Home विषयसाहित्य लेखप्रेरणादायक वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड भाग 76
समुद्र पार करने हेतु सौ योजन की छलांग लगाने के लिए हनुमान जी महेन्द्र पर्वत के ऊँचे शिखर पर चढ़ गए। उनके विशाल आकार के कारण वह पर्वत उनके चरणों से दबकर कुचला जाने लगा। उसकी शिलाएँ इधर-उधर बिखरने लगीं व उनके बीच से नए झरने फूटने लगे। बड़े-बड़े सर्प घबराकर अपने बिलों में छिप गए, वृक्ष झोंके खाकर हिलने लगे, पशु-पक्षी भयभीत हो गए तथा वहाँ रहने वाले ऋषि-मुनि भी घबराकर उस पर्वत से भागने लगे। लेकिन हनुमान जी ने किसी पर ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान केवल अपना लक्ष्य पूरा करने की योजना में लगा हुआ था। अपने मन को एकाग्र करके वे केवल लंका के बारे में ही सोच रहे थे।
श्रीराम के कार्य को पूर्ण करने का निश्चय करके हनुमान जी ने बड़े वेग से ऊपर की ओर छलाँग मारी। उस झटके से पूरा पर्वत हिल गया और उसके वृक्ष उखड़कर हवा में इधर-उधर बिखर गए।
विशालकाय हनुमान जी का शरीर समुद्र से ऊपर था और उनकी परछाई जल में डूबी हुई दिखाई दे रही थी। समुद्र के जिस भाग की ओर वे बढ़ते थे, वहाँ ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगती थीं। उनके वेग से समुद्र का जल बहुत ऊपर तक उठने लगा। इसके कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, मछलियाँ, कछुए भी साफ-साफ दिखाई देने लगे। आकाश में जाते हनुमान जी गरुड़ के समान दिखाई दे रहे थे। उनकी छाया दस योजन चौड़ी और तीस योजन लंबी थी। वे बार-बार बादलों में घुसते और निकलते जा रहे थे।
समुद्र में स्थित मैनाक पर्वत उन्हें देखकर ऊपर उठने लगा। तब हनुमान जी ने सोचा कि ‘मेरे मार्ग में यह विघ्न खड़ा हो रहा है।’
अतः उन्होंने एक धक्के से उस पर्वत के शिखर को नीचे गिरा दिया। तब उस पर्वत ने ही मनुष्य रूप में उनसे हाथ जोड़कर कहा, “पवनपुत्र! मुझे समुद्र ने ही आपकी सेवा के लिए नियुक्त किया है। आप कुछ देर तक मेरे शिखर पर विश्राम कर लीजिए, फिर आगे बढ़ियेगा।”
तब हनुमान जी बोले, “मैनाक! मुझे तुमसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई, किन्तु मैंने मार्ग में कहीं न ठहरने का संकल्प लिया है। यह दिन बीता जा रहा है तथा मुझे अपना महत्वपूर्ण कार्य शीघ्र पूरा करना है। अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता।”
ऐसा कहकर उन्होंने उस पर्वत को हाथों से स्पर्श किया और पुनः आकाश की ओर बढ़ने लगे। पर्वत और समुद्र दोनों ने बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया।
थोड़ा आगे बढ़ते ही मार्ग में विकराल सुरसा राक्षसी से उनका सामना हुआ। उसका रूप बड़ा विकट, बेडौल और भयावह था। वह हनुमान जी से बोली, “अब तुम मेरा भक्ष्य बनोगे। मेरे मुँह में चले आओ।”
तब हनुमान जी ने कहा, “देवी! दुष्ट रावण ने दशरथ के पुत्र श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर लिया है। मैं श्रीराम का दूत बनकर सीता के पास जा रहा हूँ। मुझे यह कार्य पूर्ण कर लेने दो, फिर मैं स्वयं तुम्हारे मुँह में चला आऊँगा।”
यह सुनकर सुरसा बोली, “मुझे ब्रह्माजी से यह वरदान मिला है कि कोई मुझे लाँघकर आगे नहीं जा सकता। अतः तुम्हें मेरे मुँह में प्रवेश करना ही पड़ेगा।”
यह सुनकर हनुमान जी कुपित हो गए। उन्होंने सुरसा से कहा, “ठीक है, तुम अपना मुँह इतना बड़ा बना लो, जिसमें मैं समा सकूँ।”
तब सुरसा ने अपना मुँह दस योजन विस्तृत बना लिया। हनुमान जी ने भी अपना आकार उतना ही और बड़ा कर लिया। फिर उसने अपना मुँह बीस योजन बढ़ाया, तो हनुमान जी ने अपने शरीर को तीस योजना का बना लिया। इस प्रकार चालीस, पचास करते-करते सुरसा के मुख का विस्तार सौ योजन का हो गया।
तब बुद्धिमान हनुमान जी ने तुरंत ही अपने शरीर को संकुचित कर लिया और वे अँगूठे के बराबर छोटे हो गए। फिर सुरसा के मुँह में प्रवेश करके अगले ही क्षण वे बाहर भी निकल आए।
उन्होंने सुरसा से कहा, “दक्षकुमारी! मैंने तुम्हारे मुँह में प्रवेश करके वरदान को सत्य कर दिया। अब मुझे आगे बढ़ने का मार्ग दो।”
यह सुनकर राक्षसी सुरसा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुई। उसने हनुमान जी से कहा, “कपिश्रेष्ठ! मुझे देवताओं ने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए भेजा था। अब तुम निश्चिन्त होकर आगे बढ़ो व श्रीराम के कार्य को सिद्ध करो।”
अब पुनः एक बार हनुमान जी बादलों के बीच आकाश-मार्ग से आगे बढ़ने लगे।
तब इच्छानुसार रूप धारण कर सकने वाली सिंहिका राक्षसी की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्हें देखकर वह सोचने लगी, “आज बहुत समय के बाद ऐसा विशालकाय जीव मेरे वश में आया है। इसे खाने के बाद कई दिनों के लिए मेरी भूख मिट जाएगी।”
ऐसा सोचते हुए उसने हनुमान जी की छाया पकड़ ली।
तब हनुमान जी ने सोचा, “अहो! सहसा किसने मुझे पकड़ लिया। मेरा पराक्रम क्षीण हो रहा है।”
यह सोचते हुए उन्होंने अगल-बगल में और ऊपर-नीचे दृष्टि डाली। तभी उन्हें समुद्र के ऊपर उठा हुआ एक विशालकाय जीव दिखाई दिया। उस विकराल मुख वाली राक्षसी को देखकर उन्होंने सोचा, “वानरराज सुग्रीव ने जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीव की चर्चा की थी, निःसंदेह यह वही है।”
यह सोचकर उन्होंने अपने शरीर को बढ़ाना आरंभ किया। उनका आकार बढ़ता देख सिंहिका ने भी अपना मुँह और फैला लिया। मेघों की घटा के समान गर्जना करती हुई वह हनुमान जी की ओर दौड़ी। महाकपि हनुमान जी ने उसके मर्मस्थानों को लक्ष्य बनाया। फिर अपने शरीर को छोटा करके वे उसके विकराल मुख में घुस गए और उसके हृदय को नष्ट करके बड़े वेग से ऊपर उछलकर बाहर भी निकल आए। अपने प्राण गँवाकर वह विकराल राक्षसी समुद्र के जल में गिर पड़ी।
इन सब विघ्नों को पार करके आगे बढ़ते हुए हनुमान जी अंततः समुद्र के दूसरे किनारे के पास तक पहुँच गए। वहाँ उन्हें वृक्षों से हरा-भरा लंका का द्वीप दिखाई दिया। उसे देखकर उन्होंने विचार किया, “मेरे इस विशाल शरीर एवं तीव्र वेग से राक्षसों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हो जाएगा और कौतूहलवश वे मेरा भेद जानने को उत्सुक हो जाएँगे। अतः मुझे अपना आकार छोटा कर लेना चाहिए।”
ऐसा सोचकर उन्होंने अपने विशाल शरीर को पुनः छोटा कर लिया और वे अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। तब वे केवड़े, नारियल आदि के वृक्षों से भरे त्रिकूट पर्वत पर उतर गए और अमरावती के समान सुन्दर दिखाई देने वाली लंकापुरी को ध्यान से देखने लगे।

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