महात्मा बुद्ध का एक सूत्र था, ‘अल्पश्रुत पुरुष बैल की भांति बढ़ता है। उसके मांस तो बढ़ते हैं, परंतु उसकी प्रज्ञा नहीं बढ़ती।’ आचार्य रजनीश भी कहते थे, लोगों की मानसिक और शारीरिक उम्र अलग-अलग हैं। तुम किसी की शारीरिक उम्र से धोखे में मत पड़ना, क्योंकि उससे उस व्यक्ति की समझदारी का कोई संबंध नहीं है।
तुलसी दास की रामचरितमानस साहित्य के लोकतन्त्र की जीवित नागरिक है। ये ऐसा महाकाव्य है जिसको समझने के लिए विकसित साहित्यबोध का होना जरूरी है। ये कॉमनसेन्स चेतना से समझ में नहीं आ पायेगा।
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अगर किसी रचना को आप संकट की घड़ी में समाधान के लिए याद करें तो, वो रचना मात्र ना होकर आपकी ‘गुरु’ हो जाती है। सामान्य व्यक्ति आज भी अपने जीवन के विभिन्न प्रसंगों में मानस की चौपाइयों और दोहों को जितना याद करता है, शायद ही किसी और रचना को करता होगा।
ये सिर्फ राजा राम की कहानी नहीं बल्कि हर परिवार के संकट, उसकी समस्या, उसके द्वन्द्व, उसकी दुविधाओं की सुनवाई करने वाली कहानी है। रामचरितमानस भरत की कहानी है, शबरी की कहानी है, जटायु की कहानी है, अहिल्या की कहानी है, नल-नील की कहानी है, मंदोदरी की कहानी है, त्रिजटा की कहानी है। ये उन पात्रों की कहानी है जो इसके पहले कभी नायक नहीं बने।
रामचरितमानस दिन के हर पहर की कहानी है। हर संबंधों की कहानी है। दुःख और सुख के भेद की कहानी है। ये जड़ से चेतन को जोड़ने की कहानी है। ये भारत को जोड़ने की कहानी है।
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आप कभी आग की लपक से जल जाते हैं तो क्या कसम खाते हैं कि अब आग से कभी खुद को जलने नहीं दूंगा? नहीं, क्यूँकि आप आग को जान गए, अब कसम की क्या जरूरत? मंदबुद्धि कसम खाते हैं, प्रण ले लेते हैं, चिल्लाते हैं लेकिन जिनकी प्रज्ञा प्रखर है, वे सिर्फ समझ लेते हैं क्यूँकि समझना हर किसी के बस की बात भी नहीं!
प्रभु श्री राम से प्रार्थना रहेगी कि मंत्री जी को उचित बुद्धि प्रदान करें, ऐसी बुद्धि जिससे ‘समझ’ विकसित हो।