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स्त्री के प्रति हमारा नजरिया और शुचिता का आडंबर बनाम संस्कार संस्कृति

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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स्त्री को माहवारी झेलना पड़ता है, स्त्री गर्भवती होती है, स्त्री अपने गर्भ में बच्चे को नौ महीने पालती है और एक दिन स्त्री बच्चे को अपने यौनांग से धरती पर अवतरित कराती है। जीवन देने की क्षमता के कारण स्त्री के आंतरिक शरीर की बनावट पुरुष से भिन्न होती है। इसलिए पुरुष व स्त्री दोनो को ही स्त्री शरीर के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, यह संवेदनशीलता स्त्री शरीर के प्रति समुचित जानकारी के बिना नहीं आ सकती है।
देश की अधिकतर महिलाएं किसी न किसी स्त्री रोग से पीड़ित रहती है और अपने ही परिवार में संकोचवश, लज्जावश कुछ कह नहीं पाती हैं क्योंकि परंपरा में उनको यह बताया गया है कि स्त्री व स्त्री के गुप्तांग इतने दूषित होते हैं कि उन अंगों का नाम लेना भी टुच्चापन है। बिचारी महिला आजीवन शारीरिक कष्ट केवल इस कारण भोगती है क्योंकि स्त्री गुप्तांगों का नाम लेना ओछापन, अभद्रता व कुसंस्कार है। पुरुष को स्त्री अंगों की जानकारी नहीं होती और उसे बताया जाता है कि स्त्री दूषित है, स्त्री अंग दूषित हैं इसलिए वह स्त्री के प्रति संवेदनशील भी नहीं हो पाता।
यकीन मानिए यदि हम यौनांगों को दूषित मानने की बजाय शरीर का महत्वपूर्ण अंग मानना शुरु कर दें, तो हमें गुप्तरोगों के हाशमी दवाखानों, गुप्तरोगों के जैन क्लीनिकों, सुहागरात की रात में सैकड़ों रुपए की कीमत का पलंगतोड़-पान खाने व दूध का गिलास पीने आदि की जरूरत नहीं रहेगी।
संस्कृति, संस्कार, संभ्रांतता व भद्रता आदि के कारण के यौनांगों का नाम लेने को दूषित मानने की परंपरा के कारण बच्चे से लेकर वृद्ध तक अपनी शारीरिक परेशानियों को खुल कर व्यक्त न करने वाले हम लोगों के सामाजिक मूल्यों को जीने के दावों की, तो हम जानते हैं कि – हमने अपवाद छोड़ हर गाली स्त्री अंगों व स्त्री के रिश्तेदारों तक ही सीमित कर रखी है। हम दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनने का दैवीय सौभाग्य प्राप्त करने जा रहे हैं। हम दलित महिलाओं को नंगा करके बीच चौराहे घुमा देते हैं, भले ही महिला के यौनांग का नाम अपने मुंह से न लेते हों। हम छोटी-छोटी बच्चियों का बलात्कार करके उनके नंगे शरीर के चीथड़े चौराहों में छोड़ देते हैं ताकि हम लोग फोटो लेकर सोशल साइट्स में साझा कर सकें और महिला शोषण पर अपने क्रांतिकारी विचार रख सकें।
**शुचिता**
हमारे समाज में सामाजिक शुचिता को जीना बड़ा आसान है। शुचिता के लिए कर्मशील होना जरूरी नहीं, शब्दों के आडंबर को जीना जरूरी है। अपने रिश्तेदारों या परिवार की किसी बच्ची का यौन शोषण करने वाला भी शाब्दिक ढकोसलेबाजी करके खुद को आजीवन शुचिता का ठेकेदार साबित करता रह सकता है जबकि एक दिल का साफ आदमी केवल इस कारण चरित्रहीन घोषित किया जा सकता है क्योंकि वह लोगों के सामने स्थानीय भाषा में स्त्री गुप्तागों का नाम ले लेता है।
हमारे देश में शुचिता का ढोंग इस कदर जिया जाता है कि स्त्री अंगों का नाम लेना भी गुनाह माना जाता है जबकि ऐसे हजारों सच्चे किस्से हैं जिनमें पिता अपनी पुत्री से बलात्कार करता है, भाई अपनी बहन से बलात्कार करता है, न केवल बलात्कार करते हैं बल्कि स्थायी रूप से उनको अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। भारत में लड़कियों की कुल जनसंख्या की आधी से बहुत अधिक संख्या, किसी न किसी प्रकार का यौन-शोषण झेलती है और अधिकतर अपने परिवार के सदस्यों या निकट रिश्तेदारों से ही झेलती है। लेकिन कभी अपना विरोध नहीं दर्ज करा पाती है। बहुत सारे ऐसे ढोंगी लोग होगें जिन्होने किसी न किसी न बच्ची का किसी न किसी प्रकार से यौन शोषण किया होगा, लेकिन समाज के सामने शुचिता के ठेकेदार व लंबरदार बने घूमते हैं।
क्या हमें संस्कृति व संस्कारों के दिखावों व ढोंगों को बंद नहीं कर देना चाहिए? हमें अपने वास्तविक चरित्र, सोच व मानसिकता के यथार्थ को स्वीकार करते हुए स्वयं में बदलाव का प्रयास करते हुए स्त्री के प्रति हमें वास्तव में संवेदनशील होने का प्रयास नहीं करना चाहिए। समाज की नैतिकता या संस्कृति की समृद्धि शाब्दिक ढोंगों से नहीं होती लोगों के कर्म व वास्तविक चरित्र से होती है।
*——विवेक उमराव——*
की लगभग 7 वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक
*”मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर”* से

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