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‘सनातन धर्म’ की ‘गैंग विशेष’ द्वारा जो परिभाषा हाल में दी गई है उसके अनुसार-
जो भी व्यक्ति जन्मना ‘वर्णाश्रम’ व्यवस्था एवं तथाकथित शास्त्रों में अनुल्लंघनीय विश्वास रखता हो वही ‘सनातनी’ है और शेष मलेच्छवत।
जबकि स्वामी विवेकानंद व सावरकर जैसे प्रातःस्मरणीय महापुरुषों के अनुसार जो भी सर्वभूतों के प्रति कल्याण की दृष्टि रखे और भारत भूमि को पुण्यभूमि माने वह ‘हिंदू’ है।
अब प्रश्न उठता है कि-
-पूर्वोत्तर में हिंदू घोर मांसभक्षी हैं यहाँ तक कि गोमांसभक्षी भी तो उन्हें ‘सनातनी’ कहा जाए या ‘हिंदू’?
-बंगाल और मिथिला के ब्राह्मण मांसभक्षी होते है जबकि दक्षिण के ब्राह्मण कट्टर शाकाहारी। बताइये किसे ‘सनातनी’ कहा जाए और किसे ‘हिंदू’?
-शास्त्रों को अंतिम प्रमाण न मानने वाले अनीश्वरवादी जैनों व बौद्धों को ‘सनातनी’ कहा जायेगा या ‘हिंदू’?
-ईश्वर के विषय में संदेहशील, मानवमेधा को सर्वोच्च मानने वाले लेकिन अपनी संस्कृति व उसके महापुरुषों के प्रति अपार श्रद्धा रखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को ‘सनातनी’ कहा जायेगा या ‘हिंदू’?
वास्तविकता यह है कि स्वामी विवेकानंद के जीवन के सबसे मुख्य ध्येय अर्थात ‘हिंदुत्व’ के 2014 के बाद पूर्ण ओज से प्रकाशित होना शुरू होते ही हिंदुत्व विरोधी शक्तियों ने समांतर शब्द ‘सनातन’ का प्रचलन शुरू कर दिया ताकि पिछले हजार वर्ष में ‘हिंदू’ शब्द से जुड़े सारे पीडाबोध और संघर्ष का इतिहास धूमिल हो जाये।
‘सनातन’ शब्द यों तो ‘धर्म’ की शाश्वत प्रकृति को प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त किया गया था लेकिन वर्तमान में इसका प्रयोग ‘शास्त्रवाद’ के नाम पर ‘पुरानी सत्ता’ हासिल करने के लिए किया जा रहा है।
‘अंदर’ के हिंदू द्रोहियों और ‘बाहर’ के विद्वेषियों ने कहना शुरू कर दिया है कि वस्तुतः हिंदुत्व जैसा कोई शब्द है ही नहीं और जो है वह सनातन है और एक वर्ग विशेष का उपादान है।
चूँकि आम हिंदू इन महीन दाँव पेंचों को समझता नहीं इसलिये वह नहीं समझ पा रहा कि ‘सनातनी शास्त्रवाद’ की ओट में वेदों व उपनिषदों के सर्वसमावेशीकरण व अबाध विचार स्वतंत्रता के संदेश को झुठलाकर जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावाद को ‘जन्मना वर्णाश्रमवाद’ के नये ‘शास्त्रीय रूप’ में प्रस्तुत कर हिंदुत्व को मुस्लिमों की तरह के कट्टर एकेश्वरवादी रूप में ढालने की कोशिश की जा रही है, जहां तथाकथित शास्त्रों के नाम पर प्रस्तुत की गई इनकी जातिवादी श्रेष्ठता को चुनौती देने पर उस व्यक्ति को खारिज करने का ‘मौलाना’ छाप अधिकार मिल जायेगा।
इन लोगों ने ‘धर्म’ की सनातनता को एक संप्रदाय में बदल दिया है और वह हिंदुत्व जैसे सर्वसमावेशी ‘विचार’ का स्थानापन्न नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक जानकारी के लिए बता दूं कि यों तो छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सायरस महान के अभिलेखों में ‘हिंदू’ शब्द मिलता है लेकिन साथ ही चीनी अभिलेखों में भी ‘इंदी’ शब्द का प्रयोग हमारे लिए प्रयुक्त हुआ है और मेरी स्थापना है कि यह शब्द प्राचीन ‘इंदु’ शब्द से निःसृत हैं, ‘सिंधु’ से नहीं जैसी कि मान्यता पर्सियन्स की थी।
इसलिये,
”गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।”

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