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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग – 104

सुमंत विद्वांस

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समर-भूमि में श्रीराम ने अपने धनुष की तीव्र टंकार प्रकट की, जो वज्र की गड़गड़ाहट से भी अधिक कठोर थी। उन्होंने रावण को ललकारते हुए कहा, “रावण! मेरा अपराधी होकर तू अब अपने प्राण नहीं बचा सकेगा। इन्द्र, यम, ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि या शंकर भी अब तुझे बचा नहीं सकते। दसों दिशाओं में भागकर भी तू अब मेरे हाथों से नहीं बच सकेगा। मैंने ही अपने बाणों से जनस्थान के तेरे चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला था। अब मैं तेरा और तेरे पुत्र-पौत्रों का भी काल बनकर यहाँ आया हूँ।”
श्रीराम की ये बातें सुनकर रावण क्रोध से भर गया। उसने अपने नुकीले बाणों से हनुमान जी को अत्यंत घायल कर दिया। यह देखकर श्रीराम भी क्रोधित हो उठे। तब उन्होंने अपने पैने बाणों से रावण के रथ के पहिये, घोड़े, ध्वजा, पताका, छत्र, सारथी, अशनि, शूल और खड्ग सब-कुछ तिल-तिल करके काट डाला। फिर उन्होंने एक तेजस्वी बाण से रावण की छाती पर तीव्र आघात किया।
जो रावण कभी वज्र और अशनि के आघात से भी विचलित नहीं हुआ था, वह श्रीराम के एक ही बाण से घायल होकर काँपने लगा और उसका धनुष हाथ से छूटकर गिर गया। उसे व्याकुल देखकर श्रीराम ने एक अर्धचन्द्राकार बाण हाथ में लिया और उस निशाचर के देदीप्यमान (चमकदार) मुकुट को काट डाला। फिर उन्होंने कहा, “निशाचर! तुझे थका हुआ देखकर मैं आज तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। जा, लंका में लौटकर कुछ देर विश्राम कर ले। फिर नया रथ और धनुष लेकर आना। तब मैं तुझे अपनी शक्ति दिखाऊँगा।”
यह सुनते ही रावण तुरंत लंका की ओर भाग गया। उसका सारा अहंकार मिट्टी में मिल गया था। उसका धनुष, घोड़े, सारथी, मुकुट सब नष्ट हो चुका था और वह स्वयं भी बाणों से घायल था। उसकी सारी इन्द्रियाँ व्यथा से व्याकुल थीं।
लंका पहुँचकर उसने अपने मंत्रियों से कहा, “मेरी सारी तपस्या आज व्यर्थ हो गई! मुझ जैसे अतुल्य पराक्रमी वीर को एक मनुष्य ने परास्त कर दिया। ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था कि ‘तुम्हें मनुष्यों से भय रहेगा’। आज उनका वचन सत्य हो गया। मैंने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सर्पों से अवध्य होने का वर माँगा था, किन्तु मनुष्यों को उसमें नहीं जोड़ा था।”
“इक्ष्वाकुवंश के ही एक राजा अनरण्य ने बहुत पहले मुझे शाप देते हुए कहा था, ‘अधम राक्षस! मेरे ही वंश का एक श्रेष्ठ पुरुष तेरे पुत्र, मन्त्री, सेना, अश्व और सारथी सहित तुझे समरभूमि में मार डालेगा’। ऐसा लगता है कि यह राम वही पुरुष है। पहले एक बार मुझे वेदवती ने भी शाप दिया था क्योंकि मैंने उसके साथ बलात्कार किया। मुझे लगता है कि वही अब सीता बनकर मेरे विनाश के लिए प्रकट हुई है। रम्भा और वरुण-कन्या का शाप भी अब सत्य हो रहा है।”
“अब तुम लोग इस संकट को टालने का प्रयास करो। सेनापति प्रहस्त मारा गया और मैं भी समरांगण में परास्त हो गया। इसलिए अब महाबली कुम्भकर्ण को जगाओ। वह सभी राक्षसों में श्रेष्ठ है, पर बड़े खेद की बात है कि ग्राम्यसुख में आसक्त होकर वह कभी सात, कभी दस और कभी आठ मास तक सोता ही रहता है। इस बार वह नौ माह से सो रहा है। उसे जगा दिया जाए, तो मेरे सब कष्ट दूर हो जाएँगे। युद्ध-स्थल में वह वानरों और उन राजकुमारों को शीघ्र ही मार डालेगा। मेरे इस संकट से समय भी यदि वह मेरी सहायता नहीं कर रहा है, तो उसके बल का क्या उपयोग है?”
रक्त और मांस का भोजन करने वाले वे समस्त राक्षस यह सब सुनकर बड़ी घबराहट में गन्ध, माल्य तथा भोजन सामग्री लेकर कुम्भकर्ण के घर गए। कुम्भकर्ण एक सुन्दर गुफा में रहता था। उसकी लंबाई-चौड़ाई एक योजन थी और उसका दरवाजा बहुत बड़ा था। वहाँ के वातावरण में फूलों की सुगन्ध छाई रहती थी। उस गुफा के फर्श में रत्न और सोना जड़ा हुआ था। उसमें सोया हुआ कुम्भकर्ण इतने जोर-जोर से साँस ले रहा था कि उसके वेग से वे राक्षस गुफा में प्रवेश करते ही फिर पीछे धकेल दिए गए। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार पैर जमाते हुए वे भीतर घुसे।
वहाँ खर्राटे भरता हुआ कुम्भकर्ण अपनी महानिद्रा में पड़ा था। उसका सारा शरीर बालों से भरा हुआ था। उसके नाक के दोनों छिद्र बड़े भयंकर थे और उसका मुँह पाताल के समान विशाल था। उसके शरीर से रक्त और चर्बी की बड़ी घिनौनी गन्ध आ रही थी। उसने अपनी भुजाओं में बाजूबन्द पहन रखे थे व सिर पर मुकुट भी धारण किया हुआ था। वहाँ पहुँचकर राक्षसों ने उसके आगे भैसों, हिरणों और सूअरों को खड़ा कर दिया और अन्न के ढेर लगा दिए। रक्त से भरे हुए बहुत सारे घड़े और कई प्रकार के मांस भी उन्होंने वहाँ रख दिए।
इसके बाद उन्होंने कुम्भकर्ण के सारे शरीर पर बहुमूल्य चन्दन का लेप किया। उसे सुगन्धित पुष्प, धूप और चन्दन सुँघाया। उसकी बहुत स्तुति की और एक साथ बहुत सारे शंख, भेरी, पणव, मृदंग आदि वाद्य बजाए। वह भीषण तुमुल नाद सुनकर सारे पक्षी घबराकर इधर-उधर उड़ते हुए भागने लगे।
इतने कोलाहल से भी कुम्भकर्ण नहीं जागा, तो वे उसकी छाती पर चट्टानों, मूसलों, गदाओं, मुद्गरों और मुक्कों से प्रहार करने लगे। उसकी साँसों के वेग से वे बार-बार दूर फेंक दिए जाते थे। किसी प्रकार अपने वस्त्रों को कसकर बाँधकर उन्होंने स्वयं को संभाला और फिर से एक साथ अनेकों वाद्य बजाने लगे। इतना करने पर भी उस विकराल राक्षस की नींद नहीं टूटी।
तब वे घोड़ों, ऊँटों, गधों और हाथियों को डंडों, कोड़ों और अंकुशों से मार-मारकर उसकी ओर धकेलने लगे। पहले से भी अधिक ऊँचे स्वर में सहस्त्रों भेरी, मृदंग और शंख पुनः बजाने लगे एवं पूरा बल लगाकर उसे लकड़ी के लट्ठों, मुद्गरों और मूसलों से मारने भी लगे। इस भीषण कोलाहल से सारी लंका गूँज उठी, किन्तु कुम्भकर्ण फिर भी नहीं जागा।
अब वे राक्षस बहुत क्रोधित हो गए। तब वे उसके उसके बाल नोचने लगे और उसे दाँतों से काटने लगे। उसके दोनों कानों में उन्होंने सौ घड़े पानी डाल दिया। फिर भी वह टस से मस नहीं हुआ। काँटेदार मुद्गरों से उन्होंने उसके माथे, सीने और अन्य अंगों पर प्रहार किया, रस्सियों से बँधी हुई शतघ्नियों से भी उस पर चोट की। फिर भी उस महानिद्रालु की नींद नहीं टूटी।
अंत में थककर उन्होंने हजारों हाथी उसके शरीर पर दौड़ा दिए। तब जाकर वह जागा और अँगड़ाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ। अपनी दोनों भुजाओं और मुँह को फैलाकर जब उसने जम्हाई ली, तो उसका मुँह बड़वानल (समुद्र की चट्टानों में जलने वाली आग) के समान दिखाई दिया। उसकी बड़ी-बड़ी भयंकर आँखें भी अग्नि से जलते दो ग्रहों जैसी दिखाई पड़ती थीं।
तब उन राक्षसों ने संकेत करके उसे अपनी लाई हुई खाद्य-सामग्री दिखाई। उसे देखते ही वह निशाचर उन भैसों और सूअरों पर टूट पड़ा और उन सबको उसने खाकर चट कर दिया। भरपेट मांस खा लेने के बाद उसने कई घड़े रक्त और कई घड़े मदिरा भी पी ली। तब उसे तृप्त देखकर वे राक्षस धीरे से उसके सामने आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
आधी नींद से जगाए जाने के कारण वह अप्रसन्न था और उसके नेत्र भी कुछ खुले, कुछ बंद दिखाई दे रहे थे। इधर-उधर दृष्टि डालकर उसने उन सब भयभीत राक्षसों को देखा और उन्हें सांत्वना देकर उसने विस्मय से पूछा, “तुम लोगों ने मुझे क्यों जगाया है? राक्षसराज रावण कुशल तो हैं? लंका पर कोई संकट तो नहीं आ गया?”
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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