भरत और श्रीराम की बातचीत चल ही रही थी कि अचानक महर्षि जाबालि ने श्रीराम से कहा, “रघुनंदन! आप बुद्धिमान और तपस्वी हैं, अतः आपको अज्ञानियों के समान ऐसी निरर्थक बातें नहीं करनी चाहिए।”
“संसार में कौन किसका है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल समझना चाहिए क्योंकि संसार में कोई किसी का कुछ भी नहीं है।”
“जिस प्रकार यात्रा में मनुष्य किसी धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है, उसी प्रकार पिता, माता, घर और धन भी अस्थायी आवास मात्र हैं। मनुष्य को इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए।”
“राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं। पिता केवल जीव के जन्म का माध्यम होता है। राजा दशरथ को जहां जाना था, वहां वे चले गए। मृत्यु तो स्वाभाविक है, अतः आपको उनकी मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए।”
“श्रीराम! जो कुछ है, वह केवल इसी लोक में है। यह श्राद्ध आदि करना भी अनुचित है। यदि इस प्रकार अन्न एक व्यक्ति के खाने पर दूसरे के शरीर में जा सकता है, तो फिर परदेश में जाने वालों का भी श्राद्ध ही कर देना चाहिए, ताकि यहीं से भोजन उन तक पहुंच जाए।”
“‘दान करो, यज्ञ करो, पूजन करो, तपस्या करो’ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने केवल दूसरों को अधिक से अधिक दान में प्रवृत्त करने के लिए ही बनाए हैं। अतः आप इन सब बातों का पालन मत कीजिए, बल्कि भरत की बात मानकर अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए।”
यह सब सुनकर श्रीराम ने कहा, “विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से यह सब कहा है, किंतु ये बातें वास्तव में करने योग्य नहीं हैं। जो व्यक्ति धर्म अथवा वेदों की मर्यादा को त्याग देता है, उसके आचार विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं और वह पाप में प्रवृत्त हो जाता है।”
“आचरण से ही पता चलता है कि कौन मनुष्य श्रेष्ठ है और कौन निकृष्ट है। आपने जो बातें बताई हैं, उन्हें अपनाने वाला कोई मनुष्य यदि श्रेष्ठ लगता भी हो, तो भी वास्तव में वह अनार्य ही होगा। बाहर से पवित्र दिखने पर भी मन से वह अपवित्र ही होगा।”
“वास्तव में आप इस उपदेश के द्वारा अधर्म को धर्म का चोला पहना रहे हैं। यदि मैं इसे मानकर स्वेच्छाचारी बन जाऊं, तो कौन समझदार मनुष्य मेरा आदर करेगा?”
“राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा भी वैसा ही करने लगती है। सत्य ही धर्म का मूल है। मैं सत्य की अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर अधर्म में लिप्त हो जाऊं, तो सारी प्रजा भी वैसा ही करने लगेगी और यह समस्त संसार ही स्वेच्छाचारी हो जाएगा।”
“आपकी बुद्धि विषम (गलत) मार्ग पर आश्रित है। आप वेद विरुद्ध बातें कर रहे हैं। आप जैसे घोर नास्तिक एवं पाखंडी मनुष्य को मेरे पिताजी ने अपना याजक बना लिया, इस बात की मैं घोर निन्दा करता हूं। आप जो बता रहे हैं, वास्तव में वह अधर्म है। केवल नीच, क्रूर, लोभी और स्वेच्छाचारी मनुष्य उसका पालन करते हैं। मैं अपने क्षात्रधर्म का ही पालन करूंगा।”
श्रीराम को इस प्रकार रुष्ट देखकर महर्षि वसिष्ठ बोले, “रघुनंदन! महर्षि जाबालि नास्तिक नहीं हैं। उन्होंने तुम्हें मनाकर अयोध्या लौटाने की इच्छा से ही वैसी बातें कहीं थीं।”
“वत्स! इस संसार में मनुष्य के तीन गुरु होते हैं – आचार्य, पिता और माता। मैं तुम्हारे पिता का और तुम्हारा भी आचार्य हूं। इसलिए मेरी आज्ञा का पालन करने से तुम्हारा मार्ग भ्रष्ट नहीं होगा। तुम्हें अपनी धर्मपरायणा बूढ़ी मां की बात तो बिल्कुल भी नहीं टालनी चाहिए। अतः तुम राज्य ग्रहण करो और अयोध्या लौट चलो।”
लेकिन श्रीराम ने उनकी बात भी नहीं मानी। उन्होंने कहा, “मेरे पिताजी मुझे जो आज्ञा देकर गए हैं, वह मिथ्या नहीं होगी। मैं चौदह वर्षों तक वन में ही रहूंगा।”
यह सुनकर भरत का मन बहुत उदास हो गया। उन्होंने सुमंत्र से कहकर वहां एक कुश की चटाई बिछवाई और श्रीराम के सामने ही जमीन पर बैठ गए। उन्होंने कहा कि “जब तक श्रीराम नहीं मानेंगे, तब तक मैं यहां से नहीं हटूंगा।”
सभी लोगों ने भी भरत को बहुत समझाया कि ‘श्रीराम अपने पिता की आज्ञा का पालन कर रहे हैं, इसलिए अब उन्हें अयोध्या लौटा पाना असंभव है और तुम भी अपना आग्रह छोड़ दो।’
तब भरत कहने लगे कि “ठीक है! फिर मैं इनके बदले वन में रहूंगा और पिता की प्रतिज्ञा को पूरा करूंगा।”
तब श्रीराम ने फिर उन्हें समझाया कि ‘पिताजी ने तुम्हें राजा बनाने और मुझे वन में भेजने का वचन कैकेयी को दिया था। अतः उनकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए ये दोनों बातें आवश्यक हैं कि वन में मैं ही रहूं और तुम ही राजा बनो।”
इतना समझाने पर भी भरत नहीं मान रहे थे किंतु अंततः उन्हें श्रीराम की आज्ञा के आगे सिर झुकाना पड़ा।
तब उन्होंने श्रीराम से कहा कि “आप एक बार इन चरण पादुकाओं पर अपने चरण रख दीजिए। अब मैं इन्हीं को राज्य का स्वामी मानूंगा और आपका सेवक बनकर राजकाज करूंगा। मैं स्वयं भी अब चौदह वर्षों तक जटा व चीर धारण करके रहूंगा और फल मूल का ही सेवन करूंगा। अब मैं अगले चौदह वर्ष आपकी प्रतीक्षा में ही काटूंगा, किंतु यदि चौदह वर्ष पूर्ण होते ही मुझे अगले दिन आपका दर्शन न हुआ, तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश करके अपने प्राण दे दूंगा।”
श्रीराम ने उनकी यह बात मान ली और भरत को गले से लगा लिया।
इसके बाद उन्होंने सब लोगों को प्रणाम करके उन्हें विदा किया और रोते हुए अपनी कुटिया में चले गए।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)