श्रीराम के बाण से पीड़ित होकर वाली भूमि पर पड़ा हुआ था। श्रीराम ने अपने तर्कों से उसके प्रश्नों का समाधान भी कर दिया। उनसे बात करते-करते ही वह कुछ देर बाद मूर्च्छित हो गया।
उधर उसकी पत्नी तारा ने जब सुना कि युद्ध-क्षेत्र में श्रीराम के बाणों से वाली का वध हो गया है, तो यह भीषण समाचार सुनकर वह बहुत उद्विग्न हो उठी। अपने पुत्र अंगद को साथ लेकर वह बाहर निकली।
अंगद की रक्षा में नियुक्त रहने वाले वानर धनुषधारी श्रीराम को देखते ही भयभीत होकर भागने लगे। तारा ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा, “वानरों! कल तक तुम वीर वाली के आगे-आगे चलते थे। आज उन्हें इस अवस्था में छोड़कर भाग रहे हो?”
यह सुनकर वे वानर बोले, “देवी! अभी तुम्हारा पुत्र जीवित है। तुम भी लौट चलो और अपने पुत्र की भी रक्षा करो। श्रीराम के रूप में स्वयं यमराज का ही आगमन हुआ है। उनके सामने जाने का साहस हम लोगों में नहीं है।”
“तुम किष्किन्धा की रक्षा की व्यवस्था करो और अंगद का राज्याभिषेक कर दो। हम सब उन्हीं की सेवा करेंगे। अन्यथा तुम्हें भी अब इस नगर में नहीं रुकना चाहिए क्योंकि सुग्रीव के पक्ष वाले वानर अब शीघ्र ही नगर में प्रवेश करेंगे। उनमें से कई ऐसे हैं, जिन्हें पहले हम लोगों ने ही राज्य से वंचित किया था और उनमें से कुछ अपनी स्त्रियों से भी बिछड़े हुए हैं। अतः अब हमें उनसे बहुत भय हो रहा है।”
यह सुनकर तारा ने उनसे कहा, “वानरों! पति के बिना मुझे अपने पुत्र से, इस राज्य से या जीवन से भी अब कोई मोह नहीं है। अतः मैं तो अपने पति के पास ही जाऊँगी।”
ऐसा कहकर शोक से व्याकुल तारा रोती हुई और अपने दोनों हाथों से सिर और छाती को पीटती हुई बड़े तेजी से वाली की ओर बढ़ी। थोड़ा निकट पहुँचने पर उसने देखा कि युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाला मेरा पराक्रमी पति भूमि पर पड़ा हुआ है। रणभूमि में जिसकी तीव्र गर्जना से शत्रु काँप उठता था, वह वीर आज अपने ही भाई के कारण छल से इस प्रकार मारा गया। थोड़ा और आगे बढ़ने पर उसने देखा कि अपने धनुष को धरती पर टिकाकर उसके सहारे श्रीराम खड़े हैं सुग्रीव भी उनके साथ ही हैं।
उन सबको पार करके वह रणभूमि में घायल पड़े अपने पति के पास पहुँची और उसे देखकर व्यथित हो गई। ‘हा आर्यपुत्र!’ कहकर वह विलाप करने लगी। तारा और उसके साथ खड़े अंगद की यह दशा देखकर सुग्रीव को बड़ा कष्ट हुआ और वह भी विषाद में डूब गया।
विलाप करती हुई तारा बोली, “हे कपिश्रेष्ठ! उठिये। मुझे सामने देखकर भी आज आप कुछ बोलते क्यों नहीं? आपको इस अवस्था में देखकर मैं शोक में डूबी जा रही हूँ। आज मुझे छोड़कर आप इस वसुधा का आलिंगन क्यों कर रहे हैं? क्या आपको स्वर्गलोक अब किष्किन्धा से अधिक प्रिय हो गया है, इसलिए आप मुझे छोड़कर स्वर्ग की अप्सराओं के पास जा रहे हैं?”
“वानरेन्द्र! मैं आपका हित चाहती थी, पर आपने मेरी बात नहीं मानी और उल्टे मेरी ही निंदा की। आपने सुग्रीव की स्त्री को छीन लिया और सुग्रीव को घर से निकाल दिया। आपको उसी का यह फल प्राप्त हुआ है। श्रीराम ने इस प्रकार छल से आपको मारकर अत्यंत निन्दित कर्म किया है।”
“नाथ! अपने इस सुकुमार पुत्र अंगद को तो देखिये! आपने इसका इतना लाड़-दुलार किया था। अब क्रोध से ग्रस्त चाचा के वश में पड़कर इसकी क्या दशा होगी? आप अपने पुत्र को कुछ तो धैर्य बँधाइये और मुझसे भी तो कुछ कहिए। मैं इस प्रकार शोक और विलाप कर रही हूँ, फिर भी आज आप कुछ कहते क्यों नहीं। देखिये, आपकी अनेक सुन्दरी भार्याएँ भी यहाँ खड़ी हैं।”
ऐसा कहते-कहते तारा ने अब वाली के पास ही बैठकर आमरण अनशन का निश्चय कर लिया। अन्य वानर स्त्रियाँ भी दुःख से व्याकुल होकर क्रन्दन करने लगीं।
तारा का यह शोक देखकर हनुमान जी उसे समझाने के लिए आगे बढ़े। उन्होंने कहा, “देवी! तुम तो स्वयं बुद्धिमान हो। फिर पानी के बुलबुले जैसे इस अस्थिर जीवन के लिए क्यों शोक करती हो? तुम तो जानती हो कि जन्म और मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है। अतः प्राणी को सदा शुभ कर्म ही करना चाहिए। जीव अपनी गुणबुद्धि से अथवा दोषबुद्धि से जो भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उन सबका फल उसे अवश्य भोगना ही पड़ता है। वानरराज वाली आज अपनी आयु पूर्ण कर चुके हैं। उन्होंने सदा नीतिशास्त्र के अनुसार ही अपने राज्य का संचालन किया है। निश्चित ही वे धर्मानुसार उच्च लोक में जाएँगे। अतः तुम उनके लिए शोक न करो।”
“भामिनि! अब तुम ही इस राज्य की स्वामिनी हो। सुग्रीव और अंगद दोनों इस समय शोकाकुल हैं। तुम इन्हें उचित मार्ग दिखाओ। वानरराज की अंत्येष्टि और राजकुमार अंगद का राज्याभिषेक किया जाए। अपने पुत्र को सिंहासन पर देखकर तुम्हें भी संतोष मिलेगा।”
हनुमान जी की ये बातें सुनकर तारा बोली, “अंगद जैसे सौ पुत्रों से भी मुझे अपना पति अधिक प्रिय है। पति के साथ अपने प्राण दे देना ही मेरे लिए उचित कार्य है। मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए।”
यह सब कोलाहल सुनकर वाली ने धीरे से आँखें खोलीं। उसकी साँसों की गति धीमी हो गई थी और वह धीरे-धीरे ऊर्ध्व साँस लेता हुआ चारों ओर देखने लगा।
सबसे पहले उसने सुग्रीव को देखकर कहा, “सुग्रीव! निश्चित ही पूर्वजन्म के किसी पाप ने मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया था और मैं तुम्हें अपना शत्रु समझने लगा था। मेरे अपराधों को तुम भूल जाना। साथ रहकर सुख भोगना हम दोनों भाइयों के भाग्य में नहीं था, इसी कारण हम दोनों में प्रेम न होकर वैर उत्पन्न हो गया। भाई! इसी क्षण से तुम वानरों का यह राज्य स्वीकार करो क्योंकि अब मेरा यमराज के घर जाने का समय आ गया है।”
“मेरी एक बात को मानना तुम्हारे लिए कठिन होगा, किन्तु फिर भी तुम इसे अवश्य करना। देखो, मेरा पुत्र अंगद भूमि पर पड़ा है। उसका मुँह आँसुओं से भीग गया है। यह सदा सुख में पला है और मेरे लिए यह प्राणों से भी बढ़कर है। मेरे न रहने पर तुम ही इसे सगे पुत्र की भाँति मानना। इसके सुख-सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखना। यह बड़ा पराक्रमी भी है। राक्षसों से युद्ध में यह सदा तुम्हारे आगे चलेगा।”
“सुषेण की पुत्री यह तारा सूक्ष्म निर्णय करने व विभिन्न प्रकार के संकटों के लक्षण समझने में बड़ी निपुण है। यह जिस कार्य को अच्छा बताए, उसे निःसंदेह करना। उसके परामर्श का परिणाम सदा अच्छा ही होता है। श्रीराम का काम भी तुम अवश्य करना, अन्यथा अपमानित होने पर वे तुम्हें मार ही डालेंगे।”
फिर अंगद की ओर देखकर उसने स्नेहपूर्वक कहा, “बेटा अंगद! तुम देश-काल-परिस्थिति को समझना और उसी के अनुसार आचरण करना। सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय जो भी मिले, उसे सहन करना।”
“पुत्र! मेरा विशेष प्यार-दुलार पाकर तुम जिस प्रकार रहते आए हो, आगे भी वैसा आचरण करोगे तो सुग्रीव तुम्हें पसंद नहीं करेंगे। तुम उनके शत्रुओं का कभी साथ न देना। जो इनके मित्र नहीं हैं, उनसे भी कभी मत मिलना। अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर सदा सुग्रीव के कार्य पर ध्यान देना और उन्हीं की आज्ञा के अधीन रहना। किसी के साथ अत्यंत प्रेम न करो और प्रेम का सर्वथा अभाव भी न होने दो क्योंकि ये दोनों ही भीषण दोष हैं। अतः तुम सदा मध्यम स्थिति का ही पालन करना।”
ऐसा कहते-कहते ही घायल वाली की आँखें घूमने लगीं, उसके दाँत खुल गए और अगले ही क्षण वानरराज के प्राण-पखेरू उड़ गए। यह देखकर सारे वानर जोर-जोर से विलाप करने लगे।
वाली की पत्नी तारा भी कटे हुए वृक्ष से लिपटी लता की भाँति अपने पति का आलिंगन करके भूमि पर गिर पड़ी और अपने पति को पुकारती हुई जोर-जोर से रोने लगी।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)