भीड़ में एक सज्जन एक्टिवा से जा रहे थे। उनके ठीक पीछे मेरी मोटरसाइकिल तथा मेरे दाहिनी तरफ एक टैम्पो। तभी राइट साइड की उप सड़क से एक युवती, मेरे और टैम्पों के बीच, धनुष से निकले बाण की तरह दाखिल हुयीं और सामने वाले सज्जन की एक्टिवा के पिछवाड़े को ठोंककर, दो फिट पीछे सरक, मासूम सी शक्ल बनाकर खड़ी हो गयीं।
आपको मालूम की जब कोई पीछे से ठोंकता है तो ठुकने वाले ‘वाहन स्वामी’ तक दो अनुभूतियां संप्रेषित होतीं हैं। पहली, टक्कर से उपजी ‘धात्विक ध्वनि’ एवं दूसरी उनके पूरे शरीर के भीतर महसूस की गयी एक क्षणिक कम्पन।
खैर! ध्वनि एवं कम्पन अनुभूत करने के उपरांत सज्जन ने सज्जनता का चोला उतार फेंका तथा एक ‘रक्त तप्त कोयले’ की शक्ल एवं उष्मा के साथ गुस्से से पीछे पलटे। मेरा दुर्भाग्य कि महाशय का सिर जिस अधिकतम कोण तक घूमा। उस कोण पर, एक अपराधी की तरह अपने असलहे के साथ मैं खड़ा मिला। सज्जन मुझ देखते ही मुझ पर पर टूटकर बरसे-
“दिख नहीं रहा। बड़ी जल्दी मची है। चढ़े चले जा रहे हो… वगैरह-वगैरह।
मैं निर्दोष था इसलिए मेरे चेहरे पर कोई ग्लानि के भाव नहीं उपजा. हां उनका आचरण थोड़ा अप्रत्याशित एवं अशोभनीय अवश्य महसूस हो रहा था।
मैंने कहा- “भैया मैंने नहीं लड़ाया।”
सज्जन- “मतलब हवा में लड़ गई।”
मैं- “मतलब लड़ी तो है लेकिन मेरी गाड़ी से नहीं लड़ी। (इसी बीच अपनी उंगली से उस नकाबपोश युवती की तरफ इशारा करके अपने निरपराध होने का सबूत पेश किया।)”
अब युवती को देखते ही उनके गुस्से और गर्मी को जैसे लकवा मार गया! ऐसे ठंड पड़े जैसे गर्म साइलेंसर पर धुलाई केन्द्र वाले ने पानी की मोटी धार मार दी हो। जो चेहरा कोयले जैसा ‘रक्त तप्त’ था वो दो सेंकेड के भीतर ही चूल्हे में किनारे पड़ी ठंडी सफेद राख में तब्दील हो गयी। आवाज में सख्ती यूं गायब हुई जैसे बासी-सूखी रोटी पर कोई दो चम्मच गर्म घी चुपड़ दिया हो।
गजब है! जब तक पुरुष से ठुके होने का अंदाजा था तब गेहूंवन सर्प बन कर फुंफकार मारते रहे। लेकिन ज्यों ही महिला से ठुकने का पता चला। फूलकर गुलगुला हो गये।
मित्रों! मैं समझाता हूं कि पुरुषों के भीतर भी एक बिल्ला (नर बिल्ली) छुपा बैठा होता है जो मौका पाते ही अपने दंत और नख खोलकर प्रहार की मुद्रा में खड़ा हो जाता है। किन्तु उसी बिल्ले के कान में जब ‘मखमली म्याऊं’ की आवाज़ घुलती है तो उसकी पूंछ में न जाने सी तंरगें उठने लगती हैं।