Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण सुन्दरकांड भाग 81
सीता को अपने वश में करने का उन राक्षसियों को आदेश देकर रावण वहाँ से चला गया। उसके जाते ही वे सब भयंकर राक्षसियां सीता को घेरकर बैठ गईं।
हरिजटा, विकटा, दुर्मुखी आदि राक्षसियाँ एक-एक करके अत्यंत कठोर वाणी में सीता से कहने लगीं, “नीच नारी! तू महान राक्षसराज रावण की पत्नी बनना क्यों अस्वीकार कर रही है? जिन्होंने सभी तैंतीस देवताओं (बारह आदित्य, ग्यारह रूद्र, आठ वसु और दो अश्विनीकुमार) तथा देवराज इन्द्र को भी परास्त कर दिया, जिनका पराक्रम सर्वश्रेष्ठ है, उन महाबली राजा रावण को तू क्यों अप्रसन्न कर रही है? राक्षसराज ने नागों, गन्धर्वों और दानवों को युद्ध-भूमि में अनेक बार परास्त किया है। वे महापराक्रमी रावण स्वयं तेरे पास पधारे थे। तूने उनका ऐसा अपमान क्यों किया? राजाधिराज रावण के भय से सूर्य और वायु भी काँपते हैं। वे सबकी इच्छा पूर्ण करने में समर्थ हैं। उनकी पत्नी बनना इस संसार का सबसे बड़ा सुख है। तू उनकी बात मान ले, अन्यथा अपने प्राण गँवाएगी।”
उनकी बातें सुनकर सीता ने उत्तर दिया, “मेरे पति के पास राज्य अथवा धन हो या न हो, किन्तु मैं केवल उन्हीं में अनुरक्त रहूँगी। तुम सब लोग भले ही मुझे खा जाओ, पर मैं तुम्हारी पापपूर्ण बात कभी नहीं मानूँगी।
यह सुनकर उन राक्षसियों के क्रोध की सीमा नहीं रही। उनके हाथों में फरसे चमक रहे थे। अपने लंबे व चमकीले होठों को बार-बार चाटती हुईं वे सीता को डाँटने-डपटने और धमकाने लगीं।
उन भयानक राक्षसियों के प्रलाप से घबराई हुईं सीता जी वहाँ से उठकर संयोग से उसी अशोक वृक्ष के नीचे आकर बैठ गईं, जिस वृक्ष पर हनुमान जी बैठे हुए थे। लेकिन राक्षसियों ने वहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। विनता, चण्डोदरी, विकटा, प्रघसा, अजामुखी आदि अनेक राक्षसियाँ वहाँ भी आकर सीता को समझाने लगीं कि ‘तुम रावण की बात मान लो। यह यौवन सदा नहीं टिकेगा, इसलिए रावण के साथ जीवन का आनंद लो’।
उनमें से कुछ आपस में बातें कर रही थीं कि ‘इस सुन्दर स्त्री के एक-एक अंग को काटकर खाने में कितना आनंद आएगा’, तो कोई तय कर रही थी कि ‘इसका कौन-सा अंग किस राक्षसी को खाने के लिए दिया जाएगा’।
ऐसी भयावह बातें सुनकर सीता का धैर्य का टूट गया और वे श्रीराम को याद करके फूट-फूटकर रोने लगीं। मन ही मन वे सोचने लगीं कि ‘इतनी अवधि बीत गई, पर मेरे पति श्रीराम अभी तक यहाँ आए क्यों नहीं? कहीं श्रीराम और लक्ष्मण दोनों ने अहिंसा का व्रत लेकर अपने शस्त्रों को तो नहीं त्याग दिया? कहीं रावण ने छल से दोनों भाइयों को मरवा तो नहीं डाला?’, पर अगले ही क्षण उन्हें लगा कि यह असंभव है। श्रीराम मेरे लिए यहाँ अवश्य आएँगे।
तब उन्होंने सब राक्षसियों से पुनः दोहराया, “राक्षसियों! तुम चाहे मेरे टुकड़े-टुकड़े करके आग में भूनकर खा जाओ या मुझे जलाकर भस्म कर दो, किन्तु मैं रावण के पास कभी नहीं जा सकती। मेरे पति ने जनस्थान में अकेले ही चौदह हजार राक्षसों को मार डाला। वे अवश्य ही रावण का वध करने में भी समर्थ हैं। फिर भी यदि श्रीराम यहाँ नहीं आए, तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगी, पर रावण की बात नहीं मानूँगी।”
यह सुनकर उन सब राक्षसियों का क्रोध और बढ़ गया। वे सीता को डराने के लिए और अधिक कठोर बातें कहने लगीं।
उसी बीच त्रिजटा नामक एक बूढ़ी राक्षसी वहाँ आई। वह अभी-अभी सोकर उठी थी। आते ही उसने उन राक्षसियों से कहा, “नीच निशाचरियों! आज मैंने राक्षसों के विनाश का संकेत देने वाला एक बड़ा भयंकर स्वप्न देखा है। अतः तुम लोग अब सीता के नहीं, अपने प्राण बचाने की चिंता करो। ”
“स्वप्न में मैंने हाथी-दाँत की बनी हुई एक सफेद पालकी देखी, जिसमें एक हजार घोड़े जुते हुए थे। सफेद फूलों की माला तथा सफेद वस्त्र धारण किए हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उस पर चढ़कर यहाँ पधारे। समुद्र से घिरे एक पर्वत के शिखर पर सीता बैठी हुई थी। उसने भी सफेद वस्त्र पहने हुए थे।”
“फिर श्रीराम चार दाँतों वाले एक विशाल गजराज पर लक्ष्मण के साथ बैठकर पर्वत-शिखर पर सीता के पास आए। श्रीराम का हाथ पकड़कर सीता भी उस हाथी पर बैठ गई। फिर वह गजराज लंका के ऊपर आकर खड़ा हो गया। इसके बाद वे तीनों दिव्य पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर उत्तर दिशा की ओर चले गए।”
“स्वप्न में मैंने रावण को भी देखा था। वह सिर मुंडवाकर तेल से नहाया हुआ था। उसने लाल वस्त्र और करवीर (कनेर) के फूलों की माला पहनी थी। मदिरा पीकर वह मतवाला हो गया था और ऐसी अवस्था में ही वह पुष्पक विमान से नीचे धरती पर गिर पड़ा।”
“रावण ने काले कपड़े पहन रखे थे और वह गधों से जुते हुए रथ पर बैठकर कहीं जा रहा था। उसके गले में लाल फूलों की माला थी और उसने लाल चन्दन लगाया हुआ था। वह तेल पी रहा था और पागलों की भाँति हँसता हुआ नाच रहा था। फिर वह गधे से नीचे गिर गया। वह भय से घबरा रहा था और निर्वस्त्र होकर गालियाँ बकता हुआ कहीं जाने लगा। थोड़ा आगे जाकर वह मल से भरे एक बड़े तालाब में जा गिरा।”
“कीचड़ में लिपटी एक काले रंग की स्त्री रावण का गला बाँधकर उसे दक्षिण दिशा की ओर खींचकर ले जाने लगी। मैंने महाबली कुंभकर्ण को भी इसी अवस्था में देखा। रावण के सभी पुत्र भी वैसी ही अवस्था में थे। रावण सूअर पर, इन्द्रजीत सूँस (डॉल्फिन) पर और कुंभकर्ण ऊँट पर बैठकर दक्षिण दिशा को गए।”
“केवल विभीषण ही प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। सफेद वस्त्र, सफेद माला, सफेद चन्दन लगाकर वे एक सफेद छत्र के नीचे खड़े थे। उनके पास शंखध्वनि हो रही थी, नगाड़े बजाए जा रहे थे। नृत्य एवं गीत भी हो रहा था। अपने चार मंत्रियों के साथ विभीषण आकाश में एक चार दाँतों वाले विशाल गजराज पर बैठे हुए थे। यह रमणीय लंकापुरी अपने हाथी, घोड़ों, रथों सहित समुद्र में जा गिरी थी। मैंने देखा कि श्रीराम का दूत बनकर आए एक वेगवान वानर ने इसे जलाकर भस्म कर दिया था।”
“राक्षसियों! ये सब स्वप्न-संकेत बड़े स्पष्ट हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीराम अवश्य ही यहाँ आकर सीता को प्राप्त करेंगे। अपनी प्रिय पत्नी को इस प्रकार डराने-धमकाने वाली राक्षसियों को वे कदापि क्षमा नहीं करेंगे। हमें सीता को डराना-धमकाना बंद करके उससे क्षमा माँगनी चाहिए और मीठी बातें कहकर उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए। देखो, उसकी बायीं आँख भी फड़फड़ा रही है, जो इस बात का सूचक है कि शीघ्र ही उसे कोई शुभ समाचार मिलने वाला है।”
ये सभी बातें हनुमान जी भी छिपकर सुन रहे थे। उन्होंने सोचा कि ‘मैंने सीता का पता तो लगा लिया है, किन्तु उनसे मिलकर श्रीराम का सन्देश उन्हें सुनाना भी आवश्यक है। यदि मैंने उन्हें सांत्वना न दी, तो वे दुःख में अवश्य ही यहाँ अपने प्राण त्याग देंगी और यदि मैं उनसे मिले बिना ही लौट गया, तो श्रीराम के पूछने पर सीता का क्या सन्देश सुनाऊँगा? अतः सीता से मिलना मेरे लिए अनिवार्य है।’
‘परन्तु इन राक्षसियों के सामने सीता से बात करना भी उचित नहीं है। अब इस कार्य को कैसे संपन्न किया जाए? मुझे इन राक्षसियों के बीच ही किसी प्रकार धीरे से अपनी बात सीता को सुनानी पड़ेगी। परन्तु यदि मैं संस्कृत भाषा में बोलूँगा, तो मुझे रावण समझकर सीता भयभीत हो जाएँगी।”
“अतः अवश्य ही मुझे उस भाषा का प्रयोग करना चाहिए, जिसे अयोध्या के आस-पास रहने वाले सामान्य जन बोलते हैं। अन्यथा सीता भयभीत होकर चिल्लाने लगेंगी और उनकी आवाज सुनकर राक्षसियाँ भी यहाँ पहुँच जाएँगी। उनकी सूचना पर यदि बहुत-से विकराल राक्षसों ने आकर मुझे पकड़ लिया या मार डाला, तो श्रीराम का कार्य पूर्ण नहीं हो सकेगा। यदि उन्होंने मुझे घायल कर दिया, तो मैं महासागर को पार करके वापस नहीं जा पाऊँगा। अतः कुछ ऐसा करना चाहिए कि यह कार्य सफल हो जाए।”
तब बहुत सोचने पर उन्होंने निश्चित किया कि ‘मैं सीताजी को उनके प्रियतम श्रीराम का ही गुणगान सुनाऊँगा। मीठी वाणी में मैं श्रीराम का सन्देश भी सीता जी को गाकर ही सुनाऊँगा, जिससे उनका मन शांत हो जाए, भय दूर हो जाए और उनका संदेह भी मिट जाए।’
यह निश्चय करके हनुमान जी उस वृक्ष की शाखाओं में छिपे रहकर ही मधुर-वाणी में सीता को सुनाते हुए गाने लगे।
उन्होंने गाते हुए कहा कि “महान दशरथ जी के पराक्रमी पुत्र श्रीराम अपने पिता का वचन पूरा करने के लिए सीता व लक्ष्मण के साथ वन में गए। वहाँ रावण ने छल से सीता का अपहरण कर लिया। तब सीता की खोज करते हुए मतंग-वन में पहुँचे श्रीराम की मित्रता सुग्रीव नामक वानर से हो गई। वाली का वध करके श्रीराम ने सुग्रीव को वानरों का राज्य दे दिया। तब सुग्रीव की आज्ञा से हजारों वानर सीतादेवी का पता लगाने के लिए चारों दिशाओं में निकले। उनमें से मैं भी एक हूँ और सौ योजन समुद्र को लाँघकर यहाँ तक आया हूँ। मैंने जानकी जी को ढूँढ निकाला है और श्रीराम ने उनका जैसा वर्णन किया है, वैसा ही मैंने उन्हें पाया है।”
इतना कहकर हनुमान जी चुप हो गए।
ये बातें सुनकर सीता को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने सिर को ऊपर उठाकर वृक्ष की ओर देखा। वहाँ उन्हें पवनपुत्र हनुमान जी बैठे हुए दिखाई दिए।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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