Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 74
सुग्रीव को दृढ़ विश्वास था कि हनुमान जी अवश्य ही सीता का पता लगा लेंगे। इसलिए उन्हें अलग से बुलाकर उसने कहा, “हनुमान! केवल तुम में ही बल, बुद्धि, पराक्रम व नैतिक आचरण जैसे सभी गुण एक साथ विद्यमान हैं। असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित समस्त लोकों का तुम्हें ज्ञान है। पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारी गति को कोई रोक नहीं सकता है। इस भूमण्डल पर किसी से भी तुम्हारे तेज की तुलना नहीं हो सकती। अतः तुम अवश्य ही वह उपाय सोचो, जिससे सीता का पता चल सके।”
सुग्रीव की यह बात सुनकर श्रीराम भी समझ गए कि हनुमान जी के द्वारा ही यह कार्य पूर्ण होने की सबसे अधिक संभावना है। अतः थोड़ा विचार करने के बाद उन्होंने कहा, “वीरवर! तुम्हारे धैर्य एवं पराक्रम के बारे में सुग्रीव के विचार सुनकर मुझे यह आशा हो रही है कि तुम अवश्य ही सीता का पता लगा लोगे। अतः तुम मेरे नाम के अक्षरों वाली यह अँगूठी अपने साथ ले जाओ। इस चिह्न को देखकर सीता को विश्वास हो जाएगा कि तुम्हें मैंने ही भेजा है। तब वह निर्भय होकर तुमसे बात कर सकेगी।”
श्रीराम से वह अँगूठी लेकर हनुमान जी ने उसे अपने माथे से लगाया और फिर हाथ जोड़कर श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया। अन्य सब वानरों के समूह भी अलग-अलग दिशाओं में चले गए।
उन सबके जाने पर श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा, “मित्र! तुम समस्त भूमण्डल के सभी स्थानों का परिचय कैसे जानते हो?”
तब सुग्रीव ने विनम्रतापूर्वक कहा, “श्रीराम! वाली ने जब क्रोधित होकर मुझ पर आक्रमण कर दिया था, तो उससे अपने प्राण बचाने के लिए मैं पूरी पृथ्वी पर इधर-उधर भागता रहा। यह पृथ्वी मुझे गोल घेरे के समान दिखाई दी और वाली के भय से भागते हुए मैंने सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर डाली। उसी समय मैंने इन सारे पर्वतों, सरोवरों, नदियों तथा नगरों आदि को देखा था। जब वाली ने कहीं भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा, तो मुझे बड़ी चिंता हुई। उस समय परम-बुद्धिमान हनुमान जी ने मुझे स्मरण कराया कि केवल ऋष्यमूक पर्वत ही वह स्थान है, जहाँ मतङ्गमुनि के शाप के कारण वाली नहीं जा सकता। इसी कारण हम लोग ऋष्यमूक पर आकर रहने लगे।”
सुग्रीव के आदेश से सभी दिशाओं में भेजे गए वानर सीता की खोज में आगे बढ़ते रहे। श्रीराम और लक्ष्मण उसी प्रस्रवणगिरी पर ही रुके रहे और उन वानरों को लौटने के लिए जो एक मास की अवधि दी गई थी, उसके बीतने की प्रतीक्षा करने लगे।
धीरे-धीरे एक मास बीत गया। पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं की ओर भेजे गए सब वानर एक-एक कर किष्किन्धा लौट आए और उन्होंने सुग्रीव को निराशाजनक समाचार सुनाया कि उनमें से किसी को भी सीता का पता नहीं मिला। अब सबकी आशा इसी बात पर टिकी थी कि हनुमान जी ही सीता का पता लगाकर लौटेंगे क्योंकि वे उसी दक्षिण दिशा में गए हैं, जिस ओर सीता को लेकर रावण गया था।
उधर अंगद आदि वानरों के साथ हनुमान जी दक्षिण दिशा की ओर बढ़े। दक्षिण दिशा का आरंभ विंध्याचल से माना जाता है, इसलिए उन लोगों ने वहीं से खोज आरंभ की। अनेक गुफाओं, जंगलों, पर्वतों, नदियों, सरोवरों आदि में ढूँढते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कहीं भी उन्हें सीता दिखाई नहीं दी।
तब वे विंध्याचल के आस-पास की गुफाओं और वनों में भी खोजने लगे, किन्तु सीता का पता उन्हें फिर भी नहीं चला। इस प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते वे लोग महासागर के तट तक पहुँच गए। सुग्रीव ने जो एक मास की अवधि उन्हें दी थी, वह अब पूरी हो गई थी, किन्तु सीता का अभी भी कुछ पता नहीं चला था।
एक दिन वे सब वानर बैठकर चिन्ता करने लगे कि ‘शरद ऋतु तो बीत गई और शिशिर ऋतु आ गई है, किन्तु सुग्रीव का कार्य हमने पूरा नहीं किया। अतः अब आगे क्या किया जाए?’
तब युवराज अंगद ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा, “वानरों! महाराज सुग्रीव ने जो समय तय किया था, अब वह बीत गया है। उनका स्वभाव बड़ा कठोर है और हमने उनका कार्य भी पूर्ण नहीं किया। अब हम यदि असफलता का समाचार लेकर उनके सामने जाएँगे, तो वे अवश्य ही हमें प्राण-दण्ड देंगे। अतः उनके सामने जाने से अच्छा है कि हमें अब अपने परिवार, धन-संपत्ति आदि का मोह छोड़कर यहीं उपवास करके प्राण त्याग देने चाहिए। सुग्रीव के हाथों मरने से अच्छा है कि हम स्वयं ही अपना जीवन समाप्त कर लें।”
“सुग्रीव का तो पहले ही मुझसे वैर है। मुझे युवराज भी उन्होंने नहीं बनाया था, अपितु श्रीराम की कृपा से ही मुझे यह पद मिला। सीता को न खोज पाने की इस विफलता को आधार बनाकर सुग्रीव अवश्य ही मुझे प्राण दंड दे देंगे। अतः सुग्रीव के सामने जाने से अच्छा है कि मैं स्वयं ही अपने प्राण त्यागकर यमलोक को चला जाऊँ।”
कुछ ही समय पहले सीता की खोज करते हुए वे वानर एक मायावी गुफा में भी पहुँच गए थे, जहाँ फल-फूल, जल और खाने-पीने की अन्य सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। उस गुफा में जाना बड़ा दुर्गम था और वे लोग बड़ी कठिनाई से वहाँ से बाहर निकल पाए थे।
अब समुद्र तट पर बैठे अंगद की चिंता को देखकर तार नामक वानर ने सुझाव दिया कि “हम सब लोग वापस उसी दुर्गम गुफा में चलें। वह गुफा माया से निर्मित है, अतः वहाँ न तो श्रीराम आ सकेंगे और न सुग्रीव का कोई भय रहेगा।”
सब वानरों ने उस बात के लिए सहमति दे दी। तब हनुमान जी को चिंता हुई कि ‘इस प्रकार तो अंगद ने सुग्रीव से विद्रोह ही कर दिया है और ये सब वानर यदि अंगद के पक्ष में हो गए, तो वे सुग्रीव को राज्य से भी वंचित कर सकते हैं क्योंकि युवा होने के कारण अंगद का बल और पराक्रम भी बहुत है’।
अतः बुद्धिमान हनुमान जी ने अंगद के पक्ष वाले वानरों में फूट डालने का विचार किया। सब वानरों को सुनाते हुए उन्होंने अंगद से कहा, “तारानन्दन! तुम अपने पिता के समान ही वीर हो और उनके समान ही वानरों के राज्य को संभालने में भी समर्थ हो। लेकिन मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि इनमें से कोई भी वानर सुग्रीव से विरोध करके तुम्हारी ओर नहीं आ सकता। जाम्बवान, नील, सुहोत्र और मेरे जैसे किसी वानर को साम, दान, दण्ड, भेद आदि किसी भी उपाय से सुग्रीव से अलग करना असंभव है। सुग्रीव तुमसे अधिक प्रबल हैं और यह संभव नहीं है कि तुम हम सबको डराकर भी सुग्रीव से अलग कर सको।”
“तुम्हें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि इस मायावी गुफा में वानर सुरक्षित रह सकेंगे। ऐसी गुफा को नष्ट करना लक्ष्मण के लिए बायें हाथ का खेल है। उनके पास ऐसे भयंकर नाराच हैं, जिनसे वे एक क्षण में ही पर्वतों को भी फोड़ सकते हैं। जैसे ही तुम इस गुफा में रहने जाओगे, ये सब वानर तुम्हें तुरंत ही त्याग देंगे क्योंकि इनका मन अपने पत्नी-बच्चों के पास लौटने के लिए व्याकुल है। तब तुम्हें सब लोगों से बिछड़कर गुफा में अकेले रहना पड़ेगा और लक्ष्मण के भय से तुम सदा पीड़ित रहोगे।”
“सुग्रीव धर्म के मार्ग पर चलते हैं। वे कभी तुम्हारा अहित नहीं करेंगे। वे सदा तुम्हारी माता का भी हित ही सोचते हैं और तुम्हारे अतिरिक्त उनका कोई पुत्र भी नहीं है। अतः तुम्हें भय त्यागकर उनके पास ही वापस चलना चाहिए।”
हनुमान जी की बातों का अंगद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने कहा, “जिस दुरात्मा सुग्रीव ने अपने बड़े भाई की रक्षा में नियुक्त होते हुए भी उसे गुफा में बंद कर दिया था, जिसने बड़े भाई के जीवित होते हुए ही उसकी पत्नी को ग्रहण कर लिया था, जिसने शपथ लेने के बाद भी श्रीराम के कार्य को भुला दिया था, उसे धर्मपरायण कैसे माना जाए? सुग्रीव तो क्रूर, धूर्त और निर्दयी है। वह किष्किन्धा लौटते ही मुझे प्राण दंड देगा अथवा सदा के लिए बन्दी बना लेगा। अतः यहीं प्राण त्याग देना मेरे लिए उचित है।”
ऐसा कहकर अंगद ने सब वरिष्ठ वानरों को प्रणाम किया और धरती पर कुश बिछाकर रोते-रोते वहीं बैठ गया। उसकी ऐसी दशा को देखकर अन्य वानर भी आँसू बहाने लगे और समुद्र तट पर कुश बिछाकर वे भी वहीं बैठ गए।
उस स्थान के पास ही एक पर्वत की कन्दरा में एक विशाल गिद्ध भी बैठा हुआ था। उन वानरों को वहाँ देखकर भोजन पाने के विचार से उसका हृदय हर्ष से खिल उठा।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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