्लास और आकाश एक ही होता! पर जैसा कि हमेशा होता है, समय करवट लेता है, ले रहा था। पत्रकारिता बदल रही और जो संपादक कहते कि, ‘अभी तो अख़बार के काम का समय है।’ तो मालिकान कहते, ‘फिर बाद में हमारे पास समय नहीं होगा। आप फ़ौरन आइए!’
मालिकान बदले, उन की मन मर्ज़ी शुरू हुई तो प्रबंधन का बदलना भी लाज़िमी था। अब जनरल मैनेजर संपादक से ख़बरों के बारे में टोका-टाकी करने लगे। अख़बार मालिकों की पहले की पीढ़ी अख़बार पढ़ती थी, उस पर बात करती थी। लेकिन यह पीढ़ी हिंदी ही नहीं पढ़ती थी। हिंदी अख़बारों को भी अंगरेज़ी अख़बारों का अनुवाद बनाना चाहती थी। अब वह संपादक से बात करने के बजाय अपने मैनेजर से हुक्म भेजने लगी। हस्तक्षेप बढ़ने लगा। यह ख़बर ऐसे छापिए, वह ख़बर मत छापिए। पर संपादक ने जनरल मैनेजर की बातों की साफ़ अनदेखी की। कहा कि, ‘लाला ने तो कभी ख़बरों के बारे में बात नहीं की, आप भी मत करिए।’ पर जनरल मैनेजर ने संपादक को चिट्ठी लिख कर बाक़ायदा स्पष्टीकरण मांगा। संपादक की समझ में आ गया कि सत्ताइस साल पुरानी नौकरी का आज आखि़री दिन आ गया। अप्रेंटिसशिप से इसी अख़बार में उन्हों ने पत्रकारिता की शुरुआत कर अपने काम, मेहनत और योग्यता के बल पर संपादक की कुर्सी तक वह पहुंचे थे। हिंदी-अंगरेज़ी दोनों अख़बारों की संपादकी संभाली। कोई लालच, कोई दबाव उन के आगे अब तक बेमानी था। वह कभी झुकते नहीं थे। सिद्धांतों, पत्रकारीय मूल्यों को ही वह सर्वस्व समझते थे। सो जनरल मैनेजर की यह चिट्ठी पाते ही उन्होंने हाथ से ही इस्तीफ़ा लिखा, चपरासी बुलाया और एम.डी. के पास भिजवा कर अपना सामान समेटने लगे। एम.डी. भाग कर संपादक के पास आए। पूछा, ‘ऐसा क्या हो गया जो आप ने आनन फ़ानन इस्तीफ़ा भेज दिया?’
आपके पिता जी ने भी कभी ख़बरों के बारे में मुझ से स्पष्टीकरण नहीं मांगा इतने सालों की नौकरी में और आज आप के जनरल मैनेजर की इतनी हिम्मत कि मुझ से स्पष्टीकरण मांगे?’ संपादक ने जोड़ा, ‘बिना आप की शह के तो वह ऐसा कर नहीं सकता! सो अब मैं यहां इस तरह काम नहीं कर सकता!’
‘मुझे सचमुच इस बारे में जानकारी नहीं थी।’
‘चलिए अब तो हो गई।’
‘आप अपना इस्तीफ़ा वापस ले लीजिए। प्लीज़!’
‘इस्तीफ़ा तो मैं ने दे दिया!’
‘कोई वैकल्पिक व्यवस्था होने तक ही रुक जाइए!’
‘संभव नहीं है।’
‘कोई नया संपादक तो ढूंढ लेने दीजिए!’
‘मालिकों के इशारों पर कुत्तों की तरह दुम हिलाने वालों की कमी नहीं है। बहुत मिल जाएंगे।’
‘अच्छा अख़बार के भीतर ही कोई वैकल्पिक व्यवस्था बना जाइए ताकि काम चलता रहे। नया संपादक आने तक!’
‘यह व्यवस्था आलरेडी है।’ संपादक बोले, ‘तब तक के लिए मुकुट जी को कार्यकारी संपादक बना लीजिए। वह आप को सूट भी करेंगे। दुम हिलाने में भी वह माहिर हैं।’
मुकुट जी थे तो आज़ादी की लड़ाई के समय के। कवि थे। पर वीर रस की कविता भी ऐसे पढ़ते थे कि करुण रस की कविता भी पानी मांग जाती। वह आज़ाद भारत अख़बार के शुरुआती दिनों से ही थे। सो वह अख़बार के आदि पुरुष कहे जाते थे। जाने कितने लोग आए और गए। पर वह अंगद के पांव की तरह जमे रहे तो जमे रहे। अब रिटायर थे। पर मानदेय पर काम कर रहे थे। उन के तीन सपने थे। अख़बार का संपादक होना। विधान परिषद में जाना और पदमश्री के खि़ताब से सम्मानित होना। तीनों ही से वह वंचित थे। जब कि सहयोगी प्रकाशन और अंगरेज़ी अख़बार के घोष साहब जो उन के साथ के ही थे यह तीनों सपने साध कर रिटायर हुए थे और मुकुट जी की तरह वह भी मानदेय पर अपनी सेवाएं जारी रखे थे। दोनों ही मालिकानों के क़रीबी। दोनों ही दुम हिलाने में एक्सपर्ट। फ़र्क़ बस इतना ही था कि एक हिंदी में हिलाता था दूसरा अंगरेज़ी में। उन दिनों अख़बारों में क्या था कि अस्सी परसेंट पत्रकार काम करने वाले होते थे और बीस परसेंट दलाली करने वाले। और यह अनुपात भी रिपोर्टरों के बीच का ही होता। डेस्क का कोई इक्का-दुक्का ही दलाल पत्रकार होता। तो यह दलाल पत्रकारिता के नाम पर अख़बार मालिकों से ले कर मंत्रियों, अधिकारियों, दारोग़ाओं तक के आगे जी हुज़ूरी और दुम हिलाने में एक्सपर्ट। हिंदी वाले ज़रा जल्दी एक्सपोज़ हो जाते थे, अंगरेज़ी वाले देर से। तो यहां घोष साहब भी पद्मश्री, संपादक और विधान परिषद भोग लेने के बावजूद एक्सपोज़ हो चुके थे और मुकुट जी इन में से कुछ भी न भोग पाने के बावजूद एक्सपोज़ थे। मुकुट जी कवि भी थे और पत्रकार भी। बल्कि कहें कि पत्रकारों में कवि और कवियों में पत्रकार। वस्तुतः दोनों ही वह नहीं थे। न कवि, न पत्रकार। संपादक कहते भी थे कि, ‘मुकुट जी ज़िला संवाददाता होने की भी योग्यता नहीं रखते लेकिन उन की क़िस्मत देखिए कि वह वर्षों से विशेष संवाददाता हैं और विधानसभा कवर करते हैं।’ और अब यही संपादक मुकुट जी को कार्यकारी संपादक बनाने की तजवीज़ एम.डी. से कर रहे थे और बता रहे थे कि, ‘वह आप को सूट भी करेंगे।’
मुकुट जी कार्यकारी संपादक हो गए। अख़बार तो अख़बार शहर में भी खलबली मच गई। संपादक को आफ़िस से जाते वक्त गेट पर दरबान ने रोक लिया और उन्हें उनकी किताबें या पर्सनल चीज़ें भी नहीं ले जाने दीं। यह सब एम.डी. के इशारे पर हुआ। पहले के दिनों में संपादक इस अख़बार से बाक़ायदा फ़ेयरवेल पार्टी ले कर माला पहन कर गए थे पर अब इसी अख़बार से एक संपादक अपमानित हो कर गया। और इस अपमान के विरोध में एक भी पत्रकार, एक भी कर्मचारी खड़ा नहीं हुआ। अख़बार, प्रबंधन और समाज यहां तक कि यूनियन भी अब एक नए बदलाव में
करवट ले रही थी।
यह कौन सी आहट थी?
ख़ैर, मुकुट जी ने ह़फ्ते भर में ही समझ लिया और लोगों ने भी कि संपादक होना मुकुट जी की क़िस्मत में भले रहा हो, उन के वश का यह सब है नहीं। दलाली करना, दुम हिलाना और बात है, अख़बार चलाना और बात! कोई संपादकीय सहयोगी उन के क़ाबू में नहीं आता। वह परेशान हो गए।
उनको लगा कि कहीं पुराना संपादक तो नहीं सब को भड़का कर अख़बार नष्ट करवाने पर तुला है? फिर इसी बीच कुछ अफ़वाह ऐसी भी आई कि कई लोग यह अख़बार छोड़ कर फ़लां-फ़लां अख़बार में जा रहे हैं। मुकुट जी के हाथ पांव फूल गए। उन्हों ने जनरल मैनेजर को यह बात बताई। जनरल मैनेजर ने सब के प्रमोशन की तरकीब बताई और कहा कि इस से सब के पैसे भी बढ़ जाएंगे, कैडर भी सो कोई कहीं नहीं जाएगा।
यह पहली बार हुआ अख़बार में कि ए टू ज़ेड सब का प्रमोशन एक साथ हो गया। पर इस शर्त के साथ कि अगर काम संतोषजनक नहीं हुआ तो यह प्रमोशन रद्द हो सकता है। कुछ नए अप्रेंटिस भी रखे गए। कहां अख़बार में एक डिप्टी न्यूज़ एडीटर था, अब चार-चार न्यूज़ एडीटर हो गए थे। सभी डट कर काम करने में लग गए। अख़बार का सर्कुलेशन मुकुट जी के कार्यकाल में और बढ़ गया। रोटरी की जगह आफसेट मशीन आ गई। लाइनो और मोनो कंपोजिंग की जगह अब कंप्यूटर ने ले ली। अब मुकुट जी की महत्वाकांक्षाएं पेंग मारने लगीं। वह फ्रंट पेज एडिटोरियल लिखना चाहते थे अपने हस्ताक्षर सहित। कार्यकारी संपादक की जगह पूर्ण कालिक संपादक बनना चाहते थे। पद्मश्री, विधान परिषद के लिए भी वह प्रयासरत थे। बाक़ी तो सब कुछ उनके हाथ में नहीं था पर फ्रंट पेज एडीटोरियल उन के हाथ में था। पर वह लिख नहीं पा रहे थे। सहयोगियों से वह सलाह लेते तो वह सब खेल जाते। उन को उत्तरी वियतनाम-दक्षिणी वियतनाम जैसे विषय सुझा देते जो उन को समझ में ही नहीं आते। पर एक दिन वह सुबह मीटिंग में आए तो बहुत प्रसन्न। बोले, ‘यार आज मज़ा आ गया।’ लोगों ने पूछा, ‘क्या हो गया?’
‘महादेवी वर्मा मर गई!’ मुकुट जी बोले।
‘तो इस में मज़ा आने की क्या बात है?’ एक सहयोगी ने सन्न हो कर पूछा।
‘अरे फ्रंट पेज एडीटोरियल आज मैं लिखूंगा। और इस में किसी से मुझे कुछ पूछना भी नहीं पड़ेगा। इतना भी नहीं समझते?’ उन्होंने महादेवी संबंधी किताबें दिखाते हुए कहा कि, ‘देखो यह सब लाया हूं।’
‘ओह!’
लेकिन एक सहयोगी ने उन्हें फ़र्ज़ी फ़ोन कर दूरदर्शन बुला लिया कि, ‘महादेवी जी पर श्रद्धांजलि देने के लिए रिकार्डिंग है आ जाइए।’ अब मुकुट जी परेशान कि क्या करें? उसी सहयोगी ने सलाह दी कि ‘दूरदर्शन जाइए पहले। यहां का एडीटोरियल तो आप के हाथ में है, जब चाहिएगा, लिख लीजिएगा।’
वह जा कर दिन भर दूरदर्शन में बैठे रहे। शाम को पता किया कि, ‘आखि़र रिकार्डिंग कब होगी?’ दूरदर्शन वालों ने पूछा, ‘कैसी रिकार्डिंग?’
मुकुट जी बोले, ‘महादेवी पर! उन को श्रद्धांजलि देनी है।’
‘ऐसा तो कुछ नहीं है।’
वह भाग कर द़फ्तर आए। महादेवी पर एडीटोरियल लिखते-लिखते उन्हें रात के ग्यारह बज गए। डाक एडीशन छप रहा था। तय यह हुआ कि अब एडीटोरियल कल जाएगा। दूसरे दिन सारे अख़बारों में महादेवी पर एडीटोरियल छप चुका था सो फ्रंट पेज पर छपने का प्रश्न ही नहीं था। उन का यह सपना भी टूट गया। वह यह शिकायत ले कर जनरल मैनेजर के पास भी गए। बाद में और भी ऐसी छोटी-छोटी शिकायतें ले कर वह जाते रहे। जनरल मैनेजर उन की सारी शिकायतें एम.डी. को बताता रहा। एम.डी. समझ गया कि जो एडीटर अपना एडीटोरियल अख़बार में नहीं छपवा सकता वह बाक़ी काम भी भला कैसे करता होगा?
नए संपादक की तलाश शुरू हो गई।
नया संपादक मुख्यमंत्री का सिफ़ारिशी था। मुख्यमंत्री ने उसे संपादक बनाने के लिए कई लाख रुपए विज्ञापन के मद में एडवांस सूचना विभाग से अख़बार को दिलवा दिए। मुख्यमंत्री कांग्रेसी था पर संपादक भाजपाई भेजा उस ने। जातीय गणित के तहत! लेकिन यह चर्चा भी जल्दी ही थम गई। नया संपादक रिपोर्टर से सीधे संपादक बना था। दलाली और लायज़निंग में बेहद एक्सपर्ट। अख़बार मालिक के कई छोटे बड़े काम उस ने करवाए। एम.डी., चेयरमैन सभी प्रसन्न। हालां कि अख़बार में फ़र्ज़ी और प्रायोजित ख़बरों की बाढ़ आ गई थी। एक प्रतिद्वंद्वी अख़बार में एक नया आया संपादक जो अपने अख़बार का लगभग सर्वेसर्वा बन कर आया था, हाकर स्ट्रेटजी में लग गया। सुबह-सुबह हाकरों को वह शराब बांटता, घड़ी, पंखा से लगायत मोटरसाइकिल तक इंसेंटिव में देता। और फिर भी जो हाकर नहीं मानता उस की कुटाई करवा देता। हाथ पैर तुड़वा देता। नतीजा सामने था, वह अख़बार आगे जा रहा था, बाक़ी पीछे। आज़ाद भारत तो बहुत ही पीछे। लाटरियां बंद हो गईं थीं सो उन के परिणाम भी कहां छपते? टेंडर नोटिस में भी आज़ाद भारत की मोनोपोली टूट चुकी थी। लोकल सिनेमा के विज्ञापन अब प्रतिद्वंद्वी अख़बारों में भी थे। प्रतिद्वंद्वी अख़बार का नया संपादक आज़ाद भारत का न सिर्फ़ सर्कुलेशन छीन रहा था बल्कि विज्ञापन भी छीन रहा था। अख़बारों में यह संपादक एक ऐसा सवेरा उगा रहा था जिस सवेरे में सूरज नहीं था। उजाला नहीं था, अंधेरा था। लगता था जैसे हर सुबह एक सूर्यग्रहण लग जाता था। अपने अख़बार के संपादकीय विभाग में भी उस की गुंडई तारी थी। वह जिस को चाहता गालियां देता, जिस को चाहता थप्पड़ मारता, जिस को चाहता लात मार देता। कभी चूतड़ पर तो कभी मुंह पर। और जो यह सब नहीं स्वीकार करता उस के पेट पर लात मार देता। जिस महिला सहयोगी को वह चाहता अपनी रखैल बना लेता। कहीं कोई चीत्कार या अस्वीकार नहीं। लोग उस को भइया कहते और वह सब की मइया…….करता!
अजब था।
अजब यह भी था कि कहीं किसी स्तर पर इस का प्रतिरोध नहीं था। न भीतर, न बाहर। भइया नाम के इस संपादक की गुंडई की चहुं ओर स्वीकृति पर सुनील जैसे कुछ लोग शर्मशार थे। पर बंद कमरों में। बाहर प्रतिरोध की हिम्मत उन में भी नहीं थी।
यह वही दिन थे जब अख़बारों में स्ट्रिंगर्स और संवाद सूत्र की फ़ौज खड़ी हो रही थी। पहले के दिनों में अख़बारों में अप्रेंटिस आते थे। साल छः महीने या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल में ट्रेनिंग पूरी कर वह उप संपादक या स्टाफ़ रिपोर्टर बन जाते। पर अब वह स्ट्रिंगर बन रहे थे, संवाद सूत्र बन रहे थे। भइया का पैर छू कर यह संवाद सूत्र और स्ट्रिंगर का छूत बाक़ी अख़बारों में भी पांव पसार रहा था। शोषण की एक नई नींव रखी जा रही थी, नई इबारत लिखी जा रही थी, एक नई चौहद्दी बनाई जा रही थी। जिस पर किसी यूनियन, किसी जर्नलिस्ट फ़ेडरेशन, किसी जर्नलिस्ट एसोसिएशन या किसी प्रेस काउंसिल को रत्ती भर भी ऐतराज़ नहीं था।
यह क्या था?
ख़ैर, इन्हीं दिनों आज़ाद भारत के सहयोगी प्रकाशन अंगरेज़ी अख़बार के सवा सौ साल पूरे हो रहे थे। सो तय हुआ कि यह एक सौ पचीसवीं जयंती समारोह पूर्वक मनाई जाए। अख़बार के दलाल संपादक ने वाया मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री से टाइम लेने की ज़िम्मेदारी ले ली। और यह लीजिए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने टाइम दे दिया। दिल्ली के विज्ञान भवन में समारोह पूर्वक अंगरेज़ी अख़बार की एक सौ पचीसवीं जयंती मनाई गई। अख़बार मालिक ने मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठाया। प्रधानमंत्री से मेल मुलाक़ात का। दो केमिकल फै़क्ट्रियों का लाइसेंस ले लिया। फ़टाफ़ट। प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा में पत्रकारों की टीम में अपनी जगह फ़िक्स की। और उस विदेश यात्रा में भी दो फै़क्ट्रियों के लाइसेंस जुगाड़ लिए।
अब सवाल था कि इन फ़ैक्ट्रियों को लगाने की पूंजी कहां से आए? कभी देश के औद्योगिक जगत में पांचवें नंबर पर गिने जाने वाले इस व्यावसायिक मारवाड़ी परिवार ने जो अब शहर में भी पांचवें नंबर के पैसे वालों में नहीं रह गया था, इस अख़बार और इस की बिल्डिंग से ही लागत पूंजी निकालने की तरकीब निकाली। आलम यह था कि बोफ़ोर्स की बाढ़ में राजीव गांधी की सरकार बह चुकी थी और मंडल कमंडल की आंच में वी.पी. सिंह सरकार ध्वस्त हो गई थी।
चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व में जीप वाली पार्टी कांग्रेस के ट्रक को खींच रही थी। फ़ैक्ट्रियों के लाइसेंस डूबते दिख रहे थे। अंततः कांग्रेस में एक खे़मा सक्रिय हुआ। और उन दिनों देश के औद्योगिक जगत में पांचवें नंबर पर उपस्थित एक उद्योग घराने ने दोनों अख़बार और अख़बार की नई बन रही बिल्डिंग को कांग्रेस के इशारे पर ख़रीद लिया। यह संयोग भी अजब था कि जो घराना इस अख़बार और कंपनी को बेच रहा था उस ने भी जब इस कंपनी और अख़बार को ख़रीदा था तब देश के औद्योगिक जगत में पांचवें नंबर पर था। और अब नया ख़रीददार भी उसी पायदान पर था। यह अख़बार और यह कंपनी अपने को चौथी बार बिकते पा रहे थे। कभी अंगरेज़ों का रहा यह अख़बार जिस में कभी चर्चिल जैसों ने काम किया था जो बाद में इंगलैंड के प्रधानमंत्री बने थे, अपने सौभाग्य पर एक बार फिर मुसकुरा रहा था। हालां कि तजु़र्बेकार आंखें इसे सौभाग्य नहीं दुर्भाग्य मान रही थीं, इस अख़बार का। पर अभी होशियार टिप्पणीकार कुछ भी कहना जल्दबाज़ी बता रहे थे। गोया दिल्ली भी दूर थी और लंका भी!
अभी तो उस व्यावसायिक घराने के प्रताप के चर्चे थे। काग़ज, शराब और अन्य तमाम मिलों के अलावा शिपिंग कंपनी भी इस घराने के पास थी। सो कितने पानी के जहाज़ हैं इस कंपनी के पास, इस के भी चर्चे थे। इस व्यावसायिक घराने का चेयरमैन पंजाबी था और कुंवारा था। जब कि पिछला घराना मारवाड़ी था। पिछले घराने का चेयरमैन बाल बच्चेदार था। कभी उस की भी तमाम काटन और चीनी मिलें थीं। पर नया चेयरमैन जल्दी ही फ़ेरा क़ानून में पकड़ा गया था, यह ख़बरें भी चलीं। और कि कैसे इस ने क़ानून को तब ख़रीद लिया था, यह चर्चा भी चली। राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस उद्योगपति को राजीव के विरोध के बावजूद फ़ेरा का़नून में गिऱतार करवाया था। इस उद्योगपति ने जेल जाने से बचने के लिए तब पानी की तरह पैसा बहाया था। और जैसा कि प्रेमचंद कभी लिख गए थे कि न्याय लक्ष्मी की कठपुतली है, वह जैसे चाहती है वैसे ही यह उठती बैठती है, को सार्थक करते हुए यह उद्योगपति जेल जाते समय रास्ते में रुक कर ज़मानत पा गया था। हुआ यह कि सुप्रीम कोर्ट में लगभग सभी जस्टिसों का दरवाज़ा इस उद्योगपति ने खटखटाया। पर बढ़ते विवाद और वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सक्रियता को देखते हुए किसी जस्टिस की हिम्मत नहीं पड़ी कि इस उद्योगपति को ज़मानत दे कर इसे जेल जाने से बचा सके। पर क़िस्मत कहिए कि संयोग या कुछ और उसी दिन एक जस्टिस महोदय रिटायर हो गए थे। इस उद्योगपति के कारिंदों ने उन से संपर्क किया। वह रिटायर्ड जस्टिस रिस्क लेने को आनन-फ़ानन तैयार हो गए। बस दिक़्क़त यह भर थी कि उस दिन लंच के पहले उन्हों ने कार्य भार से मुक्ति ले ली थी। मामला फंसा कि रिलीव होने से पहले के टाइम में ही वह ज़मानत दे सकते थे। इस के लिए सुप्रीम कोर्ट की तमाम मशीनरी को साधना था। कारिंदों ने सुप्रीम कोर्ट की इस तमाम मशीनरी को पानी की तरह पैसा बहा कर क़दम-क़दम पर ख़रीद लिया। जस्टिस के रिलीव होने के पहले का टाइम दर्ज हुआ, ज़मानत दर्ज हुई। पर तब तक इस उद्योगपति को तिहाड़ जेल रवाना किया जा चुका था। तब मोबाइल का भी ज़माना नहीं था। तो भी सब कुछ मैनेज किया गया और बीच रास्ते ज़मानत का पेपर दिखा कर इस उद्योगपति को जेल जाने से इस के कारिंदों ने रोक लिया। और बाद में जनमोर्चा के दिनों में ‘पैग़ाम उन का/पता तुम्हारा/बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा’ जैसी कविता लिखने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह तब कसमसा कर रह गए थे। पर हाथ मलने के अलावा उन के पास और कोई चारा नहीं था।
और अब यही व्यावसायिक घराना आज़ाद भारत और उस के सहयोगी प्रकाशन अंगरेज़ी अख़बार और इस कंपनी का नया मालिक बन चुका था। कोई पचीस करोड़ के इस सौदे में कांग्रेस के एक राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष टाइप नेता आगे-आगे थे जिन के लिए कहा जाता था कि न खाता न बही केसरी जो कहे वही सही! कांग्रेस का अपना अख़बार नेशनल हेरल्ड और नवजीवन बंद हो चुका था। अब उस को अपने अख़बार की ज़रूरत महसूस हो रही थी कि करवाई जा रही थी जो भी हो यह दोनों अख़बार अब कांग्रेस की जेब में थे। हर्र लगे न फिटकरी के तर्ज़ पर। हालां कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद जब कांग्रेस दुबारा सत्ता में लौटी थी तब इंदिरा गांधी से किसी पत्रकार ने नेशनल हेरल्ड और नवजीवन के बारे में पूछा तो उन्हों ने साफ़ कहा था कि, ‘अब जब सभी अख़बार हमारी बात ख़ुद कह रहे हैं तब हमें अपना अख़बार निकालने की ज़रूरत भी कहां है?’ पर नवंबर, 1990 में अयोध्या घटना में जब यू.पी. के लगभग सभी अख़बार हिंदुत्ववादी ख़बरों से लैस दिखे ख़ास कर हिंदी अख़बार तो कांग्रेस को इस की चिंता हुई या करवाई गई जो भी हो सो यह सौदा इसी आड़ में करवाया गया।
तो इस घराने ने यह दोनों अख़बार ख़रीदने के बाद दो लाख रुपए महीने का एक सी.ई.ओ. नियुक्त किया। यू.पी. के किसी अख़बार में तब इतने पैसे वाला मैनेजर एक नई और बड़ी घटना थी। आज़ाद भारत की यूनियन इस फ़ैसले पर भौंचक रह गई। कि क्या इतना पैसा अख़बार के पास है कि इतने मंहगे सी.ई.ओ. का बोझ उठा सके? ऐसे तो कंपनी दो दिन में डूब जाएगी और दोनों अख़बार बंद हो जाएंगे। पर बाद में मैनेजमेंट ने साफ़ किया कि इस सी.ई.ओ. को वेतन अख़बार वाली कंपनी नहीं देगी। उस व्यावसायिक घराने की मूल कंपनी देगी। तो मामला शांत हुआ।
हारमोनियम के हज़ार टुकड़े पूरा उपन्यास पढ़ने के लिए 

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