Home विषयकहानिया देस_भयो_परदेस

देस_भयो_परदेस

हरि गुप्ता

by Praarabdh Desk
236 views

बँटवारे की वो काली रात। #लाहौर स्टेशन पर तिल रखने भर की जगह नहीं थी, बावजूद इसके लोग एक के उपर एक चढ़े जा रहे थे! सबको जल्दी थी फौरन से पेश्तर इस नापाक पाक से छुटकारा पाने की, वो जगह जो अभी अभी, स्वर्ग से नर्क में तब्दील हुई थी!

इसी काली रात में एक बूढ़े दम्पत्ति स्टेशन से थोड़ी दूर झाड़ियोंं में दम साधे अपना दम निकलने की आशंका में मरे जा रहे थे–

ये ट्रेन भी छूटी जी! लगता है, अपने ही घर में गला रेते जाने का भाग्य लिखाकर आये हैं हम!’

ऐसा ना कहो पार्वती! अभी मैं जिंदा हूँ!’–वृद्ध ने पत्नी का कंधा थपथपाया!

इसी का तो रोना है जी! काश! काश कि आज हमें भी भगवान ने कोई बेटा-बेटी दी होती तो बुढ़ापे में आपको ये असह्य कष्ट नहीं झेलना पड़ता!’

‘जिंदगी भर मैं भगवान को कोसता रहा भागवान, केवल इसीलिए कि उसने हमदोनों को संतानहीन रखा! पर आज दंडवत् कर रहा हूँ उन्हें!’

क्या कह रहे हैं जी! इस त्रासदी में आपकी बुद्धि तो काम कर रही है ना!’
‘एकदम पार्वती! रिश्ते जितने कम हों, आँसू उतने कम खर्च होते हैं!’
‘मतलब!’
सोचो! आज मैं बस तुम्हारे लिए और तुम मेरे लिए आशंकित हो! संतानें होतीं तो उनकी चिंता में तो हमदोनों ना मर पाते और ना जी पाते! देख रही हो टेसन पर चलती-फिरती जिंदा लाशों को! किसी के जवान बेटे की लाश तक ना मिल रही तो किसी की बेटी डोली चढ़ने की उम्र में अपनी अस्मत लुटाकर भी जान ना बचा सकी, कौड़ियों के भाव बाजार में एक हाथ से दूसरे हाथ बेची जा रही है!’
‘हूँ!’

‘बोलो! बर्दाश्त कर पाती ये सदमा! हमदोनों के पास क्या है! अधिक से अधिक जान, जो इस बुढ़ापे में वैसे ही कभी भी जा सकती है! मैं पहले मरुं तो तुम रो लेना और तुम पहले मरी तो मैं छाती पीट लूंगा!’
‘जब मरना तय ही है तो हम इस एकांत में क्यों बैठे हैं जी! चलकर अपने घर में ही मौत की प्रतीक्षा क्यों ना करें!’
‘हहहहहह घर! बड़ी भोली है रे तू पार्वती! अब ये हमारा घर नहीं, सांप का बिल है जिसमें आश्रय की उम्मीद पालना खुद को नागों से डंसवाना है!’
‘फिर, फिर क्या करें हम?’
‘हम पैदल ही जायेंगे #हिंदुस्तान, किसी सुनसान बियाबान रास्ते से!’
‘क्या कह रहे हैं जी! आपको जंगली जानवरों से डर नहीं लगता!’

‘अभी जंगली जानवर इन कसाइयों से एक पायदान नीचे ही हैं पार्वती! उठो, देर ना करो!’
‘पर मुझमें इतनी जान नहीं बची जो मीलों पैदल चल सकूं! आप मेरी चिंता छोड़िये और जाइये!’
‘अरे वाह! खूब कही तुमने! डोली नहीं है तो क्या, मेरे कंधे तो हैं ना! उनपे लाद के ले चलूंगा तुम्हें! समझ लो कि एक बार फिर बुढ़ापे में तुम्हारा गौना कराकर ले जा रहा हूँ!’
कहकर बूढ़े ने उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की, आगे बढ़कर पार्वती को अपने कंधे पर लादा और चल पड़ा एक अंतहीन सफर पर, पीछे अपने पुरखों की निशानी और जीवन की तमाम स्मृतियों की हूक कलेजे में लिए!

वो अंतहीन सफर आज भी जारी है, कब पूरा होगा, ना तो उस बूढ़े दम्पत्ति को पता है और ना हमें! ये जीवन उनकी अगवानी का हमें अवसर देगा या नहीं, नहीं पता!*

कृपा शंकर मिश्र #खलनायक*

Related Articles

Leave a Comment