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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग-103

सुमंत विद्वांस

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सारी लंका चारों ओर से शत्रुओं से घिरी हुई थी। यह देखकर रावण ने सेनापति प्रहस्त से कहा, “वीर प्रहस्त! शत्रुओं ने नगर के अत्यंत निकट छावनी डाल रखी है, जिससे सारा नगर व्यथित हो उठा है। अब तो केवल मैं, कुम्भकर्ण, तुम, इन्द्रजीत या निकुम्भ ही ऐसे भीषण युद्ध का भार संभाल सकते हैं। अतः शीघ्र ही सेना लेकर तुम युद्धभूमि में जाओ और वानरों को समाप्त कर डालो। ये वानर बड़े चंचल, ढीठ और डरपोक होते हैं। तुम्हें देखते ही वे सब घबराकर भाग खड़े होंगे। जब वानर-सेना ही भाग जाएगी, तो कोई सहारा न रहने पर राम और लक्ष्मण बिना लड़े ही तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।”
यह सुनकर प्रहस्त बोला, “राजन्! मैंने तो पहले ही कहा था कि हमें सीता को लौटा देना चाहिए, अन्यथा युद्ध अवश्य होगा। मेरा वह अनुमान सही निकला और आज हमें इस युद्ध का सामना करना पड़ रहा है। आपने सदा मुझे धन और मान-सम्मान दिया है, इसलिए मैं भी आज आपकी इच्छा पूरी करने के लिए इस युद्ध में अपने जीवन की आहुति दूँगा।”
इतना कहकर प्रहस्त वहाँ से चला गया और उसने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार किया। कुछ ही समय में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हाथों में लेकर राक्षस सैनिक वहाँ एकत्र हो गए। उनमें से अनेकों राक्षस घी की आहुति देकर अग्निदेव को प्रसन्न करने लगे और ब्राह्मणों को नमस्कार करके आशीर्वाद लेने लगे। घी की गन्ध चारों ओर फैल गई।
युद्ध के लिए तैयार होकर प्रहस्त सोने की जाली से सजे हुए अपने रथ पर आरूढ़ हुआ। उसमें बड़े वेगशाली घोड़े जुते हुए थे और सारथी भी बड़ा कुशल था। उस रथ पर सर्प के चिह्न वाली ध्वजा लगी हुई थी और सूर्य व चन्द्रमा समान प्रकाशमान वह रथ चलने पर मेघों जैसी गर्जना करता था। प्रहस्त के चार सचिव, नरान्तक, कुम्भहनु, महानाद और समुन्नत भी उसे चारों ओर से घेरकर निकले। राक्षस सेना के निकलते ही धौंसे, शंख और अन्य रणवाद्यों का निनाद लंका में गूँज उठा। भयानक रूप वाले विशालकाय राक्षस भी भयंकर स्वर में गंभीर गर्जना करते हुए चल रहे थे।
इस भीषण नाद को सुनकर सब पशु-पक्षी घबराकर चीत्कार करने लगे। उसी समय आकाश से उल्कापात भी होने लगा और भयंकर आंधी चल पड़ी। ग्रहों का प्रकाश मन्द पड़ गया, बादल रक्त की वर्षा करने लगे और एक गीध दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके उसके रथ की ध्वजा पर आकर बैठ गया। रथ के घोड़ों का चाबुक उसके कुशल सारथी के हाथों से कई बार नीचे गिर पड़ा। उसके घोड़े समतल भूमि में भी लड़खड़ाने लगे।
ऐसे अपशकुनों के बीच प्रहस्त युद्ध-भूमि पर पहुँचा और फिर एक बार दोनों सेनाओं के बीच युद्ध छिड़ गया। राक्षस अपने खड्ग, शक्ति, ऋष्टि, शूल, बाण, मूसल, गदा, परिघ, प्रास, फरसे और धनुष आदि से लड़ रहे थे, तो वानर भी बड़े-बड़े वृक्षों, शिलाओं एवं पत्थरों से उनका सामना कर रहे थे।
जब वानरों का पलड़ा बहुत भारी होने लगा, तो प्रहस्त के चारों सचिव आगे बढ़कर वानरों पर आक्रमण करने लगे। तब द्विविद ने नरान्तक का, दुर्मुख ने समुन्नत का, जाम्बवान ने महानाद का और तार ने राक्षस कुम्भहनु का वध कर डाला।
प्रहस्त इस बात को सह नहीं सका। उसने धनुष हाथ में लेकर वानरों का संहार आरंभ कर दिया। उनके शवों के ढेर लग गए। तब नील भी आगे बढ़कर राक्षस-सेना का संहार करने लगा। इससे क्रोधित होकर प्रहस्त ने नील पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उसके पैने बाणों से नील का शरीर घायल हो गया। तब कुपित नील ने साल के एक विशाल वृक्ष के प्रहार से प्रहस्त के घोड़ों को मार डाला। फिर रोष में भरे नील ने उसका धनुष भी तोड़ दिया। तब प्रहस्त ने मूसल से नील के माथे पर वार किया और रक्त की धारा बहा दी। अंततः नील ने एक विशाल शिला उठाकर प्रहस्त के माथे पर चला दी। उस शिला ने प्रहस्त के सिर को कुचलकर रख दिया। एक क्षण में ही उसके प्राण निकल गए। यह देखते ही राक्षसों की बची-खुची सेना भी लंका की ओर भाग गई।
प्रहस्त के मरने का समाचार सुनकर रावण क्रोध से तमतमा उठा। शोक से उसका चित्त व्याकुल हो गया। वह बोला, “शत्रुओं को बलहीन समझकर कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। जिन शत्रुओं को मैं बहुत छोटा समझता था, उन्होंने मेरे वीर सेनापति को मार गिराया। अब मैं स्वयं ही युद्ध के लिए जाऊँगा।”
ऐसा कहकर रावण स्वयं ही रथ पर आरूढ़ हो गया और युद्ध-भूमि में पहुँचा। अपने साथ आए हुए राक्षसों से उसने कहा, “तुम सबको मेरे साथ यहाँ देखकर वानर इसे लंका में घुसने का अच्छा अवसर मानेंगे और मेरी उस सूनी नगरी को चौपट कर डालेंगे। इसलिए तुम लोग नगर के द्वारों और राजमार्गों की रक्षा के लिए चले जाओ।”
ऐसा कहकर उसने अपने मंत्रियों को विदा कर दिया और अपने भीषण बाणों से वह वानर-सेना का संहार करने लगा। यह देखकर सुग्रीव ने एक बड़ा पर्वत शिखर उखाड़ लिया और रावण पर आक्रमण कर दिया। रावण ने बहुत सारे बाण मारकर उस शिला के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। फिर उसने सुग्रीव का वध करने के लिए भयंकर बाण का संधान किया। रावण के हाथ से छूटे उस सायक ने सुग्रीव को घायल कर डाला। यह देखकर राक्षस बड़े हर्ष से गर्जना करने लगे।
तब गवाक्ष, गवय, सुषेण, ऋषभ, ज्योतिर्मुख और नल आदि विशालकाय वानर अनेक शिलाओं को उठाकर रावण पर टूट पड़े। रावण ने अपने बाणों से उन सबके प्रहारों को व्यर्थ कर दिया। फिर सोने के विचित्र पंखों वाले बाणों से उसने उन सब वानरवीरों को घायल कर डाला।
यह देखकर स्वयं हनुमान जी आगे बढ़े। रावण को भयभीत करते हुए उन्होंने कहा, “निशाचर! तुमने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष एवं राक्षसों से न मरने का वरदान पाया है, पर वानरों से नहीं। आज मैं तुम्हारे प्राणों को शरीर से अलग कर दूँगा।”
इस पर रावण ने बोला, “वानर! तुम निःशंक होकर मुझ पर प्रहार कर लो। तुम्हारे पराक्रम को जान लेने के बाद ही मैं तुम्हारा नाश करूँगा।”
तब हनुमान जी ने उत्तर दिया, “मेरे पराक्रम को जानने के लिए तुम केवल इतना याद कर लो कि तुम्हारे पुत्र अक्ष को मैंने ही मारा था।”
यह सुनते ही रावण ने हनुमान जी की छाती पर एक तमाचा जड़ दिया। उसकी चोट से आहत होकर वे इधर-उधर चक्कर काटने लगे, पर शीघ्र ही संभलकर खड़े हो गए। तब उन्होंने भी कुपित होकर उसे थप्पड़ मार दिया। उससे रावण बुरी तरह काँप उठा। उसने क्रोधित होकर हनुमान जी की छाती पर एक और मुक्का मारा। उसकी चोट से हनुमान जी विचलित हो उठे। उन्हें विह्वल देखकर अब रावण नील की ओर बढ़ा और अपने भयंकर बाणों से उसे घायल करने लगा।
जब नील ने रावण पर शिलाओं से प्रहार किया, तो उसने अपने तीखे बाणों से उन शिलाओं को चकनाचूर कर डाला। तब क्रोधित नील ने अश्वकर्ण, साल, आम आदि वृक्षों को उखाड़कर रावण पर फेंकना आरंभ कर दिया। उन सबको भी रावण ने अपने बाणों से काट दिया और नील पर भारी बाण-वर्षा कर दी। तब नील बहुत छोटा-सा रूप बनाकर रावण के रथ की ध्वजा पर जा बैठा। वहाँ से वह रावण के धनुष पर और फिर उसके मुकुट पर कूद गया।
यह देखकर रावण घबरा गया और उसने अद्भुत तेजस्वी आग्नेयास्त्र उठा लिया। तब तक नील पुनः रथ की ध्वजा पर जा बैठा था। रावण के आग्नेयास्त्र से नील की छाती पर गहरी चोट लगी और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।
रावण उसे अचेत देखकर अब लक्ष्मण की ओर बढ़ा। उसने सुन्दर पंखों वाले सात बाण लक्ष्मण की ओर छोड़े। लक्ष्मण ने सोने के बने हुए विचित्र पंखों वाले तेज बाणों से उन सबको काट डाला। क्षुर, अर्धचन्द्र, उत्तम कर्णी, भल्ल आदि विविध प्रकार के बाणों से लक्ष्मण ने एक के बाद एक रावण के हर बाण को निष्फल कर दिया।
लक्ष्मण की फुर्ती देखकर रावण चकित रह गया। अब उसने ब्रह्माजी के दिए हुए कालाग्नि के समान तेजस्वी बाण से लक्ष्मण के माथे पर चोट की। उससे विचलित होकर भी लक्ष्मण ने तुरंत स्वयं को संभाल लिया और फिर अपने बाणों से रावण के धनुष को ही काट दिया। इसके बाद लक्ष्मण ने तीन और बाण चलाकर रावण को घायल कर दिया। रावण का सारा शरीर रक्त से भीग गया।
अब रावण ने ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति उठा ली और बड़े वेग से उसे लक्ष्मण पर चला दिया। उससे आहत होकर लक्ष्मण भूमि पर गिर पड़े। उन्हें विह्वल देखकर रावण उनके पास पहुँचा और अपने दोनों हाथों से उन्हें उठाने लगा, किन्तु वह उन्हें हिला भी नहीं पाया।
उसी समय क्रोध से भरे हुए हनुमान जी रावण की ओर दौड़े व अपने वज्र जैसे मुक्के से उन्होंने रावण की छाती पर प्रहार किया। उस मुक्के की भीषण मार से रावण ने घुटने टेक दिए। वह काँपने लगा और भूमि पर गिर पड़ा। उसके मुँह, आँख और कान से रक्त की धाराएँ बहने लगीं। उसका सिर चकराने लगा। किसी प्रकार लड़खड़ाता हुआ वह अपने रथ तक पहुँचा और पिछले भाग में जाकर बैठ गया। वह अपनी सुध-बुध खो बैठा और तड़पता, छटपटाता हुआ अंततः मूर्च्छित हो गया। उतने में हनुमान जी लक्ष्मण को उठाकर सुरक्षित स्थान पर ले गए। लक्ष्मण को छोड़कर वह शक्ति पुनः रावण के रथ पर लौट आई।
कुछ देर बाद होश में आने पर रावण ने अब अपना दूसरा धनुष उठा लिया और अपने पैने बाणों से पुनः वानर-सेना का संहार करने लगा। यह देखकर श्रीराम ने स्वयं ही अब रावण पर धावा बोल दिया।
तब आगे बढ़कर हनुमान जी ने श्रीराम से कहा, “प्रभु! जिस प्रकार भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठकर दैत्यों का संहार करते हैं, उसी प्रकार आप मेरी पीठ पर चढ़कर इस राक्षस को दण्ड दीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम तुरंत ही हनुमान जी की पीठ पर चढ़ गए।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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