Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 28
सीता के साथ श्रीराम व लक्ष्मण अब अपने पिता का दर्शन करने के लिए गए। उन दोनों भाइयों के धनुष व अन्य आयुध लेकर दो सेवक भी उनके साथ-साथ चल रहे थे। उन आयुधों को फूल-मालाओं से सजाया गया था एवं चन्दन आदि से अलंकृत किया गया था।
उनके आने का समाचार सुनकर अयोध्या के नर-नारी उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़े। प्रासादों, राजभवनों, छतों आदि में लोगों की भीड़ उन्हें देखने के लिए जुट गई। सड़कों पर भी दोनों ओर लोग ही लोग खड़े थे।
श्रीराम को अपनी पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ इस प्रकार पैदल जाते देख बहुत-से लोगों का हृदय शोक से व्याकुल हो उठा। वे कहने लगे, “हाय! जिनके पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चलती थी, आज वे श्रीराम अकेले पैदल जा रहे हैं और उनके पीछे केवल सीता व लक्ष्मण हैं। जो ऐश्वर्य का सुख भोग रहे थे, वे श्रीराम अब पिता के वचन की आन रखने के लिए वन के कष्ट भोगने जा रहे हैं। पहले जिस सीता को आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे, उसे आज सड़कों पर खड़े लोग भी इस प्रकार देख रहे हैं। वन के कष्ट, गर्मी, सर्दी, वर्षा अब शीघ्र ही सीता के कोमल अंगों की कान्ति को फीका कर देंगे।”
“अवश्य ही राजा दशरथ किसी पिशाच के अधीन हो गए हैं, अन्यथा कौन पिता इस प्रकार अपने पुत्र को घर से निकाल सकता है? पुत्र यदि गुणहीन हो, तब भी माता-पिता उसे घर से निकालने का साहस नहीं कर पाते हैं, फिर श्रीराम जैसे सद्गुणी पुत्र को वनवास देने का तो कोई विचार भी कैसे कर सकता है? श्रीराम तो दया, विद्या, शील, संयम और विवेक के गुणों से परिपूर्ण हैं। अतः उनकी इस अवस्था को देखकर हम सब भी अत्यंत कष्ट पा रहे हैं।”
“चलो अब हम लोग भी लक्ष्मण की भाँति श्रीराम का ही अनुसरण करें और वे जिस मार्ग से जा रहे हैं, उसी पर अब हम भी चलें। बाग-बगीचे, घर-द्वार, खेती-बाड़ी सब छोड़ दें, अपने आँगन खोदकर घर में गड़ी सारी निधि निकाल लें, धन-धान्य व अन्य आवश्यक वस्तुएँ साथ ले लें और इस नगर से चले जाएँ।”
“इन घरों में सब ओर धूल भर जाएगी, चूहे बिलों से निकलकर दौड़ लगाने लगेंगे, न कभी यहाँ झाड़ू लगेगी, न पानी रहेगा और न आग जलेगी, न इन घरों में देवताओं का वास रहेगा, न कोई यज्ञ, होम, जप या मंत्रपाठ होंगे। पूरा नगर ऐसा हो जाएगा, मानो यहाँ बड़ा भारी अकाल पड़ा है। फिर कैकेयी आकर इन घरों पर अधिकार कर ले व यहाँ शासन करे। जहाँ श्रीराम होंगे, वह वन भी हमारे लिए नगर जैसा ही है।”
श्रीराम ने लोगों की ऐसी बातें सुनीं, किन्तु उनके मन में कोई विकार नहीं आया। वे उसी शांत भाव से आगे बढ़ते हुए रानी कैकेयी के भवन में पहुँचे।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि बहुत-से वीर योद्धा शोक से व्याकुल होकर वहाँ खड़े हैं। दुःखी सुमन्त्र भी पास ही खड़े थे। उनके पास पहुँचकर श्रीराम ने अपने आगमन की सूचना पिताजी के पास भिजवाने को कहा।
सुमन्त्र यह सूचना लेकर भीतर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि महाराज दशरथ शोक से व्याकुल होकर श्रीराम का ही चिन्तन कर रहे थे। सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और कहा, “महाराज! आपके पराक्रमी पुत्र श्रीराम अपना सारा धन प्रजा को दान करके इस समय आपके द्वार पर खड़े हैं। वन में जाने से पहले वे आपका दर्शन करना चाहते हैं, अतः आप भी श्रीराम को जी भरकर देख लीजिए।”
यह सुनकर व्याकुल दशरथ जी ने कहा, “सुमन्त्र! यहाँ मेरी जो कोई भी स्त्रियाँ हैं, उन सबको बुलाओ। उन सबके साथ मैं श्रीराम को देखना चाहता हूँ।” उसी के अनुसार सुमन्त्र अन्तःपुर में जाकर उन सब स्त्रियों को बुला लाए। महारानी कौसल्या को चारों ओर से घेरकर वे साढ़े तीन सौ स्त्रियाँ उस भवन में आ गईं।
तब दशरथ जी ने सुमन्त्र से कहा, “अब मेरे पुत्र को ले आओ।”
आज्ञा पाकर सुमन्त्र गए व श्रीराम, लक्ष्मण व सीता को भीतर बुला लाए। अपने पुत्र को दूर से ही हाथ जोड़कर आता हुआ देख महाराज सहसा अपने आसन से उठ खड़े हुए। उसी क्षण राजभवन में “हा राम! हा राम!” कहती उन सैकड़ों दुखी स्त्रियों का भीषण आर्तनाद भी गूँज उठा।
श्रीराम को देखते ही महाराज उनकी ओर दौड़े, किन्तु उन तक पहुँचने से पहले ही मूर्छित होकर गिर पड़े। श्रीराम और लक्ष्मण ने तेजी से दौड़कर उन्हें उठाया व सहारा देकर पलंग पर बिठा दिया। दशरथ जी की यह अवस्था देखकर सीता के साथ-साथ श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई भी रो पड़े।
कुछ समय बाद जब महाराज सचेत हुए, तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, “पिताजी! आप हम सबके स्वामी हैं। मैं अब दण्डकारण्य को जा रहा हूँ और आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। मेरे साथ लक्ष्मण व सीता को भी वन में जाने की अनुमति दीजिए। मैंने अनेक कारण बताकर इन दोनों को रोकने की बहुत चेष्टा की है, किन्तु ये दोनों यहाँ नहीं रहना चाहते।”
यह सुनकर दशरथ जी बोले, “वत्स राम! मैं कैकेयी को दिए हुए वरदान के कारण इस संकट में पड़ गया हूँ। तुम मुझे कैद करके स्वयं ही अयोध्या के राजा बन जाओ।”
इस पर श्रीराम ने विनम्रता से कहा, “महाराज! मुझे राज्य लेने की कोई इच्छा नहीं है। मैं तो अब वन में ही निवास करूँगा व आपकी प्रतिज्ञा पूरी करके चौदह वर्षों बाद पुनः लौटकर आपको प्रणाम करने आऊँगा।”
श्रीराम को तुरंत वन भेजने के लिए रानी कैकेयी बार-बार महाराज को संकेत कर रही थी। अंततः आर्तभाव से रोते हुए दशरथ जी ने श्रीराम से कहा, “तात! तुम्हारे निश्चय को बदलना तो अब मेरे लिए भी असंभव है, किन्तु केवल एक रात के लिए तुम और रुक जाओ। केवल एक और दिन मैं तुम्हें देखने का सुख उठा लूँ, फिर प्रातःकाल तुम यहाँ से वन को चले जाना।”
“बेटा रघुनन्दन! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारा वन में जाना मुझे प्रिय नहीं है। यह रानी कैकेयी राख में छिपी हुई अग्नि के समान निकली। इसने अपने क्रूर अभिप्राय को मन में छिपा रखा था और वरदान का दुरुपयोग करके इसने मेरे साथ ऐसा भयंकर विश्वासघात किया है।”
श्रीराम ने रात भर ठहरने का अनुरोध नहीं माना। वे बोले, “पिताजी! मुझे राज्य की कोई कामना नहीं है। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य मानकर ही राज्य को ग्रहण करने की अभिलाषा की थी। आप इस प्रकार आँसू मत बहाइये। कैकेयी के दोनों वरदान पूरे करके सत्यवादी बनिए।”
“न मुझे राज्य की कामना है, न सुख की, न पृथ्वी की, न स्वर्ग की और न मुझे इस जीवन की इच्छा है। मेरे मन में केवल एक ही इच्छा है कि कोई आपको झूठा न कह सके। अतः आप मुझे इसी क्षण वन में जाने दीजिए और अयोध्या में भरत का राज्याभिषेक कीजिए। कृपया अपने शोक को मन में दबा लीजिए क्योंकि मैं अब एक क्षण भी यहाँ नहीं ठहर सकता। वन में जाने का मेरा निश्चय अटल है।”
यह सब सुनकर दशरथ जी ने दुःख और संताप से पीड़ित होकर पुनः श्रीराम को कसकर गले लगा लिया और पुत्र से विछोह के कष्ट से वे रोते-रोते पुनः अचेत हो गए। यह देखकर कैकेयी के अतिरिक्त अन्य सभी रानियाँ रो पड़ीं।
उस दृश्य से विचलित होकर सुमन्त्र भी रोते-रोते मूर्च्छित हो गए तथा वहाँ हाहाकार मच गया।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा

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