Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 72
क्रोधित लक्ष्मण की बातें सुनकर चन्द्रमुखी तारा ने उनसे कहा, “कुमार लक्ष्मण! सुग्रीव वानरों के राजा हैं। आपको उनसे इस प्रकार बात नहीं करनी चाहिए। जीवन में बहुत कष्ट उठाने के बाद सुग्रीव को अब सुख प्राप्त हुआ है। इसी कारण वे सब-कुछ भूलकर इसी में मग्न हो गए थे। फिर भी श्रीराम के उपकार को उन्होंने कभी नहीं भुलाया है। आप तो बुद्धिमान हैं। आपको इस प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिए। आप दोनों भाइयों को सुग्रीव के अपराध को क्षमा कर देना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुग्रीव श्रीराम का कार्य अवश्य ही पूरा करेंगे।”
“वानरराज वाली ने मुझे बताया था कि लंका में कई हजार करोड़ राक्षस रहते हैं। उनसे युद्ध करने के लिए सुग्रीव ने भी असंख्य वानर वीरों की सेनाओं को दूर-दूर से बुलवाया है। वे सब वानर आज ही यहाँ पहुँचने वाले हैं। उनके आते ही सुग्रीव श्रीराम का कार्य आरंभ कर देंगे।”
यह सुनकर लक्ष्मण का क्रोध शांत हुआ। तब सुग्रीव ने भी विनम्रतापूर्वक कहा, “राजकुमार! श्रीराम के उपकार को मैं कभी नहीं भूल सकता। उनका पराक्रम अद्भुत है। वे अवश्य ही रावण का वध करके सीता को पुनः प्राप्त करेंगे और इसमें मैं उनका तुच्छ सहायक बनूँगा। मुझसे यदि कोई अपराध हुआ है, तो आप दोनों भाई उसे क्षमा कर दीजिए।”
तब लक्ष्मण ने कहा, “वानरराज सुग्रीव! तुम्हारे मित्र श्रीराम अभी पत्नी के वियोग से दुःखी हैं। अतः तुम मेरे साथ चलकर उन्हें सांत्वना दो। क्रोध में मैंने जो कठोर बातें तुमसे कह दी थीं, उनके लिए तुम भी मुझे क्षमा करो।”
यह सुनकर सुग्रीव ने हनुमान जी से कहा, “महेन्द्र, हिमवान, विन्ध्य, कैलास, मन्दराचल, उदयाचल, अस्ताचल, पद्माचल, अंजन पर्वत, मेरुपर्वत, धूम्रगिरि, महारुण पर्वत आदि सभी पर्वतों पर जो श्रेष्ठ वानर निवास करते हैं, समुद्र के उस पार जो वानर रहते हैं, बड़े-बड़े रमणीय वनों में जो वानर हैं, तुम उन सब श्रेष्ठ वानरों को यहाँ बुलवाओ। उन्हें बुलवाने के लिए जो वानर पहले भेजे गए थे, उनसे भी अधिक शक्तिशाली तथा वेगवान वानरों को भेजकर साम, दान आदि उपायों से पूरे भूमण्डल के समस्त श्रेष्ठ वानरों को शीघ्र यहाँ लाओ। जो वानर दस दिनों के भीतर यहाँ न आएँ, उन सबको मृत्यु-दण्ड दिया जाए।”
यह सुनकर हनुमान जी ने अनेक पराक्रमी वानरों को चारों दिशाओं में भेजा। सुग्रीव का आदेश मिलते ही वे सब वानर भय से काँप उठे और शीघ्र ही किष्किन्धा आ पहुँचे। सुग्रीव ने जिन वानरों को भेजा था, वे सब ओर से लौटते समय वहाँ की विशेष औषधियाँ, पुष्प, फल-मूल आदि भी सुग्रीव को अर्पित करने के लिए अपने साथ ले आए। उन सबको देखकर व उनसे उपहार पाकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सबसे बातचीत करके सुग्रीव ने उन्हें विदा कर दिया।
इसके बाद सुग्रीव ने अपने सेवक वानरों को आज्ञा दी, “वानरों! तुम लोग शीघ्र ही मेरी पालकी यहाँ ले आओ।”
पालकी आने पर लक्ष्मण और सुग्रीव दोनों उस पर आरूढ़ हुए। उस समय सुग्रीव के ऊपर एक श्वेत छत्र लगाया गया था। शंख और भेरी की ध्वनि की साथ लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए सुग्रीव और लक्ष्मण किष्किन्धा से बाहर निकले व श्रीराम के निवास-स्थान पर गए। श्रीराम के सामने जाते ही सुग्रीव ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।
तब प्रसन्न होकर श्रीराम ने उन्हें गले से लगाया और उनका स्वागत किया। फिर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “वानरशिरोमणि! जो उचित समय पर धर्म, अर्थ और काम का आनंद लेता है, वही श्रेष्ठ राजा है। जो धर्म और अर्थ को त्यागकर केवल भोग-विलास में ही रमा रहता है, वह वृक्ष की शाखा पर सोये हुए मनुष्य के समान है। नीचे गिरने पर ही उसकी आँख खुलती है। मित्र! अब हम लोगों के लिए कार्य करने का समय आ गया है। तुम अब अपने मंत्रियों के साथ इस बारे में विचार करो।”
यह सुनकर सुग्रीव ने विनम्रता से कहा, “श्रीराम! आपकी कृपा से ही मुझे यह राज्य और यह सुख प्राप्त हुआ है। मैं आपके इस उपकार को कभी नहीं भूल सकता। सैकड़ों बलवान रीछ, वानर व लंगूर चारों दिशाओं से यहाँ आ गए हैं। वे सब बड़े भयंकर हैं और बीहड़ वनों तथा दुर्गम स्थानों के जानकार हैं। जो देवताओं व गन्धर्वों के पुत्र हैं, वे अपनी इच्छा से रूप धारण करने में समर्थ हैं। बहुत-से अन्य श्रेष्ठ वानर भी हैं, जो अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर किष्किन्धा की ओर प्रयाण कर चुके हैं। शीघ्र ही वे भी यहाँ आ जाएँगे। रावण की राक्षस-सेना से युद्ध करने के लिए वे सब आपके साथ चलेंगे।”
यह सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए।
श्रीराम और सुग्रीव के बीच ऐसी बातचीत चल ही रही थी कि तभी आकाश में चारों ओर धूल के बादल दिखने लगे और वानरों की गर्जना से वन-कानन, पर्वत सब गूँज उठे। चारों दिशाओं से लाखों की संख्या में वानरों की सेनाएँ एक-एक कर वहाँ पहुँचने लगीं और किष्किन्धा के आस-पास की सारी भूमि उन वानरों से भर गई।
उन सब वानरों से मिलकर सुग्रीव ने पुनः श्रीराम के पास लौटकर कहा, “रघुनन्दन! वानर-सेना अब आपका कार्य करने के लिए यहाँ उपस्थित है। अब आपकी जैसी आज्ञा हो, उसी के अनुसार हम सब लोग कार्य करेंगे।”
तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “सौम्य! पहले यह तो पता लगाओ कि सीता जीवित है या नहीं। जिस देश में रावण निवास करता है, वह कहाँ है? जब सीता के जीवित होना का और रावण के निवास-स्थान का निश्चित पता मिल जाएगा, तब तुम्हारे साथ मिलकर मैं आगे का निर्णय लूँगा।”
यह सुनकर सुग्रीव ने तुरंत ही विनत नामक वानर सेनापति को बुलाया और उसे आदेश दिया, “तुम एक लाख वेगवान वानरों के साथ सीता व रावण के निवास की खोज में पूर्व की दिशा की ओर जाओ। गंगा, सरयू, कौशिकी, यमुना, सरस्वती, सिंधु, शोणभद्र, कालमही आदि नदियों के किनारे तुम उन्हें ढूँढो। ब्रह्माल, विदेह, मालव, काशी, कोसल, मगध, पुण्ड्र तथा अंग आदि राज्यों व जनपदों में छानबीन करो। रेशम के कीड़ों की उत्पत्ति के स्थानों व चाँदी की खानों में भी ढूँढो। मंदराचल की चोटी पर जो गाँव बसे हैं, उनमें भी देखो। समुद्र के भीतर स्थित पर्वतों पर व उनके बीच बने द्वीपों के विभिन्न नगरों में भी ढूंढो।”
“तुम लोग तैरकर या नाव से समुद्र को पार करके सात राज्यों वाले यवद्वीप (जावा), सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) आदि में भी ढूँढने का प्रयास करो। यवद्वीप के आगे जाने पर शिशिर नामक पर्वत मिलेगा, जहाँ देवता और दानव निवास करते हैं। ऐसे सभी पर्वतों में तुम देखना। फिर समुद्र के उस पार जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं, वहाँ तुम लाल जल से भरी और तीव्र वेग वाली शोण नदी के तट पर पहुँचोगे। उसके तट पर बने तीर्थों और वनों में भी सीता की खोज करना।”
“उसके आगे तुम एक महाभयंकर समुद्र तथा उसके द्वीपों को देखोगे। इक्षुरस का वह समुद्र काले मेघ के समान काला दिखाई देता है। उसमें बड़ी भारी गर्जना सुनाई देती है। उस महासागर को पार करने पर तुम लोहित नामक भयंकर सागर के तट पर पहुँचोगे और वहाँ तुम्हें शाल्मलिद्वीप (ऑस्ट्रेलिया/न्यूज़ीलैंड?) दिखाई देगा। उस द्वीप में भयंकर शरीर वाले मंदेह नामक राक्षस निवास करते हैं, जो चट्टानों पर उलटे लटके रहते हैं। दिन में सूर्य की गर्मी बढ़ने पर वे समुद्र के जल में गिर पड़ते हैं, पर रात में पुनः उन्हीं चट्टानों पर लटक जाते हैं। उनका यह क्रम निरंतर चलता रहता है।”
“शाल्मलिद्वीप से आगे बढ़ने पर तुम्हें ऊँची-ऊँची लहरों वाला क्षीरसागर (प्रशांत महासागर?) दिखाई देगा। उसके बीच में ऋषभ नामक एक ऊँचा पर्वत है। क्षीरसागर को पार करके जब तुम आगे बढ़ोगे, तो एक और समुद्र मिलेगा, जिसमें एक भीषण ज्वालामुखी विद्यमान है। उसके उत्तर में तेरह योजन की दूरी पर एक बहुत ऊँचा पर्वत है। उसके शिखर पर तुम्हें भगवान अनंत बैठे दिखाई देंगे। उस पर्वत के ऊपर उनकी स्वर्णमयी ध्वजा दिखती है, जिसकी तीन शिखाएँ हैं और उसके नीचे वेदी बनी हुई है (दक्षिण अमरीका में पेरू का पराकास (Paracas) त्रिशूल?)। यहीं पूर्व दिशा की सीमा समाप्त होती है।”
“उसके आगे उदय पर्वत (एंडीज पर्वत?) है, जो सौ योजन लंबा है। उसका सौमनस नामक शिखर है, जिसकी ऊँचाई दस योजन और चौड़ाई एक योजन है। पूर्वकाल में वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने अपना पहला चरण उसी सौमनस शिखर पर तथा दूसरा मेरुपर्वत के शिखर पर रखा था। तुम्हें वहाँ भी चारों ओर सीता का पता लगाना चाहिए।”
“वानरों! तुम केवल उदयगिरि तक ही जा सकोगे क्योंकि उसके आगे न तो सूर्य का प्रकाश है, न राज्यों की कोई सीमा है। अतः उसके आगे की भूमि के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है। तुम लोग वहाँ तक जाकर सीता और रावण के स्थान का पता लगाना और एक मास पूरा होने से पहले लौट आना।”
ऐसा कहकर सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए उन वानरों को पूर्व दिशा की ओर भेजा। इसके बाद उसने दक्षिण दिशा की ओर जाने के लिए कुछ श्रेष्ठ वानरों को चुना।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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