बदायूँ पहुँचने के बाद बख़्तियार ख़िलजी को कुछ बातें भली भाँति समझ आ चुकी थी। देहली दरबार में अफ़ग़ान अमीरों और सरदारों का आधिपत्य अभी नहीं जमा था। खलक और पश्तो बोलने वाले इन अफ़ग़ानियों को देहली वाले गँवार समझते और सत्ता की मलाई बाँटने में कंजूसी करते। अपने ठंडे मुल्क को छोड़ इस गर्मी वाली जगह में आया बख़्तियार ख़िलजी अपनी अक्षम शारीरिक क्षमता को पहचानता था और ये भी जान चुका था- देहली , बदायूँ आदि में उसे टिकने की जगह नहीं मिलने वाली।
कुछ जद्दोजहद के बाद ख़िलजी अवध में तबादला पाने में सफल हुआ। अवध में अपनी क्रूरता के बल पर उसने बिहार- मिर्ज़ापुर इलाक़े में दो गाँव की जागीरदारी पाने में सफलता प्राप्त की। अफ़ग़ान से खिलजियो के टिड्डी दल के दल उमड़ रहे थे – उत्तर भारत में ये जंगली जाहिल क्रूर लोग अपना डेरा जमा रहे थे। इसी ख़िलजी कबीले का वहशी अल्लाउद्दीन ख़िलजी अभी जन्मा ना था लेकिन ख़िलजी नाम बख़्तियार के रूप में भारत में कुख्यात होने लगा था।
बिन क़ासिम से ऐबक तक के लूट पाट के क़िस्से सुन सुन कर ख़िलजी के मन में भी ऐसी सम्पदा लूटने की इच्छा हिलौरे मार रही थी। बिहार और बेंगॉल में अभी दीन की शमशीर ने पूर्ण रूप से फ़तह हासिल ना की थी। सेन वंश के अस्सी वर्षीय लक्ष्मण सेन अब बुजुर्ग हो चले थे और उनका आधिपत्य इन जगहों में उखड़ने लगा था। ये मौक़ा बख़्तियार को सुनहरा लगा और उसने अपने अफ़ग़ानी दल की संख्या डेढ़ हज़ार तक बढ़ा ली।
उसके डेरे के आसपास अनेक भारतीय विद्यालय थे- घुटे सर वाले ब्राह्मण , बौद्ध भिक्षु, विद्यार्थी अक्सर घूमते मिलते। इन अफ़ग़ानियों को कभी समझ ना आया – इस इलाक़े में इतने कोपीन धारी बटुक क्यू पाए जाते है। इन डकैत दल को टोह मिलने की देर थी कोई बताए अपार सम्पदा कहाँ है। विशाल मंदिर आदि कहाँ है।
आख़िर दीन की पताका लहराने के साथ साथ बेशुमार दौलत लूटने का लालच उन्हें अफ़ग़ान से बिहार तक ले आया था।
शेष है।