Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 27
बड़े भाई श्रीराम के विरह का शोक लक्ष्मण जी के लिए असह्य हो गया और उन्होंने उनके दोनों चरण कसकर पकड़ लिए। वे भी उनके साथ वन को चलने की अनुमति माँगने लगे।
श्रीराम उन्हें समझाते हुए बोले, “लक्ष्मण! हम सबकी कामनाएँ पूरी करने वाले महाराज दशरथ अब कैकेयी के प्रेमपाश में बँध गए हैं। केकयराज अश्वपति की पुत्री कैकेयी यह राज्य पा लेने के बाद अपनी सौतों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करेगी। भरत भी राज्य पाकर कैकेयी के अधीन रहेंगे और मेरे वियोग के दुःख में डूबी हुई महारानी कौसल्या और सुमित्रा का भरण-पोषण नहीं करेंगे। अतः तुम यहीं रहकर अपने परिश्रम से या राजा की कृपा प्राप्त करके दोनों माताओं का पालन करो।”
लेकिन लक्ष्मण जी ने इस बात को नहीं माना और वे कहने लगे, “श्रीराम! इसमें मुझे कोई संशय नहीं है कि भरत दोनों माताओं की पवित्र भाव से सेवा करेंगे। यदि भरत दूषित हृदय अथवा अहंकार के कारण गलत मार्ग पर चलेंगे तो मैं भरत का और उनका पक्ष लेने वाले सभी लोगों का वध कर दूँगा, इसमें कोई संशय नहीं है।”
“माता कौसल्या तो स्वयं ही मेरे जैसे सहस्त्रों मनुष्यों का पालन कर सकती हैं क्योंकि उन्हें अपने आश्रितों का पालन करने के लिए एक सहस्त्र गाँव मिले हुए हैं। अतः आप मुझे अपने साथ वन को आने दीजिए। आपने तो बहुत पहले ही मुझे अपने साथ रहने की आज्ञा दे दी थी, फिर आज आप मुझे क्यों रोक रहे हैं?”
“मैं प्रत्यञ्चासहित धनुष लेकर खंती और पिटारी लिए आपको रास्ता दिखाता हुआ आपके आगे-आगे चलूँगा। प्रतिदिन आपके लिए फल-मूल लाऊँगा और हवन सामग्री भी जुटाया करूँगा। वहाँ वन में आप जागते हों या सोते हों, मैं आपके समस्त कार्य पूर्ण करूँगा।”
लक्ष्मण का ऐसा आग्रह सुनकर श्रीराम ने उन्हें भी साथ चलने की स्वीकृति दे दी और माताओं व अन्य सभी शुभचिंतकों से मिलकर उनकी अनुमति लेकर आने को कहा।
साथ ही वे बोले, “लक्ष्मण! राजा जनक के महान् यज्ञ में महात्मा वरुण ने उन्हें जो दो दिव्य धनुष, दो दिव्य अभेद्य कवच, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस था दो सुवर्णभूषित खड्ग प्रदान किए थे, उन सबको महर्षि वसिष्ठ के घर सत्कारपूर्वक रखा गया है। तुम उन सब आयुधों को लेकर शीघ्र लौट आओ।”
आज्ञा पाकर लक्ष्मण जी गए और सभी की अनुमति लेकर उन्होंने वनवासी की तैयारी की। इसके पश्चात उन्होंने गुरु वसिष्ठ जी के यहाँ से उन उत्तम आयुधों को ले लिया और उन्हें लाकर श्रीराम को दिखाया।
तब प्रसन्न होकर श्रीराम ने कहा, “लक्ष्मण! तुम ठीक समय पर आ गए। मेरा जो यह धन है, इसे मैं तुम्हारे साथ मिलकर तपस्वी ब्राह्मणों व उनके आश्रितजनों में बाँटना चाहता हूँ। वसिष्ठ जी के पुत्र आर्य सुयज्ञ ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं। तुम शीघ्र उन्हें यहाँ बुला लाओ। मैं उनका व अन्य सभी शेष ब्राह्मणों का सत्कार करके वन को जाऊँगा।”
आज्ञानुसार लक्ष्मण जी शीघ्र ही गुरुपुत्र सुयज्ञ के घर पहुँचे। मध्याह्न काल की उपासना पूरी करके सुयज्ञ जी श्रीराम से मिलने आए। श्रीराम व सीता ने हाथ जोड़कर उनकी अगवानी की।
श्रीराम ने सोने के बने हुए श्रेष्ठ अङ्गद, सुन्दर कुण्डल, सोने के धागे में पिरोयी हुई मणि, केयूर, वलय तथा अन्य अनेक रत्न देकर उनका सत्कार किया। इसके पश्चात् सीता के संकेत पर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! तुम्हारी पत्नी की सखी सीता तुम्हें अपना हार, करधनी, सुवर्णसूत्र, अङ्गद और सुन्दर केयूर देना चाहती है। इन्हें अपनी पत्नी के लिए अपने घर ले जाओ।”
“उत्तम बिछौनों से युक्त व अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित इस पलंग को भी सीता तुम्हारे घर भेजना चाहती है। मेरे मामा ने मुझे यह जो शत्रुञ्जय नामक गजराज भेंट किया था, वह भी मैं एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राओं के साथ तुम्हें अर्पित करता हूँ।” श्रीराम के ऐसा कहने पर सुयज्ञ ने वे सब वस्तुएँ ग्रहण कीं और उन तीनों को मङ्गलमय आशीर्वाद देकर उनसे विदा ली।
उनके जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सौमित्र! अब तुम अगस्त्य और विश्वामित्र दोनों उत्तम ब्राह्मणों को बुलाकर रत्नों द्वारा उनकी सेवा करो। सहस्त्रों गौओं, स्वर्णमुद्राओं, रजतद्रव्यों और बहुमूल्य मणियों द्वारा उन्हें संतुष्ट करो।”
“यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का अध्ययन करनेवाले ब्राह्मण, उनके आचार्य और समस्त वेदों के जो विद्वान दान पाने के योग्य हैं, जो माता कौसल्या के प्रति भक्तिभाव रखते हैं और प्रतिदिन आकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं, उनको तुम सवारी, सेवक-सेविकाएँ, रेशमी वस्त्र और पर्याप्त धन देकर संतुष्ट करो।”
“चित्ररथ नामक एक श्रेष्ठ सचिव भी हैं, जो दीर्घकाल से राजकुल की सेवा में यहीं रहते हैं। उन्हें भी बहुमूल्य रत्न, वस्त्र, धन, उत्तम श्रेणी के अज आदि पशु और एक सहस्त्र गौएँ प्रदान करो।”
“मुझसे संबंध रखने वाले जो कठशाखा एवं कलाप शाखा के अध्येता दण्डधारी ब्रह्मचारी हैं, उनके लिए रत्नों से लदे अस्सी ऊँट, अगहन के चावल को ढोने वाले एक सहस्त्र बैल तथा भद्रक अनाज (चना, मूँग आदि) का भार लदे हुए दो सौ बैल भी दिलवाओ। दही घी आदि के लिए एक सहस्त्र गौएँ भी उनके यहाँ के भिजवा दो।”
“माता कौसल्या के पास मेखलाधारी ब्रह्मचारियों का एक बड़ा समुदाय आया है। उनमें से प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवा दो।”
श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने वे सभी कार्य पूर्ण किये।
इसके पश्चात् श्रीराम ने अपने सभी आश्रित सेवकों को वहाँ बुलवाया। उन सबका गला दुःख से रुँधा हुआ था और आँखों से आँसू बह रहे थे। उन सबको श्रीराम ने अगले चौदह वर्षों तक की जीविका चलाने के लिए आवश्यक द्रव्य प्रदान किया और उनसे कहा, “जब तक मैं वन से लौटकर न आऊँ, तब तक तुम लोग लक्ष्मण के व मेरे इस घर को छोड़कर कभी कहीं न जाना।”
अब श्रीराम ने अपने धनाध्यक्ष (खजांची) से कहा, “खजाने में मेरा जितना धन है, वह सब ले आओ।” आदेश पाकर उनके सेवक सारा धन ढोकर वहाँ ले आए, जिससे एक बड़ी धनराशि का ढेर लग गया। श्रीराम ने वह सारा धन बूढ़े ब्राह्मणों, बालकों व दीन-दुखियों में बँटवा दिया।
उन्हीं दिनों अयोध्या के पास वाले वन में त्रिजट नामक एक गर्गगोत्रीय ब्राह्मण निवास करते थे। वे स्वयं अब बूढ़े हो चले थे, किंतु उनकी पत्नी तरुणी थी और उनकी अनेक संतानें भी थीं। आजीविका का कोई साधन न होने के कारण वे सदा फाल, कुदाल और हल लेकर वन में कंद-मूल की खोज में घूमते रहते थे। पर्याप्त भोजन के अभाव में प्रायः उन्हें उपवास ही करना पड़ता था। इस कारण उनका शरीर पीला पड़ गया था।
उनकी पत्नी ने उनसे कहा, “प्राणनाथ! मेरा अनुरोध है कि आप यह फाल और कुदाल फेंककर मेरा कहा मानिये और श्रीरामचन्द्र जी से जाकर मिलिये। वे अवश्य ही हमारी सहायता करेंगे।”
पत्नी की बात मानकर बूढ़े ब्राह्मण श्रीराम के भवन की ओर चल दिए। वे एक फटी धोती पहने हुए थे, जिससे उनका शरीर बड़ी कठिनाई से ही ढँक पाता था।
तेजस्वी त्रिजट उस जनसमुदाय के बीच से होकर श्रीराम के महल की पाँचवी ड्योढ़ी तक चलते चले गए, परन्तु किसी ने उनसे कोई रोक-टोक नहीं की। श्रीराम के पास पहुँचकर त्रिजट ने कहा, “महाबली राजकुमार! मैं निर्धन हूँ। मेरे अनेक पुत्र हैं और जीविका नष्ट हो जाने से मैं अब सदा वन में ही रहता हूँ। आप मेरी सहायता करें।”
तब श्रीराम ने विनोदपूर्वक कहा, “ब्राह्मन! मेरे पास असंख्य गौएँ हैं, जिनमें से एक सहस्त्र का भी मैंने अभी तक दान नहीं किया है। आप अपना डंडा जितनी दूर तक फेंक सकेंगे, वहाँ तक की सारी गौएँ आपको मिल जाएँगी।”
यह सुनकर त्रिजट ने बड़ी फुर्ती से अपनी धोती के पल्ले को सब ओर से कमर में लपेट लिया और अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े वेग से डंडे को फेंका। उनके हाथ से छूटकर वह डंडा सरयू के उस पार जाकर हजारों गौओं से भरे हुए गोष्ठ में एक सांड के पास गिरा। श्रीराम ने महात्मा त्रिजट को सीने से लगा लिया और उनके डंडे के स्थान तक जितनी गौएँ थीं, उन सबको मँगवाकर त्रिजट के घर भिजवा दिया।
तब उन्होंने त्रिजट से कहा, “ब्रह्मन! मैंने विनोद में आपसे वह बात कही थी, उसका बुरा न मानियेगा। आपकी शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है, अतः उसे जानने की इच्छा से ही मैंने आपको यह डंडा फेंकने को प्रेरित किया था। मेरे पास जो-जो धन है, वह सब श्रेष्ठ ब्राह्मणों के लिए ही है। यदि आप कुछ और चाहते हों, तो निःसंकोच माँगिये।”
गौओं के उस विशाल समूह को पाकर ही त्रिजट व उनकी पत्नी संतुष्ट थे। वे प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम को आशीर्वाद देकर अपने घर को लौट गए। इसके पश्चात भी बहुत देर तक श्रीराम अपना बचा हुआ समस्त धन लोगों में बाँटते रहे। अंत में वहाँ ऐसा कोई भी ब्राह्मण, सुहृद, सेवक, दरिद्र, भिक्षुक अथवा याचक नहीं बचा, जिसे यथायोग्य आदर के साथ श्रीराम ने दान देकर संतुष्ट न किया हो।
अब सीता के साथ श्रीराम व लक्ष्मण दोनों भाई पिता का दर्शन करने के लिए गए।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…..

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