Home विषयसामाजिक वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 71
क्रोधित लक्ष्मण धनुष-बाण लेकर किष्किन्धा की ओर बढ़े। किष्किन्धा के बाहर अनेक भयंकर वानर विचर रहे थे, जिनके शरीर हाथियों के समान विशाल थे। लक्ष्मण को देखते ही उन्होंने अनेक शिलाएँ और बड़े-बड़े वृक्ष अपने हाथों में उठा लिए।
उन सबको हथियार उठाते देख लक्ष्मण का क्रोध और भी बढ़ गया। यह देखकर वानर भय से काँप उठे और चारों ओर भागने लगे। उनमें से कुछ वानर भागकर सुग्रीव के महल में पहुँचे और उन्होंने लक्ष्मण के आगमन व क्रोध की सूचना सुग्रीव को दी।
कामासक्त सुग्रीव उस समय तारा के साथ मग्न था, अतः उसने उन वानरों की बात पर ध्यान नहीं दिया। तब सुग्रीव के सचिव की आज्ञा से वे वानर बहुत डरते-डरते पुनः लक्ष्मण के पास गए।
लक्ष्मण की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। उन्होंने अंगद को आदेश दिया, “बेटा! तुम जाकर सुग्रीव से कह दो कि ‘श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण अपने भाई के दुःख से दुःखी होकर आपके पास आए हैं और नगर के द्वार पर खड़े हैं। आपकी इच्छा हो, तो उनकी आज्ञा का पालन कीजिए।’ केवल इतना कहकर तुम शीघ्र मेरे पास लौट आना।”
यह सुनकर अंगद के मन में बड़ी घबराहट हुई। उसने तुरंत जाकर सुग्रीव, तारा व रुमा को प्रणाम करके उन्हें बताया कि ‘सुमित्रानन्दन लक्ष्मण यहाँ पधारे हैं।’
मदमत्त (नशे में धुत्त) होने के कारण सुग्रीव को अंगद की बात सुनाई नहीं पड़ी। तब तक लक्ष्मण ने नगर में प्रवेश कर लिया था। उन्हें महल की ओर आता देख अनेक वानर एक साथ किलकिलाने लगे। उन वानरों को आशा थी कि इससे लक्ष्मण प्रसन्न होंगे और सुग्रीव की नींद भी टूटेगी। वानरों की इस गर्जना से सुग्रीव की नींद तो खुल गई, किन्तु नशे के कारण उसकी आँखें लाल थीं और मन भी संतुलित नहीं था।
सुग्रीव के दो मंत्रियों प्लक्ष और प्रभाव उसे धर्म व अर्थ के विषय में उपयुक्त परामर्श देने के लिए नियुक्त थे। उन्होंने उसे समझाया कि ‘राम-लक्ष्मण के कारण ही आपको राज्य प्राप्त हुआ है। वे दोनों भाई तीनों लोकों को जीतने में समर्थ हैं, अतः उनसे वैर करना उचित नहीं है।’
यह सुनकर सुग्रीव अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और आश्चर्यचकित होकर बोला, “मैंने न तो श्रीराम को कभी कोई अनुचित बात बात कही और न ही उनके प्रति कोई बुरा व्यवहार किया। फिर उनके भाई लक्ष्मण मुझ पर क्यों क्रोधित हैं, इसे मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। अवश्य ही मुझसे ईर्ष्या रखने वाले शत्रुओं ने उनके कान भरे हैं।”
“किसी को मित्र बना लेना तो सरल है, किन्तु मित्रता बनाए रखना बड़ा कठिन है। कोई थोड़ी-सी भी चुगली कर दे, तो मित्रता में दूरी आ सकती है। इस कारण मैं बहुत डर गया हूँ। अतः तुम लोग पहले अपनी कुशलता से यह पता लगाओ कि लक्ष्मण के क्रोध का कारण क्या है।”
तब बुद्धिमान हनुमान जी ने सुग्रीव को समझाते हुए कहा, “कपिराज! श्रीराम ने लोकनिंदा की चिंता किए बिना आपको प्रसन्न करने के लिए पराक्रमी वाली का वध कर दिया था, किन्तु आपने सीता की खोज आरंभ करने के लिए जो समय निश्चित किया था, उसे आप अपने प्रमाद के कारण भूल गए हैं। वर्षा ऋतु कब की बीत चुकी है, फिर भी आपने सीता की खोज आरंभ नहीं करवाई है। इसी कारण लक्ष्मण यहाँ आए हैं।”
“आपने श्रीराम के प्रति अपराध किया है, अतः हाथ जोड़कर लक्ष्मण से क्षमा माँग लेना ही आपके लिए उचित है। श्रीराम यदि क्रोधित होकर धनुष हाथ में उठा लें, तो संपूर्ण जगत को जीत सकते हैं। उन्हें क्रोध दिलाना आपके लिए उचित नहीं है। राज्य की भलाई के लिए मंत्री को सदा राजा के हित की ही बात कहनी चाहिए। इसी कारण मैं भय छोड़कर आपको यह परामर्श दे रहा हूँ।”
इधर महल के मार्ग पर बढ़ते हुए लक्ष्मण ने देखा कि किष्किन्धा नगरी एक बहुत बड़ी रमणीय गुफा में बसी हुई थी। अनेक प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी उस नगरी में सुन्दर वस्त्र और मालाएँ धारण करने वाले अनेक वानर निवास करते थे। वे सब देवताओं तथा गन्धर्वों के पुत्र थे।
चन्दन, अगर और कमल की मनोहर सुगन्ध उस नगरी में फैली हुई थी। उसकी लंबी-चौड़ी सड़कें मैरेय और मधु के आमोद से महक रही थीं। किष्किन्धा में कई मंजिलों वाले अनेक ऊँचे-ऊँचे महल थे। राजमार्ग पर ही अंगद का रमणीय भवन था। उसके पास ही हनुमान, नल, नील, सुषेण, तार, जाम्बवान आदि श्रेष्ठ वानरों के भवन भी थे।
वानरराज सुग्रीव का महल अत्यंत रमणीय दिखाई देता था। उसमें प्रवेश करना अत्यंत कठिन था। वह सफेद चारदीवारी से घिरा हुआ था। अनेक बलवान वानर उसकी ड्योढ़ी पर पहरा देते थे। उसका बाहरी फाटक पक्के सोने का बना हुआ था। उसके परिसर में फल-फूलों के अनेक मनोरम वृक्ष लगे हुए थे। उस भवन की सात ड्योढ़ियों को पार करके लक्ष्मण अत्यंत गुप्त एवं विशाल अन्तःपुर में जा पहुँचे। उन्हें रोकने का साहस किसी में नहीं था।
अन्तःपुर में प्रवेश करते ही लक्ष्मण को अत्यंत मधुर वीणा की ध्वनि सुनाई दी। वीणा की उस मधुर धुन पर कोमल स्वर में कोई गा रहा था। वहाँ उन्हें अनेक युवती स्त्रियाँ भी दिखाई दीं। वे फूलों के गजरों व सुन्दर आभूषणों से विभूषित थीं और पुष्पहार बनाने में व्यस्त थीं। उनकी नूपुरों की झनकार और करधनी की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।
पराई स्त्रियों को देखते ही लक्ष्मण ने अपने सज्जन स्वभाव के अनुसार तुरंत आँखें नीचे झुका लीं। वे थोड़ा पीछे हटकर एकांत में खड़े हो गए। महल की रौनक व चहल-पहल देखकर वे समझ गए कि श्रीराम के कार्य को पूर्ण करने के लिए सुग्रीव ने कोई प्रयास नहीं किया है। इससे उनका क्रोध और बढ़ गया तथा उन्होंने अपने धनुष पर भीषण टंकार दी, जिसकी ध्वनि से चारों दिशाएँ गूँज उठीं।
उस ध्वनि को सुनकर सुग्रीव भी समझ गया कि लक्ष्मण वहाँ आ पहुँचे हैं। भय से उसका मन घबरा उठा। तब उसने परम सुन्दरी तारा से कहा, “सुन्दरी! पता नहीं लक्ष्मण के रोष का कारण क्या है। तुम ही जाकर देखो और मधुर वचनों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करो। तुम्हारे सामने वे क्रोध नहीं करेंगे क्योंकि सज्जन पुरुष कभी स्त्रियों के प्रति कठोर व्यवहार नहीं करते हैं। जब तुम अपनी मीठी बातों से उनका क्रोध को शांत कर दोगी, तब मैं सामने आकर उनसे मिलूँगा।”
यह सुनकर तारा लक्ष्मण से मिलने गई। मद्यपान के कारण उसके नेत्र भी चंचल हो रहे थे और पैर लड़खड़ा रहे थे। उसकी स्त्रीसुलभ लज्जा भी नष्ट हो गई थी। निःसंकोच होकर तारा ने लक्ष्मण से पूछा, “राजकुमार! आपके क्रोध का कारण क्या है? किसने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है?”
तारा को देखते ही लक्ष्मण ने अपनी दृष्टि झुका ली। स्त्री के सामने क्रोध करना भी उन्होंने उचित नहीं समझा। लक्ष्मण ने तारा से कहा, “तुम्हारा पति विषय-भोग में आसक्त होकर अपने कर्तव्य को भूल गया है। तुम उसे समझाती क्यों नहीं? श्रीराम का कार्य आरंभ करने के लिए सुग्रीव ने चार मास की अवधि निश्चित की थी। वह कब की बीत गई, किन्तु मद्यपान से उन्मत्त रहकर वह स्त्रियों के साथ भोग-विलास में ही लगा हुआ है। उसे अपने कर्तव्य और वचन का कोई ध्यान ही नहीं है।”
“मित्र दो प्रकार के होते हैं – एक जो अपने मित्र के अर्थसाधन में लगा रहता है और दूसरा जो सत्य व धर्म का पालन करता है। तुम्हारे पति ने मित्रता के इन दोनों गुणों को त्याग दिया है। ऐसे में हम लोगों को क्या करना चाहिए?”
यह सुनकर तारा बोली, “राजकुमार! अपने आत्मीय जनों पर क्रोध नहीं करना चाहिए। उनसे कोई भूल भी हो जाए, तो क्षमा कर देना चाहिए। यह सत्य है कि सुग्रीव इन दिनों कामासक्त हो गए हैं और उनका मन किसी और बात में नहीं लगता है। लेकिन काम की शक्ति ही ऐसी है कि कामासक्त मनुष्य देश, काल, धर्म, अर्थ सबको भूल जाता है। बड़े-बड़े तपस्वी भी इसके मोह में फँसकर स्वयं को रोक नहीं पाते हैं, फिर चंचल स्वभाव वाले राजा सुग्रीव सुख-भोग में आसक्त क्यों न हों? आप उन्हें अपना भाई समझकर क्षमा कर दीजिए।”
“अपनी कामासक्ति में सब-कुछ भूल जाने के बाद भी सुग्रीव ने श्रीराम के कार्य को नहीं भुलाया है। उनके मन में सदा उसी कार्य का विचार बना रहता है। बहुत पहले ही उन्होंने इस कार्य को आरंभ करने की आज्ञा दे दी है। दूर-दूर के विभिन्न पर्वतों पर निवास करने वाले व अपनी इच्छा से कोई भी रूप धारण कर सकने वाले करोड़ों महापराक्रमी वानर सुग्रीव की आज्ञा से ही यहाँ उपस्थित हो रहे हैं। अतः आप क्रोध त्यागकर भीतर आइये।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने भीतर प्रवेश किया। वहाँ एक सोने के सिंहासन पर बिछे बहुमूल्य बिछौने पर उन्हें सुग्रीव दिखाई दिया। उसने रूमा को अपने आलिंगन में जकड़ा हुआ था और अनेक युवती स्त्रियाँ उसे घेरकर खड़ी थीं।
यह देखकर लक्ष्मण को भयंकर क्रोध आया। उन्हें इस प्रकार सहसा अपने सामने देखकर सुग्रीव भी भय से काँपने लगा। वह अपने आसन से कूदकर लक्ष्मण के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
क्रोध से भरे लक्ष्मण ने सुग्रीव से कहा, “वानरराज! धैर्यवान, कुलीन, जितेन्द्रिय, दयालु और सत्यवादी राजा ही संसार में आदर पाता है। तुम अनार्य, कृतघ्न और मिथ्यावादी हो क्योंकि श्रीराम की सहायता से तुमने अपना काम तो बना लिया, किन्तु उसके बाद तुमने उनकी सहायता के समय मुँह मोड़ लिया। जो अपने उपकारी मित्रों के सामने की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाता है, ऐसे पापी एवं कृतघ्न राजा का वध करने में कोई अधर्म नहीं है।”
“वानर! तुम यह न भूलो कि वाली को श्रीराम ने मृत्यु के जिस मार्ग पर भेजा था, वह अभी बंद नहीं हुआ है। अवश्य ही तुम उनके धनुष की शक्ति को भूल गए हो। यदि तुम्हें अपने प्राण प्यारे हैं, तो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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