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लव जिहाद से कैसे सुरक्षित रहेंगी हिन्दू बेटियां

रंजना सिंह

by रंजना सिंह
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या तो हम धार्मिक,सांस्कारिक और चारित्रिक रूप से अपनी बच्चियों को सुदृढ सशक्त करें ताकि वह इल्ला मियों के विद्रूप सत्य और षड्यंत्र को समझ सकें या फिर यदि आपको लग रहा है आप इसमें अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पा रहे हैं तो 16-17 के वय तक पहुँचते उसका विवाह कर उसे असुरों से सुरक्षित करें।हिन्दू धर्म परम्परा में कन्या विवाह(किशोरावस्था में) की परम्परा यूँ ही नहीं थी।क्योंकि भोगधर्मी असुरों का प्रकोप तब भी था जब संसारभर में सनातन का विस्तार था।
एक तरफ तो हम 28-30 तक बच्चियों को पहुँचने देते हैं,ताकि आर्थिक रूप से वह आत्मनिर्भर(स्वच्छन्द कहना अधिक उपयुक्त होगा) हो और उसे जीवन में अर्थ हेतु किसी का मुँह न देखना पड़े।किन्तु इसमें जीवन का जो अर्थ खो जाता है,उसे देख पाते हैं क्या? जो शारीरिक आवश्यकताएँ 17-18 तक पहुँचते उफान पर होती हैं,उसको लेकर उनसे आधी उम्र(30-32) तक कौमार्य की अपेक्षा,, उनपर ज्यादती नहीं है??
ऊपर से भारतीय कानून से लेकर तथाकथित प्रगतिशील समाज तक,पग पग उसे समझा रहा होता है कि स्वच्छन्द शारीरिक भोग ही जीवन की उपलब्धि और सार्थकता है,यह न किया तो आप पिछड़े/बैकवर्ड/गंवार/फिसड्डी/अप्रगतिशील/अप्रैक्टिकल हैं…..तो ऐसे में क्या करें बच्चियाँ?क्या हम सेकुलड़ अभिभावकों ने अनजाने में अपने बच्चों को एक्सट्रा सेकुलड़ बनने की जमीन तैयार करके नहीं दे दी है जो सीधे टोपी या क्रॉस तक व्यक्ति को पहुँचाता है,धर्म पन्थ को एक समझाने की भूल करवाता है?
याद रखें,,सबकुछ आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं होती।परिवार के बीच रहने वाली साधारण पढ़ी लिखी लड़कियाँ आज उतनी शिकार नहीं हो रही हैं जितनी ये आत्मनिर्भर उच्चशिक्षित लड़कियाँ।एक तरह से डिग्री और बैंक बैलेंस के साथ असुरों के बीच हमारी बच्चियाँ पूरी तरह अकेली हैं,,जबकि एक लवजे हादी के पीछे उनका पूरा सिस्टम, जन्नत के दरवाजे तक गलीचा बिछाए,वहाँ रिजर्व सीट की व्यवस्था किये पवित्र पुस्तिका है।उनके लिए यह वीरोचित कार्य मूल धर्म है।साम दाम दण्ड भेद नीति की पूरी ट्रेनिंग उन्हें प्राप्त है।कैसे उनका सामना करेगी एक अकेली बच्ची या हम जैसे परिवार समाज से कटे अभिभावक? पहले जब ग्रामीण समाज एकजुट होता था तो अव्वल तो किसी की इतनी हिम्मत नही पड़ती थी और जो कोई ऐसा करता भी था तो समाज द्वारा इतनी कठोर सजा लड़की लड़के के अभिभावक को भोगना पड़ता था कि बाकियों के हिम्मत भी पस्त हो जाते थे।
दुर्भाग्य से उनका समाज तो आज भी एकजुट सशक्त वैसा ही है,पर हिन्दुओं ने यह खो दिया है।हिंसकों के मध्य आहार रूप में वह निराधार है।न्यायिक व्यवस्था भी हिंसकों के प्रति ही नरमदिल रखती है।ऐसे में क्या कीजियेगा?? जन्म दी हुई अपनी संतान को 36 टुकड़ों में कटने के लिए छोड़ दीजियेगा??हम जिस छोड़ पर खड़े हैं, यदि सम्हलने के लिए कदम पीछे खींचने शुरू किए,,तो भी अगली एक पीढ़ी तो खाई में गिरेगी ही।हाँ, हमारे सम्हाल और पिछली पीढ़ी की दुर्गति देख संभवतः तीसरी पीढ़ी सम्हले।लेकिन तबतक देर नहीं हो जाएगी।कल्पनामात्र से ही कँपकँपी छूट जाती है कि पोसी पाली हुई मेरी बच्ची को कोई टुकड़े में काट देगा या काला लबादा ओढ़ाकर उससे दर्जनभर बच्चे जनवायेगा, उसके जीवन में नारकीय अग्नि से अधिक और कुछ नहीं देगा।
क्रोध में आकर उससे मैं नाता रिश्ता तोड़ भी लूँ, लेकिन उसका दुःख क्या मुझे जीतेजी क्षण क्षण मारता नहीं रहेगा?अपने और उसके जन्म को प्रतिपल मैं कोसती नहीं रहूँगी?
दो तीन पीढ़ी सेकुलड़ रहकर दुष्परिणाम हमनें देख लिया है।आगे भी ऐसे ही रहे तो बड़े बड़े नरक सिरजेंगे।तो अब समय नहीं आ गया कि सम्हलें सुधरें और अपना अस्तित्व बचाएँ,अपनी बच्चियों को सुरक्षित करें?

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