Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण सुन्दरकांड भाग 83
सीता जी से विदा लेकर हनुमान जी उत्तर दिशा की ओर बढ़े। लेकिन कुछ दूर जाने पर उन्होंने विचार किया कि ‘सीता जी का पता तो मैंने लगा लिया, किन्तु शत्रु की शक्ति का पता लगाना भी आवश्यक है। मुझे इस बात का भी पता लगा लेना चाहिए कि रावण की सैन्य-शक्ति कितनी है, युद्ध में हमारी सेनाएँ जब लड़ेंगी, तो कौन किस पर भारी पड़ेगा और लंका को जीतने का क्या उपाय है?’
यह सोचते हुए हनुमान जी क्रोध से भर गए। विशाल रूप धारण करके वहाँ के बड़े-बड़े वृक्षों को वे उखाड़कर फेंकने लगे। उन्होंने उस पूरे उपवन को उजाड़ डाला। यह देखकर वहाँ के पक्षी भय से कोलाहल करने लगे और पशु आर्तनाद करते हुए भागे। इस कोलाहल को सुनकर लंका के नागरिक भी घबरा गए।
उपवन की सुरक्षा में नियुक्त राक्षसियों की नींद भी इस उत्पात के कारण टूट गई। तब उन्होंने देखा कि एक विशालकाय वानर ने पूरे उपवन को उजाड़ दिया है। यह देखकर वे राक्षसियाँ सीता के पास जाकर पूछने लगीं, “सुन्दरी! यह विशाल वानर कौन है? कहाँ से आया है? क्यों आया है? यह तुमसे क्या बातचीत कर रहा था? तुम डरो मत। हमें सब बताओ।”
तब सीता ने उनसे कहा, “मैं तो इसे देखकर ही अत्यंत भयभीत हूँ। यह अवश्य ही कोई इच्छाधारी राक्षस होगा, किन्तु राक्षसों के बारे में मैं क्या जानूँ? वह तो तुम लोगों को ही पता होना चाहिए।”
यह सुनकर वे राक्षसियाँ तुरंत ही रावण को सूचना देने के लिए बड़ी तेजी से भागीं। उन्होंने जाकर रावण से कहा, “राजन! भयंकर शरीर वाला एक वानर अशोकवाटिका में आ गया है। उसने सीता से कुछ बातचीत भी की है, किन्तु सीता हमें उस वानर के बारे में कुछ नहीं बताती। उसने पूरे उपवन को उजाड़ दिया, किन्तु जहाँ सीता रहती है, उस भाग को नष्ट नहीं किया। संभव है कि वह इन्द्र या कुबेर का दूत हो अथवा राम ने ही उसे सीता की खोज में भेजा हो।”
यह सुनकर रावण क्रोध से जल उठा। उसने किंकर नाम वाले राक्षसों को तुरंत जाकर उस वानर को पकड़ लाने की आज्ञा दी। उसकी आज्ञा पाकर हजारों किंकर हाथों में कूट और मुद्गर लेकर बाहर निकले। उनकी दाढ़ें विशाल, पेट बड़ा और रूप भयानक था।
उपवन के द्वार पर पहुँचते ही वे चारों ओर से हनुमान जी पर झपटे। तब हनुमान जी भी अपनी पूँछ को पृथ्वी पर पटकते हुए बड़े जोर से गर्जना करने लगे। उनकी उस गर्जना का स्वर पूरी लंका में गूँज उठा। क्रोध से गरजते हुए हनुमान जी ने कहा, “श्रीराम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव की जय हो! मैं पवनपुत्र हनुमान हूँ। सहस्त्रों रावण मिलकर भी मेरा सामना नहीं कर सकते। मैं इस लंकापुरी को नष्ट कर डालूँगा।”
हनुमान जी का परिचय सुनकर राक्षसों को अब कोई संदेह नहीं रह गया था कि यह राम का ही दूत है। वे सब राक्षस अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से हनुमान जी पर आक्रमण करने लगे। तब हनुमान जी ने भी वहीं द्वार के पास रखा हुआ एक लोहे का परिघ उठा लिया और उसे चारों ओर घुमाते हुए उन सबका संहार कर डाला। यह सूचना पाकर रावण का क्रोध और बढ़ गया। अब उसने प्रहस्त के पुत्र जम्बुमाली को भेजा।
उधर हनुमान जी ने सोचा कि ‘मैंने इस उपवन को तो उजाड़ दिया है, किन्तु इसके परिसर में ही बने इस प्रासाद को नहीं उजाड़ा है। अब मैं इसे भी नष्ट कर डालूँगा।’
ऐसा निश्चय करके वे उछलकर उस चैत्यप्रासाद पर चढ़ गए। वह राक्षसों के कुलदेवता का स्थान था। अब हनुमान जी उस प्रासाद को तोड़ने-फोड़ने लगे। यह देखकर वहाँ के सैकड़ों प्रहरी अनेक प्रकार के प्रास, खड्ग, फरसे, गदा, बाण आदि से हनुमान जी पर प्रहार करने लगे।
तब हनुमान जी ने उसी प्रासाद के एक स्वर्णभूषित खंभे को उखाड़ लिया और उसे पकड़कर वे बड़े वेग से चारों ओर घुमाते हुए उन राक्षसों का संहार करने लगे। उस खंभे को इतने वेग से घुमाने के कारण उसमें से आग उत्पन्न हो गई, जिससे वह समूचा प्रासाद जलने लगा।
तब तक रावण का भेजा हुआ जम्बुमाली भी गधे से जुते हुए रथ पर बैठकर वहाँ आ पहुँचा था। उसने प्रासाद के छज्जे पर खड़े हनुमान जी को देखते ही उन पर तीखे बाणों की वर्षा कर दी। उसने अर्धचन्द्र नामक बाण से उनके मुख पर, कर्णी नामक बाण से उनके मस्तक पर और दस नाराचों से उनकी दोनों भुजाओं पर गहरी चोट की। इससे हनुमान जी घायल हो गए और उनका मुँह रक्तरंजित हो गया।
तब क्रोध में भरकर उन्होंने पास ही पड़ी एक चट्टान उठाई और पूरी शक्ति से उस राक्षस की ओर फेंकी। जम्बुमाली ने दस बाणों से उस चट्टान के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। तब हनुमान जी ने एक साल का वृक्ष उखाड़कर फेंका। उसने बाणों से उसे भी काट डाला। इस प्रकार उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। अंततः हनुमान जी उसी परिघ को उठाकर इतने वेग से जम्बुमाली की ओर फेंका कि उसका पूरा शरीर चूर-चूर हो गया।
यह समाचार पाकर रावण क्रोध से उबल पड़ा। अब उसने अपने मंत्री के सात बलवान और पराक्रमी पुत्रों को हनुमान जी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वे एक बहुत बड़ी सेना लेकर महल से बाहर निकले। उनके विशाल रथ सोने की जाली से ढके हुए थे। उन पर ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं। उन्होंने भी हनुमान जी को देखते ही बाणों की वर्षा आरंभ कर दी।
तब हनुमान जी ने उन राक्षसों को भयभीत करने के लिए घोर गर्जना की और पूरे वेग से उन पर आक्रमण कर दिया। अनेकों राक्षसों को उन्होंने घूँसे और थप्पड़ से ही मार डाला। बहुतों को अपने पैरों से कुचल दिया और कुछ को अपने नखों से फाड़ डाला। कुछ राक्षसों को उन्होंने अपनी जाँघों में दबाकर मसल डाला, तो कुछ को छाती से दबाकर उनका कचूमर निकाल दिया। बहुत-से राक्षस तो उनकी गर्जना से ही घबराकर मर गए। जो शेष बचे, वे भय के कारण तुरंत ही वहाँ से भाग निकले।
अब रावण के क्रोध की कोई सीमा न रही। वह भयभीत हो गया किन्तु उसने अपने भय को प्रकट नहीं होने दिया। अब उसने विरुपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण नामक अपने अपने पाँच सेनापतियों को युद्ध के लिए चुना।
रावण ने उनसे कहा कि “इस प्राणी के अलौकिक पराक्रम को देखकर यह मुझे कोई वानर नहीं लग रहा है। मैंने वाली, सुग्रीव, जाम्बवान, नील, द्विविद आदि अनेकों वानर देखे हैं, किन्तु उनमें से किसी का तेज, पराक्रम, बल, बुद्धि, उत्साह ऐसा नहीं है, जैसा इसका है। संभव है कि इन्द्र अथवा नागों, यक्षों, गन्धर्वों, देवताओं, असुरों, महर्षियों ने मिलकर अपने तपोबल से इस प्राणी की रचना की हो। हमारी सेना ने अनेकों बार उन्हें परास्त किया है, अतः वे निश्चित ही हमारा अनिष्ट करना चाहते हैं। इसलिए तुम लोग बड़ी भारी सेना सावधान होकर जाओ और इस प्राणी को उचित दण्ड दो।”
रावण की आज्ञा मानकर वे सब लोग उपवन में पहुँच गए। उनसे भी हनुमान जी का बहुत देर तक युद्ध चला, किन्तु अंततः वे सब भी अपने सेना सहित मारे गए। इसके बाद रावण ने अपने पुत्र अक्षकुमार को भेजा। हनुमान जी ने उसे भी यमलोक पहुँचा दिया।
अंततः रावण ने अपने सबसे पराक्रमी पुत्र मेघनाद को यह समझाकर भेजा कि, “इन्द्रजीत! तुम अपने साथ सेना लेकर मत जाना क्योंकि वे सब सेनाएँ हनुमान को देखते ही भाग जाती हैं अथवा उसके हाथों युद्ध में मारी जाती हैं। तुम वज्र भी मत ले जाओ क्योंकि हनुमान पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ था। तुम चित्त को एकाग्र करके शत्रु की शक्ति का विचार करो और अपने धनुष से कुछ ऐसा पराक्रम दिखाओ, जिससे हमारा कार्य सिद्ध हो सके।”
यह सुनकर मेघनाद ने रावण को प्रणाम किया और उत्साह में भरकर वह वाटिका की ओर बढ़ा। उसका रथ गरुड़ जैसी तीव्र गति वाला था और उसमें चार सिंह जुते हुए थे। उसने हनुमान जी पर अनेकों प्रकार के बाण और शस्त्रास्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु वे सब विफल रहे।
तब वह किसी भी प्रकार से उन्हें कैद करने का उपाय सोचने लगा और उन्हें बाँधने के लिए उसने ब्रह्मास्त्र का संधान किया। मेघनाद नहीं जानता था कि हनुमान जी को ब्रह्माजी से यह वरदान मिला हुआ है कि ब्रह्मास्त्र भी उन्हें नहीं बाँध सकेगा।
लेकिन हनुमान जी ने सोचा कि ‘ब्रह्मास्त्र से छूटना उचित नहीं है क्योंकि इससे ब्रह्माजी का अपमान होगा। इस प्रकार बँधे रहने का अभिनय करने से यह लाभ है कि ये राक्षस मुझे लेकर रावण के पास जाएगा और मुझे भी रावण से आमने-सामने बात करने का अवसर मिलेगा।”
ऐसा सोचकर वे चुपचाप भूमि पर पड़े रहे। तब इन्द्रजीत के आदेश पर बहुत-से राक्षस वहाँ आए। उन्होंने बड़े-बड़े रस्सों से हनुमान जी को बाँध लिया। हनुमान जी भी चीखते और दाँतों को कटकटाते हुए इस प्रकार का अभिनय करने लगे, मानो उन्हें इससे बड़ा कष्ट हो रहा है।
उन मूर्ख राक्षसों को यह ज्ञात नहीं था कि कोई और बन्धन बाँधने पर ब्रह्मास्त्र का बन्धन अपने आप ही छूट जाता है। लेकिन इन्द्रजीत इस बात को जानता था। वह समझ गया कि उसका ब्रह्मास्त्र अब विफल हो चुका है और केवल राक्षसों को भ्रमित करने के लिए ही हनुमान जी बंधे होने का अभिनय मात्र कर रहे हैं। इससे उसका सारा उत्साह नष्ट हो गया क्योंकि विजयी होकर भी वास्तव में वह परास्त हो गया था।
अब वे सब राक्षस हनुमान जी को खींचते हुए और घूँसों से मारते हुए रावण के दरबार में ले आए।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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