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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 102

सुमंत विद्वांस

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गधों से जुते हुए रथ पर बैठकर धूम्राक्ष जब युद्ध के लिए बाहर निकला, तो अनेक अपशकुन दिखाई दिए। एक महाभयानक गीध उसके रथ पर आकर गिरा। बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी और पृथ्वी डोलने लगी। हवा उल्टी दिशा में बहने लगी। संपूर्ण दिशाओं में अन्धकार फैल गया और वज्रपात के समान गड़गड़ाहट सुनाई पड़ने लगी। यह सब देखकर धूम्राक्ष व्यथित हो गया और उसके साथ चल रहे सब राक्षस भी भयभीत हो उठे। इस प्रकार आगे बढ़ते हुए उसने नगर से बाहर पहुँचने पर प्रलयकारी समुद्र के समान फैली हुई विशाल वानर-सेना को देखा।
धूम्राक्ष को देखते ही सारे वानर युद्ध के उत्साह में सिंहनाद करने लगे। उन वानरों व राक्षसों में भीषण युद्ध छिड़ गया। बड़े-बड़े वृक्षों, शूलों तथा मुद्गरों से वे एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे। यह घनघोर युद्ध बहुत देर तक चलता रहा, पर अंततः वानरों ने अपनी लातों, मुक्कों, दाँतों और वृक्षों के प्रहार से राक्षसों की सेना का कचूमर निकाल दिया।
यह देखकर धूम्राक्ष ने आगे बढ़कर वानरों को मारना आरंभ कर दिया। उसके भालों, मुद्गरों, परिघों, भिन्दिपालों और पट्टिशों की मार से अनेक वानर घायल हो गए और बहुत-से अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। कई वानरों को त्रिशूल से विदीर्ण करके धूम्राक्ष ने उनकी आँतें बाहर निकाल दीं।
अपनी सेना को इस प्रकार पीड़ित देखकर हनुमान जी अत्यंत क्रोधित हो गए और एक विशाल चट्टान हाथ में लेकर उसके सामने आ खड़े हुए। उस समय क्रोध के कारण उनकी आँखें दुगुनी लाल दिखाई दे रही थीं। क्रोधित हनुमान जी ने वह शिला धूम्राक्ष के रथ की ओर दे मारी। उस शिला को इस प्रकार अपनी ओर आता देख धूम्राक्ष ने हड़बड़ाकर गदा उठाई और वह रथ से कूदकर पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उसके रथ के पहियों, गधों, कूबर, ध्वज तथा रथ में धनुष-बाण आदि को चूर-चूर करती हुई वह शिला पृथ्वी पर गिर पड़ी।
फिर हनुमान जी वृक्षों की मार से राक्षसों का संहार करने लगे। उनके प्रहारों से अनेक राक्षसों के सिर फट गए और अन्य बहुत-से राक्षस वृक्षों से कुचलकर धरती पर जा गिरे। तब हनुमान जी ने एक और पर्वत-शिला उठाई और धूम्राक्ष पर धावा बोल दिया।
उन्हें अपनी ओर आता देख धूम्राक्ष ने काँटों भरी अपनी गदा से हनुमान जी के माथे पर प्रहार किया। हनुमान जी पर तो उस प्रहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु जब उन्होंने अपनी शिला से धूम्राक्ष पर प्रहार किया, तो उस भीषण प्रहार से उसके चीथड़े उड़ गए और उसके सारे अंग पृथ्वी पर इधर-उधर बिखर गए। उसकी यह गति देखकर सारे निशाचर घबराकर लंका की ओर भाग गए।
धूम्राक्ष के मारे जाने का समाचार सुनकर रावण का क्रोध और बढ़ गया। तब उसने कूर निशाचर वज्रदंष्ट्र से कहा, “वीर वज्रदंष्ट्र! तुम अपनी राक्षस-सेना के साथ जाओ और राम व सुग्रीव सहित समस्त वानरों को मार डालो।”
आज्ञा सुनकर वह मायावी राक्षस हाथी, घोड़े, गधे, ऊँट आदि पर सवार राक्षसों की सेना के साथ तुरंत निकल पड़ा। मुकुट, कवच और बाजूबंद धारण करके, हाथों में धनुष लेकर वह ध्वजा-पताकाओं से सजे अपने सोने के रथ के सवार होकर युद्ध-भूमि की ओर बढ़ा। उसके साथ चल रहे राक्षसों के पास ऋष्टि, तोमर, मूसल, भिन्दिपाल, धनुष, शक्ति, पट्टिश, खड्ग, चक्र, गदा, फरसे आदि अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र थे।
वज्रदंष्ट्र के निकलने पर भी फिर एक बार अनेक अपशुकन दिखाई पड़े। स्वच्छ आकाश से सहसा उल्कापात होने लगा। गीदड़ बड़े भयानक स्वर में कोलाहल करने लगे। युद्ध के लिए आगे बढ़ रहे राक्षस बुरी तरह लड़खड़ाकर गिरने लगे। ऐसे अशुभ लक्षणों को देखकर भी वज्रदंष्ट्र ने धैर्य नहीं छोड़ा और वह दक्षिण द्वार से युद्ध के लिए बाहर निकला, जहाँ अंगद तैनात था।
यहाँ भी वानरों और राक्षसों के बीच भीषण युद्ध हुआ, पर अंगद की शक्ति के कारण वानर-सेना के हाथों राक्षसों का भारी संहार होने लगा। अपनी सेना का ऐसा विनाश देखकर वज्रदंष्ट्र कुपित हो उठा। अपना भयंकर धनुष खींचकर उसने वानरों पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उसके अन्य राक्षस भी अपने-अपने शस्त्रों से वानरों पर आक्रमण करने लगे। तब वानरों ने भी बड़े-बड़े वृक्ष और शिलाएँ फेंककर राक्षसों को खून से नहला दिया। वानरों के भीषण प्रहार से घबराकर अनेक राक्षस सैनिक युद्ध छोड़कर भागने लगे।
अपनी सेना को इस प्रकार भयभीत होकर भागता हुआ देख वज्रदंष्ट्र की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। वह हाथ में धनुष लेकर आगे बढ़ा और वानर-सेना के भीतर घुसकर अपने बाणों के एक-एक प्रहार से अनेक वानरों को एक साथ घायल करने लगा। इससे भयभीत होकर वानर भी अंगद की ओर भागे।
तब अंगद और वज्रदंष्ट्र ने क्रोध में भरकर एक-दूसरे की ओर देखा और फिर उन दोनों में युद्ध छिड़ गया। अपने भीषण बाणों के हमले से वज्रदंष्ट्र ने अंगद को लहूलुहान कर दिया। फिर भी साहस न छोड़ते हुए अंगद ने एक बड़े वृक्ष से उस राक्षस पर प्रहार किया। वज्रदंष्ट्र ने अपने बाणों से उस वृक्ष को छलनी कर डाला। तब अंगद ने एक बड़ी शिला उठाकर उसके रथ की ओर फेंकी। उस शिला के प्रहार से वज्रदंष्ट्र का रथ चकनाचूर हो गया।
फिर अंगद ने तुरंत ही एक और वृक्ष उठाकर उस राक्षस के माथे पर दे मारा। उसकी चोट से वज्रदंष्ट्र मूर्च्छित हो गया और खून की उल्टियाँ करने लगा। दो घड़ी तक वह अचेत पड़ा रहा। फिर होश में आने पर उसने अंगद की छाती पर गदा से प्रहार कर दिया। इसके बाद उसने अपनी गदा फेंक दी और उन दोनों के बीच मुक्कों से ही युद्ध शुरू हो गया। इस प्रकार बहुत देर तक लड़ते-लड़ते दोनों ही योद्धा थक गए और रक्त वमन करने लगे।
फिर अंगद ने पुनः वज्रदंष्ट्र पर प्रहार के लिए एक बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया। उस निशाचर ने भी ऋषभ (बैल) के चमड़े से बनी ढाल और एक विशाल तलवार हाथों में ले ली। उसकी तलवार पर छोटी-छोटी घंटियों का जाल बना हुआ था और वह चमड़े की म्यान से सुशोभित थी।
उन दोनों के बीच इस प्रकार बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। अंततः अंगद ने भी तेज धार वाली अपनी चमकीली तलवार निकाली और वज्रदंष्ट्र की गरदन काट डाली। उसका शरीर दो टुकड़ों में कटकर धराशायी हो गया। उसे मरता देख सब राक्षस भयभीत होकर लंका की ओर भाग गए।
वज्रदंष्ट्र के मारे जाने का समाचार सुनकर रावण ने अपने सेनापति प्रहस्त से कहा, “अकम्पन संपूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता है, उसे युद्ध भी बड़ा प्रिय है और वह मेरा हितैषी भी है। उसे सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में से एक माना जाता है। वह अवश्य ही वानरों का संहार कर डालेगा और राम-लक्ष्मण व सुग्रीव को भी परास्त कर देगा। अतः युद्ध के लिए अब उसे भेजा जाए।”
यह आदेश मिलते ही सोने के विशाल रथ पर आरूढ़ होकर अकम्पन अपनी सेना के साथ नगर से बाहर निकला। महासमर में देवता भी उसे कम्पित नहीं कर सकते थे (डरा नहीं सकते थे), इसी कारण वह अकम्पन कहलाता था।
आगे बढ़ते ही अकम्पन के रथ में जुते घोड़ों का मन भय से कम्पित होने लगा। अकम्पन की भी बायीं आँख फड़कने लगी, चेहरा फीका पड़ गया और आवाज काँपने लगी। अचानक हवा रूखी हो गई और पशु-पक्षी भी बड़ी क्रूर व भयावह वाणी में चिल्लाने लगे। लेकिन इन सब अपशकुनों पर ध्यान न देकर अकम्पन रणभूमि की ओर बढ़ता रहा।
उसे देखकर वानर-सेना भयभीत हो गई। फिर एक बार राक्षसों और वानरों के बीच भीषण संग्राम छिड़ गया। उनके युद्ध से ऐसी भयंकर धूल उड़ने लगी कि एक-दूसरे को पहचान पाना कठिन हो गया। इस कारण कई बार राक्षस ही राक्षसों को तथा वानर ही वानरों को मारने लगे। हवा में चारों ओर उनके रक्त के छीटें उड़ने लगे। उस रक्त से सिंचकर धूल नीचे बैठ गई और पूरी युद्धभूमि में रक्त का कीचड़ हो गया। तब कुमुद, नल, मैन्द और द्विविद आदि वीर वानरों ने अपना भयंकर पराक्रम प्रकट किया। अपने वृक्षों की मार से वे राक्षसों की सेना का भारी संहार करने लगे।
उनके उस पराक्रम को देखकर अकम्पन क्रोध से जल उठा। अपने धनुष को हिलाते हुए उसने सारथी से कहा, “सारथे! ये बलवान वानर युद्ध में बहुत-से राक्षसों का वध कर रहे हैं। अतः मेरा रथ शीघ्र ही वहीं ले चलो। मैं इन सबका वध कर डालूँगा।”
ऐसा कहकर अकम्पन ने वानरों पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। इससे सारे वानर भयभीत होकर भागने लगे। अकम्पन के बाण अनेकों वानरों की पीठ पर लगे और वे गिर-गिरकर मरने लगे। अपने सैनिकों की यह दशा देखकर महाबली हनुमान जी आगे बढ़े। उन्हें देखते ही सब वानरों को पुनः प्रेरणा मिली और भागते हुए वानर भी अब रुककर युद्ध की ओर लौट पड़े।
अब अकम्पन ने हनुमान जी को लक्ष्य बनाकर उन बाणों से आक्रमण कर दिया। उन बाणों पर ध्यान दिए बिना हनुमान जी ने धरती को कँपा देने वाला बड़ा भयंकर अट्टहास किया और अकम्पन का वध करने के विचार से वे उसकी ओर दौड़ गए। बड़े वेग से उन्होंने एक पर्वत को उखाड़ लिया और एक ही हाथ से उसे घुमाते हुए बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उस समय उनका रूप प्रज्वलित अग्नि के समान भयंकर हो गया था।
हनुमान जी ने उस शिलाखंड को बड़े वेग से घुमाते हुए अकम्पन की ओर फेंका, किन्तु उस निशाचर ने अपने अर्धचन्द्राकार विशाल बाणों से उस शिला को बहुत दूर से ही चकनाचूर कर दिया।
यह देखकर हनुमान जी के क्रोध की कोई सीमा न रही। तब उन्होंने अश्वकर्ण का एक वृक्ष उखाड़ लिया और युद्धभूमि में उसे चारों ओर घुमाने लगे। अपने भीषण प्रहारों से उन्होंने अनेकों हाथियों, रथियों और पैदल सैनिकों का संहार कर डाला। उनके इस भयंकर रूप को देखकर राक्षस अपने प्राण बचाते हुए भागने लगे।
यह देखकर अकम्पन ने हनुमान जी पर चौदह पैने बाण चला दिए। उसके उन नाराचों और शक्तियों से हनुमान जी का पूरा शरीर खून से रंग गया। तब भीषण क्रोध में भरकर उन्होंने दूसरा एक वृक्ष उठा लिया और अकम्पन के सिर पर ऐसा भीषण प्रहार किया कि उसकी चोट से एक ही क्षण में वह निशाचर धरती पर गिरकर मर गया। उसे इस प्रकार मरा हुआ देखकर सब बचे-खुचे राक्षस अपने अस्त्र-शस्त्र वहीं फेंककर भाग खड़े हुए।
हनुमान जी के इस अद्भुत पराक्रम को देखकर समस्त वानरों ने सहित श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण ने भी उनका अभिनन्दन और प्रशंसा की।
अकम्पन के वध का समाचार सुनकर रावण चिंतित हो उठा। उसके मुख पर दीनता छा गई। दो घड़ी तक वह अकेला ही कुछ सोचता रहा। फिर अपने मंत्रियों से विचार-विमर्श करके वह स्वयं लंका के सब मोर्चों का निरीक्षण करने पहुँचा।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…

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