Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 90
सीता के प्रति आसक्ति के कारण दुष्ट रावण बार-बार उनके बारे में ही सोचता रहता था। विभीषण आदि हितैषी उसके कुकृत्यों के कारण उसका अनादर करने लगे थे। सीता का अपहरण करने के कारण लोग उसे पापी मानने लगे थे। इन सब चिंताओं से वह अत्यंत दुर्बल हो गया था, किन्तु अपनी कामासक्ति के कारण वह सीता को लौटाने के लिए भी तैयार नहीं था। इसलिए युद्ध करना अनुचित होते हुए भी उसने युद्ध को ही उचित माना।
एक दिन वह सोने की जाली से ढके हुए तथा मणि-मूँगों से सजे हुए अपने एक विशाल रथ पर बैठकर अपने सभा भवन की ओर चला। उसके राक्षस अंगरक्षक ढाल-तलवार तथा अन्य अस्त्र-शस्त्र लेकर उसके रथ को चारों ओर से घेरकर चल रहे थे।
रावण के निकलते ही तीव्र शंखध्वनि हुई और सहस्त्रों वाद्यों का घोष होने लगा। उसके रथ के पहियों की घरघराहट से चारों दिशाएँ गूँज उठीं। रावण के रथ में उत्तम अश्व जुते हुए थे। उसके सिर पर निर्मल श्वेत छत्र तना हुआ था। उसके दोनों तरफ शुद्ध स्फटिक के डंडे वाले चँवर और व्यजन सजे हुए थे, जिनकी मंजरियाँ सोने की बनी हुई थीं। लंका के साधारण राक्षसजन रावण को देखते ही मार्ग के दोनों ओर हट जाते थे और हाथ जोड़कर अपना सिर झुका लेते थे। इस प्रकार अपनी जय-जयकार सुनता हुआ वह निशाचर अपनी राजसभा में पहुँचा।
उस सभा भवन को विश्वकर्मा ने बनाया था। उसका फर्श सोने-चाँदी और स्फटिक से सजा हुआ था। सोने के तारों वाली रेशमी वस्त्रों की चादरें वहाँ बिछी हुई थीं। छः सौ पिशाच उसकी रक्षा करते थे। उस भवन में नीलम का बना हुआ एक विशाल सिंहासन था। उस पर अत्यंत मुलायम चमड़े वाले प्रियक नामक हिरण की खाल बिछी हुई थी। उस पर मसनद भी रखा हुआ था। भवन में प्रवेश करके रावण अपने उस सिंहासन पर बैठ गया। फिर उसने अपने दूतों से कहा, “तुम लोग शीघ्र जाओ और समस्त सभासद राक्षसों को बुला लाओ।”
यह सुनते ही उसके दूत लंका में चारों ओर फैल गए। एक-एक घर, विहार स्थान, शयनागार और उद्यान में जाकर उन्होंने सभासदों को ढूँढा और रावण का आदेश सुनाया। तुरंत ही सारे मंत्री व सभासद अपने-अपने अस्त्र लेकर शीघ्रता से राजसभा की ओर चल दिए। उनमें से कोई गदा, कोई परिघ, कोई शक्ति, तो कोई तोमर लिए हुए था। कुछ लोगों ने अपने हाथों में फरसे पकड़ लिए थे, तो कुछ के हाथों में शूल चमक रहे थे। कोई रथ पर बैठा हुआ था, कोई हाथी पर, कोई घोड़े पर, तो कोई पैदल ही चल पड़ा था।
सभा भवन में पहुँचते ही अपने-अपने वाहनों को बाहर रखकर वे सब सभासद पैदल ही भीतर प्रविष्ट हुए। रावण को प्रणाम करके वे सब अपने-अपने निर्धारित आसन पर बैठ गए। उनमें से कुछ लोग सोने के सिंहासनों पर, कुछ कुश की चटाइयों पर और कुछ साधारण बिछौनों से ढकी हुई भूमि पर बैठे हुए थे। रावण के सभी मन्त्री, सचिव, उपमन्त्री तथा सैकड़ों की संख्या में सभासद वहाँ उपस्थित थे। तत्पश्चात विभीषण का भी वहाँ आगमन हुआ। रावण को प्रणाम करके विभीषण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। शुक और प्रहस्त भी तब तक वहाँ आ गए।
सब लोगों के बैठ जाने पर रावण ने अपने सेनापति प्रहस्त को आदेश दिया, “सेनापति! तुम जाकर अपने सैनिकों को आज्ञा दो कि अस्त्रविद्या में पारंगत रथी, घुड़सवार, हाथीसवार और पैदल योद्धा नगर की रक्षा में सदा तत्पर रहें।”
आज्ञा के अनुसार प्रहस्त ने सभी आवश्यक स्थानों पर सैनिकों को नियुक्त करवा दिया। फिर वह रावण के पास लौटकर बोला, “राक्षसराज! आपकी सेना को मैंने नगर के बाहर और भीतर यथास्थान नियुक्त कर दिया है।”
तब रावण ने अपने सभासदों को संबोधित करते हुए कहा, “सभासदों! आप सब लोग हित व अहित का निर्णय करने में समर्थ हैं। आपके कोई कार्य कभी निष्फल नहीं हुए हैं। आप सबके कारण ही मैं लंका के राज्य का सुख भोगता हूँ। मैंने जो सीता-हरण कार्य किया है, उसके लिए भी मैं पहले आप सबका समर्थन लेना चाहता था, किन्तु उस समय कुम्भकर्ण सोये हुए थे, इसलिए मैंने इसकी चर्चा नहीं चलाई। छः माह से सो रहे कुम्भकर्ण अब जागे हैं।”
“जहाँ राक्षस विचरते हैं, उस दण्डकारण्य से मैंने राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया है। तीनों लोकों में कोई भी स्त्री उससे अधिक सुन्दर नहीं हैं। उसे देखते ही मेरी मेरा मन काम से मोहित हो जाता है। मैं अब अपने वश में नहीं हूँ। सीता के बिना मैं व्याकुल रहता हूँ, किन्तु वह मन्दगामिनी सीता मेरी शैय्या पर नहीं आना चाहती।”
“वैसे तो मुझे शत्रुओं से कोई भय नहीं है क्योंकि वे दोनों राजकुमार या उनके साथ घूम रहे वनचारी वानर असंख्य मत्स्यों तथा जल-जंतुओं से भरे महासागर को पार नहीं कर सकते। परन्तु उनमें से एक ही वानर ने आकर यहाँ भीषण उत्पात मचाया था, इस कारण यह कहना भी कठिन है कि वे लोग क्या कर डालेंगे। अतः आप सब लोग सोच-समझकर अपने-अपने विचार व्यक्त कीजिए और जो उचित लगे, वह बताइये। वैसे तो मनुष्यों से मुझे कोई भय नहीं है, फिर भी युद्ध में विजय की योजना तो बनानी ही पड़ेगी। इसलिए आप लोग आपस में चर्चा करके कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे सीता को लौटाना भी न पड़े तथा वे दोनों राजकुमार भी मारे जाएँ।”
कामुक रावण का प्रलाप सुनकर कुम्भकर्ण को बड़ा क्रोध आया।
उसने कहा, “जब तुम मनमानी करके सीता को इस प्रकार छल से उठा लाए थे, तुम्हें उससे पहले हम लोगों से पूछना चाहिए था। जब विचार करने का समय था, तब तो तुमने हमसे कुछ पूछा नहीं। अब काम बिगड़ जाने पर विचार करने चले हो। तुमने यह जो छल से छिपकर पराई स्त्री का अपहरण किया है, यह अत्यंत अनुचित कार्य है।”
“दशानन! जो राजा न्यायपूर्वक अपना राजकाज चलाता है, उसे कभी पछताना नहीं पड़ता। जो अनुचित कार्य को पहले करता है और उचित कार्यों को टालता रहता है, वह अवश्य ही पछताता है। तुमने भावी परिणाम का विचार किए बिना ही यह बहुत बड़ा पाप कर डाला है। जैसे विष मिला भोजन खाने से प्राण चले जाते हैं, उसी प्रकार सीता के अपहरण के कारण वह राम भी तुम्हारा वध कर डालेगा। यह अपना सौभाग्य ही समझो कि उसने अभी तक तुम्हें मार नहीं डाला है।”
“अनघ! यद्यपि तुमने अनुचित कार्य किया है, तथापि मैं तुम्हारे शत्रुओं का संहार करके सब ठीक कर दूँगा। यदि इन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु, कुबेर और वरुण भी तुम्हारे शत्रु हों, तो मैं उन्हें भी युद्ध में नष्ट कर दूँगा। जब मैं अपना विशाल शरीर धारण करके हाथों में परिघ लेकर युद्धभूमि में गर्जना करूँगा, तो देवता भी भयभीत हो जाएँगे। राम को मारकर मैं उसका खून पी लूँगा। फिर सीता सदा के लिए तुम्हारी हो जाएगी। अतः अब तुम पूर्णतः निश्चिन्त रहो।”
इसके बाद महापार्श्व ने रावण ने कहा, “महाराज! जो मनुष्य मधु (शहद) पाकर भी उसे पीता नहीं है, वह मूर्ख ही है। आप तो स्वयं ईश्वर हैं। आपको शत्रुओं की क्या चिंता! आप सीता के साथ बलपूर्वक रमण कीजिए और बार-बार उसका आनंद लीजिए। एक बार आपका मनोरथ पूर्ण हो जाएगा, फिर शत्रु भी क्या कर लेंगे? यदि कोई शत्रु यहाँ आएगा, तो हम लोग उनसे निपट लेंगे। इसमें कोई संशय नहीं है।”
यह सुनकर रावण बोला, “महापार्श्व! बहुत समय पहले एक घटना के बाद मुझे शाप मिला था। अपना वह गुप्त रहस्य मैं आज बता रहा हूँ। एक बार मैंने आकाश में पुंजिकस्थला नामक अप्सरा को देखा। मेरे भय से लुकती-छिपती हुई वह पितामह ब्रह्मजी के भवन की ओर जा रही थी। मैंने उसे देखते ही पकड़ लिया और बलपूर्वक उसके वस्त्र उतारकर उसका उपभोग किया। उसकी वह दुर्दशा जब ब्रह्माजी को ज्ञात हुई, तो क्रोधित होकर उन्होंने मुझे शाप दे दिया कि ‘आज से तू यदि किसी नारी के साथ बलपूर्वक समागम करेगा, तो तेरे मस्तक के सौ टुकड़े हो जाएँगे।’ उसी भय से मैं सीता को भी बलपूर्वक अपनी शैय्या पर नहीं ला रहा हूँ।”
इसके बाद विभीषण ने खड़े होकर कुछ कहने की आज्ञा माँगी।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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