Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 67
क्रोध से भरा हुआ वाली किष्किन्धापुरी से बाहर निकला और अपने शत्रु को देखने के लिए उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। तभी उसे युद्ध के लिए तैयार खड़ा सुग्रीव दिखाई दिया। उसे देखते ही वाली का क्रोध और भी बढ़ गया और उसकी आँखें लाल हो गईं। अगले ही क्षण दोनों भाई एक-दूसरे पर मुक्कों से प्रहार करने के लिए आगे बढ़े।
वाली बोला, “सुग्रीव! मेरी इस कसकर बँधी हुई मुट्ठी को ध्यान से देख ले। मेरी सारी उंगलियाँ एक-दूसरे से सटी हुई हैं। एक ही मुक्का मारकर मैं तेरे प्राण ले लूँगा।”
तब क्रोधित सुग्रीव ने भी कहा, “मेरा यह मुक्का भी तेरे प्राण लेने के लिए तैयार है।”
उतने में ही वाली ने बड़ी तेजी से सुग्रीव पर प्रहार कर दिया। उस चोट से घायल होकर सुग्रीव रक्त की उल्टी करने लगा। फिर सुग्रीव ने भी साल के वृक्ष को उखाड़कर वाली पर प्रहार करके उसे घायल कर दिया।
इस प्रकार दोनों भाई एक-दूसरे के प्राण लेने की इच्छा से वार करते गए। लेकिन शीघ्र ही सुग्रीव की शक्ति क्षीण होने लगी और वाली का पलड़ा भारी होता गया। वाली ने सुग्रीव का घमण्ड चूर कर दिया।
उसी समय सुग्रीव ने श्रीराम को अपनी अवस्था के बारे में संकेत किया। तब श्रीराम ने अपने धनुष पर बाण रखकर जोर से खींचा और वाली को लक्ष्य बनाकर बाण छोड़ दिया। वह बाण सीधा जाकर वाली की छाती में लगा और वह पराक्रमी वानर तत्काल भूमि पर गिर पड़ा। उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी और वह धीरे-धीरे आर्तनाद करने लगा।
उस अवस्था में भी उसका शरीर तेजस्वी दिखाई दे रहा था। उसने गले में इन्द्र का दिया हुआ सोने का रत्नजड़ित हार पहना हुआ था। उसका सीना चौड़ा, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, मुख दीप्तिमान और आँखें कपिलवर्ण (ताँबे जैसे रंग की या भूरी?) थीं।
उस महापराक्रमी वीर का विशेष सम्मान करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उसके पास गए। उन्हें देखकर उसने विनयपूर्वक किन्तु कठोर वाणी में कहा, “श्रीराम! आप तो राजा दशरथ के सुविख्यात पुत्र हैं। मैं आपसे युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो किसी और के साथ युद्ध में उलझा हुआ था। उस दशा में मेरा वध करके आपने कौन-सा यश प्राप्त किया?”
“इस संसार में सब लोग कहते हैं कि आप कुलीन, तेजस्वी, प्रजा-हितैषी, दयालु, उत्साही, समयोचित कार्य करने वाले और सदाचार के ज्ञाता हैं। आप दृढ़प्रतिज्ञ, सत्त्वगुणसंपन्न एवं करुणामयी हैं। संयम, इन्द्रिय निग्रह, क्षमा, धैर्य, धर्म, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियों को दण्ड देना राजा के गुण हैं। आपमें भी ये सभी गुण विद्यमान हैं, ऐसा मानकर मैं तारा के मना करने पर भी सुग्रीव से लड़ने आ गया क्योंकि मुझे विश्वास था कि आप छिपकर मुझ पर वार करना उचित नहीं समझेंगे।”
“लेकिन आज मुझे पता चला कि आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आप केवल दिखावे के लिए धर्म का ढोंग करते हैं, किन्तु वास्तव में आप अधर्मी और पापी हैं। जब मैं आपके राज्य में कोई उपद्रव नहीं कर रहा था और मैंने कभी आपका अपमान भी नहीं किया, तो आपने मुझ निरपराध को क्यों मारा?”
“मैं तो सदा फल-मूल खाता हूँ और वन में ही रहता हूँ। मैं आपसे युद्ध भी नहीं कर रहा था। आप एक सम्माननीय नरेश के पुत्र हैं। रघु के महान कुल में आप जन्मे हैं और धर्मपरायण के रूप में आपकी ख्याति है। फिर भी आप ऐसे क्रूर और कपटी कैसे निकले? मेरा युद्ध तो किसी और के साथ हो रहा था, फिर आपने इस प्रकार धोखे से मुझे क्यों मारा? यदि मुझसे कोई वैर था, तो आपने सामने आकर वीरों की भाँति मुझसे युद्ध क्यों नहीं किया?”
“जिस उद्देश्य के लिए आपने सुग्रीव को प्रसन्न करने की इच्छा से मेरा वध किया है, उसी उद्देश्य के लिए आपने मुझसे कहा होता, तो मैं एक ही दिन में जानकी को ढूँढकर आपके पास ला देता और उस दुरात्मा रावण के गले में रस्सी बाँधकर मैं उसे आपके अधीन कर देता।”
“अब मेरी मृत्यु के बाद राज्य सुग्रीव को प्राप्त होगा, जो उचित ही है। अनुचित केवल इतना ही हुआ है कि आपने अधर्म का आश्रय लेकर मुझे युद्धभूमि में छिपकर मारा है। इस जगत में जो भी आया है, एक न एक दिन उसे जाना ही है। अतः मुझे अपनी मृत्यु का कोई खेद नहीं है, किन्तु मुझे इस प्रकार छिपकर मारने का यदि कोई औचित्य आपने ढूँढ निकाला हो, तो अच्छी तरह सोच-विचारकर वह मुझे बताइये।”
ऐसा कहकर वानरराज वाली श्रीराम की ओर देखता हुआ चुप हो गया। उस बाण के आघात से उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी और उसका मुँह सूख गया था।
वाली की बातें सुनकर श्रीराम बोले, “वानर! धर्म, अर्थ, काम और सदाचार को तो तुम स्वयं ही नहीं जानते हो, फिर बच्चों की भाँति अविवेक से मेरी निंदा क्यों कर रहे हो?”
“यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है। वे यहाँ के पशु-पक्षियों व मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दण्ड देने के अधिकारी हैं। इस समय भरत हमारे राजा हैं और उनके ही आदेश से हम संपूर्ण जगत में धर्म का प्रसार करने निकले हैं।”
“अपने गुरु और बड़े भाई को भी पिता समान ही सम्मान देना चाहिए। उसी प्रकार छोटे भाई और उत्तम शिष्य को भी पुत्र के समान मानना चाहिए। तुम मुझे धर्म का उपदेश दे रहे हो, किन्तु तुम स्वयं ही सनातन धर्म का त्याग करके अपने ही छोटे भाई की स्त्री के साथ सहवास करते हो, जो तुम्हारी पुत्रवधु के समान है। इसी अपराध के कारण मैंने तुम्हें दण्ड दिया है।”
“जो पुरुष अपनी कन्या, बहन अथवा छोटे भाई की स्त्री के प्रति ऐसी कलुषित बुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उपयुक्त दण्ड है। मैं क्षत्रिय हूँ, अतः तुम्हारे इस पाप को मैं क्षमा नहीं कर सकता। सुग्रीव के साथ मेरी मित्रता हो चुकी है। अब मेरे मन में उनका स्थान वही है, जो लक्ष्मण का है। मैंने उनका राज्य और पत्नी उन्हें वापस दिलाने की प्रतिज्ञा भी कर ली थी। उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है।”
“वानरराज! तुम भी इस बात को समझो और इसका अनुमोदन करो। जो राजा अपराधियों को दण्ड नहीं देता है, उसे स्वयं ही एक दिन उसका फल भुगतना पड़ता है। अतः पश्चाताप न करो। राजा अक्सर शिकार के लिए भी जाते हैं और सावधान अथवा असावधान पशुओं को भी घायल कर देते हैं या पकड़ लेते हैं। अतः तुम सावधान थे या नहीं, अथवा मुझसे युद्ध कर रहे थे या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैंने तुम्हारा वध करके कोई अधर्म नहीं किया है।”
यह सुनकर वाली के मन में बड़ी व्यथा हुई। उसने हाथ जोड़कर श्रीराम से क्षमा माँगते हुए कहा, “श्रीराम! आपकी बात बिल्कुल ठीक है। मैंने पहले जो कुछ आपसे कहा था, उसे आप क्षमा करें। भगवन्! मुझे अपनी, तारा की या अपने बंधु-बान्धवों की बहुत चिंता नहीं है, किन्तु सोने का अंगद (कंगन/ब्रेसलेट/बाजूबंद?) धारण करने वाले मेरे गुणवान पुत्र अंगद के लिए मुझे बहुत शोक हो रहा है।”
“श्रीराम! वह अभी बालक है। उसकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है। मेरा एकमात्र पुत्र होने के कारण मैंने बचपन से ही उसका बहुत दुलार किया है। अब मेरे न रहने पर वह बहुत दुःखी होगा। कृपया आप मेरे उस पुत्र की रक्षा कीजिएगा। सुग्रीव और अंगद दोनों के प्रति आप सद्भाव रखियेगा। अब आप ही उन दोनों के रक्षक और मार्गदर्शक हैं।”
तब श्रीराम ने भी वाली को इस बात का आश्वासन दिया।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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