Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 69
वाली के मृत शरीर को देखकर तारा भीषण विलाप करने लगी। उसकी यह दशा देखकर सुग्रीव को भारी पछतावा हुआ। उसकी आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी और मन खिन्न हो गया।
तब श्रीराम के निकट जाकर सुग्रीव ने कहा, “नरेन्द्र! आपने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ही वाली-वध का कार्य संपन्न कर दिखाया, किन्तु अब मेरा जीवन निंदनीय हो गया है। वाली की मृत्यु से दुःखी होकर महारानी तारा, राजकुमार अंगद व सारे प्रजाजन भीषण विलाप कर रहे हैं। यह देखकर अब राज्य पाने की कामना मेरे मन से भी नष्ट हो गई है।”
“भाई ने मेरा बहुत तिरस्कार किया था, इसलिए क्रोध के कारण मैंने उसके वध की अनुमति दे दी, किन्तु अब मुझे बड़ा पश्चाताप हो रहा है। संभवतः अब यह जीवन भर बना रहेगा। भाई के वध से प्राप्त यह राज्य लेने से अच्छा है कि मैं आजीवन ऋष्यमूक पर्वत पर ही जैसे-तैसे जीवन-निर्वाह करता रहूँ।”
“श्रीराम! कोई कितना ही स्वार्थी क्यों न हो, किन्तु राज्य के सुख के लिए अपने भाई का वध कैसे कर सकता है! एक बार युद्ध के समय धर्मात्मा वाली ने मुझे वृक्ष के प्रहार से घायल कर दिया और मैं बड़ी देर तक कराहता रहा। तब उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए कहा था कि ‘जाओ, मेरे साथ फिर से युद्ध करने मत आना। मैं तुम्हारा वध नहीं करना चाहता।’”
“वाली ने कभी मेरी मृत्यु की कामना नहीं की क्योंकि इससे उनकी ख्याति में कलंक लगता। लेकिन मैं ऐसा निकृष्ट हूँ कि मैंने अपने क्रोध और स्वार्थ के कारण अपने ही भाई का वध करवा दिया। यह शोक अब मुझे व्याकुल कर रहा है। अतः अब मैं भी अपने भाई के साथ ही अग्नि में प्रवेश करके प्राण दे दूँगा। मेरी मृत्यु हो जाने पर भी ये वानर आपका सारा कार्य सिद्ध करेंगे। मैं कुलघाती हूँ, हत्यारा हूँ, अपराधी हूँ, अतः आप मुझे प्राण त्यागने की अनुमति दीजिए क्योंकि मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ।”
सुग्रीव की ये बातें सुनकर श्रीराम भी शोक में डूब गए और उनके नेत्रों से भी आँसू बहने लगे। दो घड़ी तक वे इसी प्रकार शोकाकुल रहे। फिर उन्होंने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, तो उन्हें शोकमग्ना तारा दिखाई दी, जो अपने मृत के पति के पास बैठकर विलाप कर रही थी। तब श्रीराम उसकी ओर बढ़े।
श्रीराम को आता देखकर वाली के मंत्रियों ने तारा को वहाँ से उठाया। ऐसा करने पर वह बार-बार स्वयं को उनसे छुड़ाने लगी और छटपटाने लगी। तभी उसने श्रीराम को देखा। उनके पास जाकर वह बोली, ‘श्रीराम! जिस बाण से आपने मेरे पति का वध किया, उसी बाण से मुझे भी मार डालिए ताकि मैं भी मरकर अपने पति के पास चली जाऊँ। वीर वाली मेरे बिना कहीं भी सुखी नहीं रह सकेंगे। जब स्वर्गलोक में पहुँचने पर उन्हें मैं नहीं दिखाई दूँगी, तो उनका मन वहाँ कदापि नहीं लगेगा। आप तो स्वयं ही जानते हैं कि पत्नी के विरह का दुःख कैसा भीषण होता है। अतः आप मेरा भी वध कर दीजिए, ताकि वाली को वह दुःख न सहना पड़े।”
यह सुनकर श्रीराम ने उसे सांत्वना देते हुए समझाया, “वीरपत्नी! तुम मृत्यु जैसे विपरीत विचार को त्याग दो क्योंकि विधाता ने ही इस संपूर्ण जगत की सृष्टि की है। जन्म एवं मृत्यु का निर्णय भी वही करता है। तीनों लोकों में कोई भी प्राणी विधाता के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। यह भी विधाता का ही विधान है कि तुम्हें पुनः सुख व आनंद प्राप्त होगा तथा तुम्हारा पुत्र युवराज बनेगा। वीरों की पत्नियाँ इस प्रकार विलाप नहीं करती हैं, अतः तुम भी अब शोक न करो।”
श्रीराम के सांत्वनापरक वचनों को सुनकर तारा का मन शांत हो गया और उसने रोना बंद कर दिया।
इसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव, अंगद आदि को भी सांत्वना देते हुए समझाया, “इस प्रकार शोक-संताप करने से मृतक की कोई भलाई नहीं होती। इस संसार में काल ही सबका संचालन करता है। उसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। अतः अब तुम लोगों को भी आँसू पोंछकर लोकाचार का पालन करना चाहिए।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने नम्रतापूर्वक सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! अब तुम अंगद आदि के साथ मिलकर वाली का दाह-संस्कार करो। अपने सेवकों को आज्ञा दो कि वे प्रचुर मात्रा में सूखी लकड़ियाँ व दिव्य चंदन ले आएँ। अंगद को धैर्य बँधाओ तथा पुष्पमाला, विभिन्न प्रकार के वस्त्र, घी, तेल, सुगन्धित वस्तुएँ आदि लाने को कहो। शीघ्र ही एक पालकी भी बुलवाओ। जो बलवान और समर्थ वानर हैं, वे उसी पालकी में वाली को यहाँ से श्मशान भूमि में ले चलेंगे।”
यह सुनकर तुरंत ही सारी व्यवस्था की गई।
वह दिव्य पालकी रथ के समान बनी हुई थी। उसके बीच में राजा के बैठने योग्य उत्तम आसन था। उसे सजाने के लिए शिल्पियों ने कृत्रिम पक्षी और वृक्ष बनाए थे। उसमें पर्वतों, गुफाओं, वनों, पैदल सिपाहियों आदि के चित्र भी बने हुए थे। उस पालकी में अनेक खिड़कियाँ थीं, जिनमें जालियाँ लगी हुई थीं। वह सुन्दर पालकी किसी विमान के समान दिखाई देती थी। उसे चारों ओर से पुष्पों तथा लाल चंदन से सजाया गया था।
अंगद व अन्य वानरों के साथ सुग्रीव ने वाली के शव को उस पालकी में रखा। अनेक प्रकार के अलंकारों, फूलों और वस्त्रों से शव को सजाया गया। फिर सुग्रीव ने आज्ञा दी, “मेरे बड़े भाई का अंतिम संस्कार शास्त्रानुकूल विधि से संपन्न किया जाए। बहुत-से वानर पालकी के आगे-आगे अनेक रत्नों को लुटाते हुए चलें। जिस प्रकार राजाओं के अंतिम संस्कार उनकी समृद्धि के अनुसार किए जाते हैं, उसी प्रकार बहुत-सा धन लगाकर सब वानर महाराज वाली की अंत्येष्टि करें।”
तारा तथा वाली की अन्य सभी पत्नियाँ भी वाली को पुकारती हुईं विलाप करने लगीं और पालकी के पीछे-पीछे चलने लगीं।
तुंगभद्रा नदी के एकांत तट पर वानरों ने एक चिता तैयार की। उसके पास पहुँचकर शव को पालकी से उतारा गया और सब शोकमग्न वानर निकट ही बैठ गए। तब तारा ने पुनः अपने पति के शव को देखकर उसका मस्तक अपनी गोद में ले लिया और अत्यंत दुःखी होकर वह विलाप करने लगी। अन्य स्त्रियों ने समझा-बुझाकर उसे वहाँ से उठाया।
इसके बाद सुग्रीव की सहायता से अंगद ने अपने पिता के शव को चिता पर रखा। फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार चिता को अग्नि देकर उसने चिता की प्रदक्षिणा की। तब पिता की मृत्यु का विचार करके पुनः अंगद का मन शोक से व्याकुल हो उठा। इस प्रकार दाह-संस्कार करने के बाद सुग्रीव सहित सभी वानरों ने तुङ्गभद्रा के जल से वाली को जलांजलि दी। श्रीराम ने ये सभी कार्य पूर्ण करवाए।
यह सब कार्य पूर्ण होने के बाद भीगे वस्त्रों वाले शोक-संतप्त सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर सभी मुख्य वानर श्रीराम के पास आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब हनुमान जी ने कहा, “श्रीराम! आपकी कृपा से सुग्रीव को यह विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ है। अब यदि आप आज्ञा दें, तो इनका राज्याभिषेक किया जाए। उसके उपरान्त सुग्रीव भी रत्नों व मालाओं के द्वारा आपकी विशेष पूजा करेंगे। अतः आप किष्किन्धा नगरी में पधारने की कृपा करें और सुग्रीव का राज्याभिषेक करके सभी वानरों का हर्ष बढ़ाएँ।”
यह सुनकर श्रीराम ने उत्तर दिया, “वत्स हनुमान! मैं पिता की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, अतः चौदह वर्ष पूर्ण होने तक मैं किसी ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करूँगा। तुम सब श्रेष्ठ वानर सुग्रीव को साथ लेकर किष्किन्धा में प्रवेश करो और वहाँ शीघ्र ही विधिपूर्वक इनका राज्याभिषेक संपन्न करो।”
इसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “मित्र! तुम तो लौकिक और शास्त्रीय सभी व्यवहार जानते ही हो। कुमार अंगद तुम्हारे बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र हैं और बड़े पराक्रमी भी हैं। इनका हृदय भी उदार है। वे युवराज पद के सर्वथा योग्य हैं। अतः इनका भी तुम युवराजपद पर अभिषेक करो।”
“अब वर्षा-काल के चार मास आरंभ हो रहे हैं, जिनमें से पहला श्रावण मास अब आ गया है। युद्ध के लिए निकलने का यह उपयुक्त समय नहीं है। अतः तुम अपनी सुन्दर नगरी में जाओ और मैं लक्ष्मण के साथ इस पर्वत की गुफा में ही निवास करूँगा। कार्तिक मास आने पर तुम रावण-वध के लिए निकलने की तैयारी करना।”
श्रीराम की आज्ञा पाकर सुग्रीव आदि सभी वानर किष्किन्धापुरी में चले गए। नगर में प्रवेश करने पर सुग्रीव को देखकर प्रजाजनों ने धरती पर माथा टेककर सम्मानपूर्वक उन्हें प्रणाम किया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

Related Articles

Leave a Comment