Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 101
वानर-सेना में ऐसी भगदड़ देखकर सुग्रीव ने पूछा, “वानरों! किस कारण हमारी सेना इस प्रकार सहसा व्यथित हो उठी है?”
तब अंगद ने उत्तर दिया, “क्या आप श्रीराम और लक्ष्मण की दशा नहीं देख रहे हैं? सब वानर उसी बात से चिंतित होकर घबरा गए हैं।”
इस पर सुग्रीव ने अंगद से कहा, “बेटा! मैं नहीं मानता कि सेना में अकारण ही भगदड़ मच गई है। ये वानर अवश्य ही किसी और बात से भयभीत हैं। अपने-अपने शस्त्र फेंककर उदास मुँह से वे चारों दिशाओं में भाग रहे हैं। जो नीचे गिर जाता है, उसे लाँघकर वे भाग जाते हैं; भय के कारण उठाते तक नहीं हैं। अतः अवश्य ही कोई और बात है।”
उतने में ही गदा हाथ में लेकर विभीषण वहाँ पहुँचा। उसे देखकर सुग्रीव ने जाम्बवान से कहा, “अब मैं समझ गया कि वानरों ने विभीषण को ही रावण का पुत्र मेघनाद समझ लिया है। इसी कारण वे भयभीत होकर भाग रहे हैं। तुम शीघ्र जाकर उन्हें समझाओ कि ये विभीषण हैं, इन्द्रजीत नहीं।”
तब जाम्बवान ने तुरंत जाकर भागते हुए उन वानरों को पुकारा और उन्हें समझा-बुझाकर वापस बुलाया।
इधर श्रीराम और लक्ष्मण के बाणों से इस प्रकार घायल देखकर विभीषण को बड़ी व्यथा हुई और वह भी शोक से विलाप करने लगा। उसने कहा, “हाय! मायावी राक्षसों ने इन दोनों भाइयों को इस अवस्था में पहुँचा दिया है। इनके शरीर बाणों से छलनी हो गए हैं और दोनों भाई खून से लथपथ पड़े हैं। इनके शरीर में गड़े बाणों के कारण ये दोनों राजकुमार काँटों से भरे हुए साही के समान दिखाई दे रहे हैं। जिनके बल-पराक्रम के सहारे मैं लंका का राज्य पाने की अभिलाषा कर रहा था, वे दोनों इस प्रकार देह त्यागने वाले हैं। आज मैं जीते जी मर गया। राज्य पाने का मेरा मनोरथ विफल हो गया। सीता को न लौटाने की रावण की प्रतिज्ञा पूरी हो गई। उसके पुत्र ने उसका मनोरथ सफल कर दिया।”
विभीषण को इस प्रकार विलाप करता हुआ देखकर सुग्रीव ने उसे सांत्वना दी। फिर उसने अपने ससुर सुषेण से कहा, “आप इन दोनों भाइयों को साथ लेकर शूर वानरों के साथ किष्किन्धा लौट जाइये। मैं रावण को पुत्रों व बन्धु-बान्धवों सहित मार डालूँगा और सीता को छुड़ाकर वापस ले आऊँगा।”
तब सुषेण ने उत्तर दिया, “पूर्वकाल में हमने देवासुर संग्राम को देखा था। जब दानवों के बाणों से देवता घायल, अचेत और प्राणशून्य हो जाते थे, तो मन्त्र-विद्या एवं दिव्य औषधियों के द्वारा बृहस्पति जी उन सबकी चिकित्सा करते थे। क्षीरसागर के तट पर चन्द्र एवं द्रोण नामक दो पर्वत हैं, जहाँ पहले समुद्र-मंथन किया गया था। उन पर्वतों पर मिलने वाली दो महा-औषधियों को सम्पाती व पनस आदि वानर जानते हैं। उनमें से एक का नाम संजीवकरणी तथा दूसरी का नाम विशल्यकरणी है। उन्हें लाने के लिए शीघ्र ही हनुमान को अथवा सम्पाती और पनस को भेजा जाए।”
इस प्रकार की बातें चल ही रही थीं कि अचानक बड़े जोर का तूफान उठा, काली घटाएँ घिर आईं और बिजली कड़कने लगी। उस तूफान के कारण बड़े-बड़े वृक्षों की डालियाँ समुद्र में गिने लगीं और उनसे सागर के जल में भी हलचल मच गई। सब जल-जन्तु घबराकर गहरे समुद्र में घुस गए। लंकावासी भी भय से थर्रा उठे।
दो घड़ी में ही समस्त वानरों ने अग्नि के समान तेजस्वी महाबली गरुड़ को वहाँ उपस्थित देखा। जिन नागों ने बाण के रूप में दोनों भाइयों को बाँध रखा था, वे विनतानन्दन गरुड़ को देखते ही भाग खड़े हुए। तब गरुड़ ने उन भाइयों को स्पर्श करके उनका अभिनन्दन किया। गरुड़ के स्पर्श से उन दोनों के सारे घाव भर गए और वे दोनों पूर्णतः स्वस्थ हो गए। तब श्रीराम ने प्रसन्न होकर गरुड़ को धन्यवाद दिया और उसका परिचय पूछा।
इस पर गरुड़ ने कहा, “श्रीराम! मैं आपका प्रिय मित्र विनतानन्दन गरुड़ हूँ। मैं बाहर विचरने वाला आपका प्राण हूँ। आप दोनों की सहायता के लिए ही मैं यहाँ आया हूँ क्योंकि असुर, दानव, देवता तथा गन्धर्व यदि इन्द्र को साथ लेकर भी यहाँ आते, तो भी वे आपको इस सर्पाकार बाण के बन्धन से छुड़ा नहीं सकते थे। इन्द्रजीत ने माया के बल से नागों के बाणों का बन्धन तैयार किया था। इन नागों के दाँत बड़े तीखे और उनका विष बड़ा भयंकर होता है। उस राक्षस की माया के प्रभाव से वे बाण बनकर आपके शरीर में लिपट गए थे। देवताओं से मैंने आपके नागपाश में बँधे होने का समाचार सुना, तो बड़ी उतावली के साथ मैं यहाँ आ पहुँचा।”
“शुद्ध स्वभाव वाले आप जैसे शूरवीरों का मन बड़ा सरल होता है, किन्तु समस्त राक्षस कपटी स्वभाव वाले होते हैं और वे संग्राम में भी छल-कपट से ही युद्ध करते हैं। राक्षस सदा कुटिल ही होते हैं। अतः आपको रणभूमि में कभी भी राक्षसों का विश्वास नहीं करना चाहिए। आपको सदा उनसे सतर्क ही रहना चाहिए।”
“श्रीराम! अब आप मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। मैंने आपको सखा क्यों कहा है, इसका कारण आप युद्ध में सफलता प्राप्त कर लेने पर स्वयं ही समझ जाएँगे। इस युद्ध में आप अपने बाणों से राक्षसों का ऐसा विनाश कर देंगे कि लंका में केवल बालक और बूढ़े ही शेष रह जाएँगे। अपने शत्रु रावण का संहार करके आप सीता को अवश्य प्राप्त कर लेंगे।”
ऐसा कहकर गरुड़ ने श्रीराम को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और वायु के समान तेज गति से वह वापस आकाश में लौट गया।
श्रीराम-लक्ष्मण को स्वस्थ देखकर वानरों का उत्साह भी लौट आया और वे डंके, शंख, मृदंग आदि बजाने लगे व युद्ध के लिए पुनः गर्जना करने लगे। वृक्षों एवं चट्टानों को हाथ में उठाकर फिर एक बार वे लंका के सभी दरवाजों पर युद्ध के लिए डट गए।
वानरों का यह सिंहनाद अपने मन्त्रियों के बीच बैठे रावण ने भी सुना। तब वह राक्षसों से बोला, “जिस प्रकार अत्यधिक हर्ष में ये सब वानर कोलाहल कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि इन्हें अत्यंत प्रसन्नतादायी समाचार मिला है। वे दोनों भाई तो तीखे बाणों में बँधे हुए हैं, फिर ये वानर किस बात से प्रसन्न हो रहे हैं? तुम लोग शीघ्र जाकर इस बात का पता लगाओ।”
यह आदेश सुनते ही कुछ राक्षस घबराए हुए भागे और परकोटे पर चढ़कर वानर-सेना की ओर देखने लगे। तब उन्हें पता चला कि श्रीराम और लक्ष्मण उस नागपाश से मुक्त होकर सकुशल हैं। इससे उन सबको बड़ा दुःख हुआ और भय से उनका हृदय काँप उठा। तुरंत रावण के पास जाकर उन्होंने इस बात की सूचना उसे दी।
यह सुनकर रावण भी चिन्ता व शोक में डूब गया और उसका मुखमण्डल भयाक्रांत हो गया। वह मन ही मन सोचने लगा कि जब इन्द्रजीत को वरदान में मिले भयंकर बाणों से भी ये दोनों शत्रु छूट गए हैं, तब तो शायद सारी राक्षस सेना भी इन्हें हरा नहीं पाएगी।
फिर उसने अत्यंत कुपित होकर धूम्राक्ष से कहा, “पराक्रमी वीर! तुम राक्षसों की बहुत बड़ी सेना लेकर राम का वध करने के लिए शीघ्र जाओ।”
यह सुनते ही धूम्राक्ष उसकी परिक्रमा करके युद्ध के लिए निकल पड़ा। बाहर निकलते ही उसने द्वार पर खड़े सेनापति को रावण की आज्ञा सुनाई। तुरंत ही सेनापति ने राक्षस-सैनिकों की एक बड़ी सेना तैयार करवा दी। वे सब राक्षस अपने अस्त्रों में घण्टे बाँधकर धूम्राक्ष को घेरकर खड़े हो गए। उन सबके हाथों में शूल, मुद्गर, गदा-पट्टिश, लोहदण्ड, मूसल, परिघ, भिन्दिपाल, भाले, पाश, फरसे, शक्ति और प्रास आदि अनेक अस्त्र थे। उन सबने कवच धारण किए हुए थे। कई राक्षस रथों पर, तो बहुत-से राक्षस गधों, घोड़ों और हाथियों पर सवार थे।
धूम्राक्ष के रथ में सोने के आभूषणों से विभूषित गधे जुते हुए थे, जिनके मुँह भेड़ियों और सिंहों जैसे दिखाई दे रहे थे। गधे की भाँति रेंकने वाला धूम्राक्ष उस दिव्य रथ पर सवार हुआ और पश्चिमी द्वार से युद्ध करने के लिए निकला। उस द्वार पर हनुमान जी तैनात थे।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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