Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 87
हनुमान जी से पूरा वर्णन सुनने के बाद श्रीराम बोले, “हनुमान ने बहुत बड़ा कार्य किया है। इस भूमण्डल में ऐसा कार्य करने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षसों में भी ऐसा कौन है, जो रावण की लंका में अकेले ही प्रवेश करके सकुशल वहाँ से वापस भी लौट आए? यह केवल हनुमान के लिए ही संभव था।”
“जो सेवक अपने स्वामी के कठिन कार्य को पूरा करके उसके अनुरूप किसी दूसरे कार्य को भी संपन्न कर देता है, वह सबसे उत्तम सेवक है। जो सेवक केवल बताए गए कार्य को ही करता है, किन्तु योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी अतिरिक्त कार्य नहीं करता, वह मध्यम श्रेणी का सेवक है। जो सेवक योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी अपने स्वामी के बताए हुए कार्य को भी सावधानी से पूर्ण नहीं करता है, वह अधम है। हनुमान ने अपने बताए हुए कार्य को पूरा करने के बाद दूसरे महत्वपूर्ण कार्यों को भी बिन बताए ही पूरा कर दिया। ऐसा श्रेष्ठ सेवक और कोई भी नहीं है।”
“आज हनुमान ने मुझे इतना प्रिय समाचार सुनाया है, किन्तु पुरस्कार में उसे देने के लिए मेरे पास कोई भी वस्तु नहीं है। इस बात से मेरा मन बहुत दुःखी हो रहा है। इस समय मैं हनुमान को केवल अपना आलिंगन ही प्रदान कर सकता हूँ।”
ऐसा कहकर भावुक श्रीराम ने हनुमान जी को अपने गले से लगा लिया।
फिर वे सुग्रीव तथा अन्य वानरों से बोले, “सीता की खोज का काम तो अब संपन्न हो गया, किन्तु हम लोग समुद्र को कैसे पार करेंगे? समुद्र को पार करना तो बड़ा ही कठिन कार्य है। इस बात को सोचकर ही मेरा उत्साह नष्ट हो रहा है।”
ऐसा कहते हुए शोकाकुल श्रीराम चिंता में डूब गए।
तब सुग्रीव ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “वीरवर! आप इस प्रकार चिंतित न हों। जो मनुष्य उत्साहहीन, दीन-दुःखी और शोक से व्याकुल ही रहता है, उसके सारे काम सदा ही बिगड़ते हैं और वह सदा विपत्ति में पड़ जाता है।”
“ये सब वानर शूरवीर एवं समर्थ हैं। समुद्र को पार करने और रावण का वध करने की बात सुनते ही इनका उत्साह और बढ़ जाता है। अब आप केवल कोई ऐसा उपाय सोचिए, जिससे समुद्र पर पुल बनाया जा सके। एक बार हमारी सेना उस पार पहुँच जाए, तो उसके बाद विजय निश्चित है।”
तब श्रीराम ने पुनः हनुमान जी से कहा, “वानरवीर! तुम मुझे बताओ कि उस दुर्गम लंकापुरी में कितने दुर्ग हैं? तुम उसका ऐसा स्पष्ट वर्णन करो, जिससे मुझे लगे कि मैं स्वयं वहाँ खड़ा होकर लंका को देख रहा हूँ।”
तब हनुमान जी बोले, “प्रभु! लंका में असंख्य रथ और अनेक मतवाले हाथी हैं। राक्षसों के समुदाय उस नगरी में निवास करते हैं। लंका में चार बड़े-बड़े दरवाजे हैं, जो बहुत लंबे-चौड़े हैं। उनमें बहुत मजबूत किवाड़ लगे हैं और मोटी-मोटी अर्गलाएँ (सिटकनी) हैं। उन दरवाजों पर बड़े विशाल और प्रबल यन्त्र लगे हुए हैं, जो शत्रु-सेना को रोकने के लिए तीर और पत्थरों के गोले बरसाते हैं।”
“काले लोहे की बनी हुई, भयंकर और तीखी सैकड़ों शतघ्नियाँ (लोहे के काँटों से भरी हुई चार हाथ लंबी गदा) उन दरवाजों पर सजाकर रखी गई हैं। उस नगरी के चारों ओर सोने का बना हुआ परकोटा है। उसमें मणि, मूँगे, नीलम और मोती जड़े हुए हैं। उसे तोड़ना बड़ा कठिन है। परकोटे के चारों ओर ठंडे जल से भरी हुई बहुत गहरी खाइयां बनी हुई हैं, जिनमें ग्राह (घड़ियाल या मगरमच्छ) और बड़े-बड़े मत्स्य हैं।”
“उन खाइयों को पार करने के लिए उन चारों दरवाजों के सामने चार संक्रम (लकड़ी के पुल) बने हुए हैं। उनमें बहुत-से बड़े-बड़े यन्त्र लगे हुए हैं और उनके आस-पास परकोटे पर मकान बने हुए हैं। जब शत्रु-सेना आती है, तो उन यन्त्रों के द्वारा पुलों की रक्षा की जाती है और उन यन्त्रों के द्वारा ही उन्हें खाई में गिरा दिया जाता है, जिससे शत्रु के सैनिक भी खाई में गिर जाते हैं। उनमें से एक पुल तो बड़ा ही सुदृढ़ और अभेद्य है। वहाँ बहुत बड़ी सेना रहती है और वहाँ सोने के अनेक खंभे और चबूतरे बने हुए हैं।”
“लंका के पूर्वी द्वार पर हाथों में शूल धारण किए हुए हजारों राक्षस नियुक्त रहते हैं। दक्षिणी द्वार पर राक्षसों की चतुरंगिणी सेना तैनात रहती है। पश्चिमी द्वार पर ढाल और तलवार लेकर हजारों राक्षस पहरा देते हैं तथा उत्तरी द्वार पर बड़ी संख्या में रथी व घुड़सवार राक्षस सैनिक नियुक्त रहते हैं। लंका के मध्यभाग में सैनिक छावनी है, जिसमें हजारों दुर्जय राक्षस निवास करते हैं।”
“परन्तु मैंने उन सब संक्रमों को तोड़ डाला है, खाइयाँ पाट दी हैं, लंका को जला दिया है और उसके परकोटों को भी धराशायी कर दिया है। इतना ही नहीं, मैंने उन राक्षसों की एक चौथाई सेना को भी नष्ट कर दिया है। अब तो लंका विजय के लिए अंगद, द्विविद, मैन्द, जाम्बवान, पनस, नल और नील ही पर्याप्त हैं। पूरी वानर सेना की तो आवश्यकता ही नहीं है।”
यह सुनकर श्रीराम ने कहा, “हनुमन्! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। उस भयानक राक्षस को मैं शीघ्र ही नष्ट कर डालूँगा।”
फिर श्रीराम जी सुग्रीव से बोले, “सुग्रीव! सूर्यदेव अब दिन के मध्यभाग में जा पहुँचे है। विजय नामक इस मुहूर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी। अतः तुम इसी मुहूर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। आज उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र है। कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिए हमें आज ही सेना के साथ यात्रा आरंभ कर देनी चाहिए। इस समय जो शकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे यह विश्वास होता है कि मैं अवश्य ही रावण का वध करके सीता को ले आऊँगा। मेरी दाहिनी आँख का ऊपरी भाग भी फड़क रहा है, मानो वह भी मेरी विजय का ही संकेत दे रहा हो।”
श्रीराम की यह आज्ञा सुनकर सुग्रीव और लक्ष्मण ने उन्हें प्रणाम किया।
फिर श्रीराम ने आगे कहा, “सेनापति नील! तुम एक लाख वानरों के साथ सबसे आगे चलो। तुम सारी सेना को ऐसे मार्ग से ले चलना, जिसमें फल-मूल की अधिकता हो, शीतल छाया वाले सघन वन हों, ठंडा जल मिल सके तथा मधु भी उपलब्ध हो। संभव है कि दुरात्मा राक्षस हमारे मार्ग के फल-मूल और जल में विष मिलाकर दूषित करने का प्रयास करें। अतः तुम सदा सावधान रहकर उन वस्तुओं की रक्षा करना।”
“जहाँ कहीं भी गड्ढे, दुर्गम वन और साधारण जंगल हों, वहाँ सब ओर देखकर वानरों को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि कहीं शत्रु सेना वहाँ छिपी तो नहीं है। अन्यथा वे पीछे से हम पर आक्रमण कर देंगे। जो बालक, वृद्ध तथा दुर्बल हैं, वे यहीं किष्किन्धा में रुक जाएँ। हमारा यह युद्ध बड़ा भयंकर होने वाला है, इसलिए केवल बलवान सैनिकों को ही इसमें आना चाहिए।”
“पराक्रमी गवाक्ष सेना की रक्षा के लिए उसके आगे-आगे चलें, वानरशिरोमणि ऋषभ सेना के दाहिने भाग में रहें और वेगशाली गन्धमादन वानर सेना के बाएँ भाग में रहकर इसकी रक्षा करें। ऋक्षराज जाम्बवान, सुषेण और वानर वेगदर्शी सेना के पीछे रहकर इसकी रक्षा करेंगे। मैं हनुमान के कन्धे पर चढ़कर सेना के बीच में रहकर उसका उत्साह बढ़ाता रहूँगा तथा लक्ष्मण अंगद के कन्धे पर बैठकर यात्रा करें।”
यह सुनकर सुग्रीव ने सब वानरों को यथोचित आज्ञा दी और वानर-सेना ने युद्ध के लिए कूच किया।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा ….

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