मेरी शादी में मेरे माता-पिता भाई बहन इत्यादि, मेरी पत्नी के माता-पिता भाई बहन इत्यादि नहीं सम्मिलित हुए थे। हमारी शादी सुबह एक-आध घंटे में ही अग्नि-हवन के फेरे इत्यादि लेकर निपट गई थी। शादी के तुरंत बाद हम लोग अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गए थे। कोई शोर-शराबा नहीं, कोई आतिशबाजी नहीं, कोई संगीत नहीं, उपहारों का आदान-प्रदान नहीं। हमारी शादी में मंत्रो का उच्चार भी गायत्री परिवार मिशन के हमारे एक जाट मित्र ने किया था जो उस समय जल-विद्यापीठ में हमारे छात्र होते थे (उमर में हमसे बड़े थे)। शादी में कुछ कम अधिक 100 लोगों की उपस्थिति थी, जिनमें जल-विद्यापीठ के छात्र, शिक्षक व आसपास के गांवों के किसान लोग इत्यादि थे।
शादी के लिए मैंने कुुर्ता धोती उधार लेकर पहनी थी, शादी के बाद वापस कर दी थी। मेरी पत्नी ने उधार की साड़ी पहनी थी, जो उन्होंने भी शादी के बाद वापस कर दी थी। इक्का दुक्का छोड़, हम लोगों की फोटो तक नहीं है। मंगलसूत्र के नाम पर काला धागा था। कोई आभूषण नहीं। कुल दो-तीन सौ रुपए में शादी निपट गई थी, इनमें से अधिकतर रुपए फल इत्यादि में खर्च हुए थे।
न तो शादी के पहले, न ही शादी के बाद मैंने अपनी पत्नी से कभी पूछा कि मेरे सास ससुर, साला व साली क्या करते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे अपने आप जानकारी मिलती रही। न ही मेरी पत्नी ने कभी मुझसे मेरे माता-पिता परिवार इत्यादि के बारे में पूछा, उनको भी समय के साथ अपने-आप जानकारी मिलती रही। हम लोगों ने कभी भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि एक दूसरे के माता-पिता इत्यादि की क्या सामाजिक हैसियत है, क्या आर्थिक हैसियत है। हम दोनों के लिए एक दूसरे का व्यक्तित्व ही विवाह के लिए पर्याप्त था।