आम भारतीय जनमानस ने भावात्मक रूप से यह मानना और बताना शुरू कर दिया था की ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन गए हैं। मजेदार बात यह है कि इनमें से बहुत लोगों को मुझसे केवल इस बात से खुन्नस रहती है कि मैं ऑस्ट्रेलिया में रहता हूं। इन लोगों के लिए कमला हैरिस भारतीय होती है, ऋषि सुनक भारतीय होता है, लेकिन मैं जो इन लोगों से सीधा संवाद करता हूं, जली-कटी भी सुनता हूं, गाली भी झेलता हूं, खुशी व गम में शुभकामनाएं व संवेदनाएं अर्पित करता हूं, आम लोगों की भाषा में बात करता हूं, भारतीय नहीं होता। इन लोगों को इतनी भी शर्म नहीं होती कि इनके पूरे खानदान ने भी भारत के आम लोगों के लिए जमीनी कामों व विकास के लिए उसका शतांश भी नहीं किया है, जो मैं करता आ रहा हूं। इनमें से बहुत तो कुतर्क ठेलते रहते हैं झूठ गढ़ते रहते हैं।
जबकि मैं हमेशा कहता हूं कि ठीक है, मान लेते हैं कि केवल इसलिए कि मैं ऑस्ट्रेलिया में रहता हूं तो देशभक्त नहीं हूं, लेकिन आप जो देश के अंदर रहते हैं, देश का खाते हैं, आप देश के आम लोगों के लिए अपनी नौकरी, अपनी राजनैतिक या सामाजिक महात्वाकांक्षाओं या वाहवाही बटोरने की मंशा इत्यादि से इतर गंभीरता से ठोस रूप में क्या करते हैं। आपकी बक-बक या कुतर्कों से थोड़ी ना, आपकी देशभक्ति प्रमाणित होगी, आपके गंभीर व ठोस कामों से प्रमाणित होगी।
खैर वापस मुद्दे पर आते हैं।
इस संदर्भ में विभिन्न संस्थाओ से पोस्टें लांच हो गईं, कई लोग मुझे फारवर्ड करते। फेसबुक पर ज्ञानीजन ज्ञान बांटने लगे। मैंने व्हाट्सअप पर कुछ लोगों से जब कुछ कहने का प्रयास किया तो मुझे देशी-विदेशी अखबारों की लिंक्स, मीडिया चैनल्स की लिंक्स भेजने लगे। इनमें से कुछ मेरी बात का बुरा माने, यहां तक कि मुझे देशद्रोही भी कह दिया। वैसे भी लंपटई को देशभक्ति मानने का चस्का काफी बढ़ रहा है।
दरअसल बहुत सारे ज्ञानीजनों का ज्ञान अखबार व मीडिया की खबरों तक ही सीमित होता है, जब शार्टकट से फटाफट मन को भाने वाला कुछ मिल जाता है तो शोध करने बहुत कुछ लंबा व उबाऊ पढ़ने-लिखने जैसी मेहनत धैर्य व विचारशीलता इत्यादि की क्या जरूरत। आप तर्कसंगत बात कीजिए, आप ऑब्जेक्टिव बात कीजिए तो आपको गाली मिलना शुरू हो जातीं हैं। अपने आसपास की छोटी-छोटी बातों को देखने समझने जानने परखने विश्लेषण करने का शऊर नहीं होता, लेकिन अंतरिक्ष विज्ञान की बात ठेलेंगे। इसको मैं चलताऊ भाषा में कहता हूं कि हम लोगों ने अपने दिलोदिमाग में चरस बो रखी है, और पूरी जद्दोजहद से दूसरों के दिमाग में भी चरस बोने के लिए पूरी ताकत लगा देते हैं। ऑब्जेक्टिव तरीके से चर्चा करना असंभव सा हो गया है।
जब ऋषि सुनक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने का बिना सूत बिना कपास के लठ्ठमलठ्ठा चल रहा था, तब मैं शांत था, अपवाद छोड़ शायद ही ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने के बारे में कुछ लिखा हो जबकि भारतीय सोशल मीडिया व मुख्या मीडिया पर चहुंओर रायता फैला हुआ था। कारण सिर्फ यह था कि मुझे पता था कि यह इतना आसान नहीं और संभावना कम है कि ऋषि सुनक अभी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनेंगे।
दरअसल लगभग 18—20 वर्ष पहले जब मैंने स्थानीय-स्वशासन व विकेंद्रित-अर्थव्यवस्था इत्यादि के मुद्दों के लिए संगठन बनाया था, उसके पहले से ही मैं दुनिया के साम्यवादी-पार्टियों की सत्ताओं वाले देशों जैसे रूस, चीन, क्यूबा, उत्तरी-कोरिया इत्यादि देशों तथा योरपियन समाज के परिपक्व लोकतांत्रिक देशों का अध्ययन करना व तुलनात्मक विश्लेषण करना शुरू कर चुका था। इन देशों के हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं, चिंतकों इत्यादि लोगों के संपर्क में आया, वैचारिक आदान-प्रदान किए, समझने की चेष्टा की कि जमीनी हकीकत व परिपक्व समाजवाद इत्यादि व्यवहारिक तौर पर परिष्कृत होता कहां बढ़ रहा है।
इस संदर्भ में बहुत कुछ अध्ययन किया, वह भी ऑब्जेक्टिविटी के साथ, अपनी पसंद नापसंद इत्यादि को परे रखते हुए। इन्हीं सब परिश्रम व आत्मसंघर्ष इत्यादि की देन है कि मैं दुनिया के अनेक देशों व अंतर्राष्ट्रीय मामलों में ऑब्जेक्टिव दृष्टि रखता हूं।
इसलिए यह पता ही था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को कार्यकाल के बीच में बदलना केवल सांसदों द्वारा मेजें थपथपाने या वोट डालने से हो ही नहीं सकता है।
लेकिन चूंकि हम भारतीयों की आदत होती है कि हम अपनी मानसिकता व कुएं के बाहर देखना समझना ही नहीं चाहते हैं। हमें लगता है कि जैसा हमारे यहां है वैसा ही दूसरों के यहां भी है, थोड़ा बहुत अंतर होगा। हमने तो गुलाम भारत के लिए बनाए गए नियमों कानूनों को भी अपने सरमाथे बैठा रखा है और खुद में गर्व अनुभव करते हैं कि हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। भले ही लोकतंत्र का “ल” भी नहीं हो, भले ही सामाजिक-न्याय का “स” भी नहीं हो, भले ही मौलिक-अधिकार का “म” भी नहीं हो, भले ही हमारी नौकरशाही को राजसी अधिकार व सुविधाएं प्राप्त हों और आम लोग के प्रति नौकरशाहों की कोई ठोस जवाबदेही तक नहीं हो। लेकिन हम सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारा लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ है।
जब केवल हल्ला मचाने से कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं, हम सर्वश्रेष्ठ होने के मुगालते में जी सकते हों तो हमें दूरदर्शी सोच के साथ, विचारशीलता के साथ, आत्म-संघर्ष करके वास्तव में सर्वश्रेष्ठ हो पाने की ओर प्रयासरत होने की क्या जरूरत रह जाती है। जो लोग इस ओर प्रेरित करने का प्रयास करें, उनको कुएं के मेढ़कों की तरह गैग बनाकर गाली दो, अपमानित करो, तिरस्कृत करो।
ऋषि सुनक इसलिए बुरी तरह से हारे क्योंकि ऋषि सुनक का रूलिंग पार्टी के आम-लोगों के बीच जनाधार नहीं था। रूलिंग पार्टी के संसद सदस्यों को अपने पक्ष में करना आसान होता है लेकिन पार्टी के समर्थक लाखों आम लोगों को अपने पक्ष में करना आसान नहीं होता है। रूलिंग पार्टी के संसद-सदस्यों के बीच ऋषि सुनक को भले ही बहुमत मिल गया हो, लेकिन जिन आम लोगों के दम पर पार्टी खड़ी होती है, जिन लोगों के दम पर पार्टी के लोग संसद-सदस्य बनते हैं, पार्टी सरकार बनाने की औकात तक पहुंचती है, पार्टी के उन आम लोगों के बीच ऋषि सुनक बुरी तरह से हार गए।
ब्रिटेन में जब प्रधानमंत्री का बदलाव पार्टी के अंदर से होता है तो यह परंपरा है कि जब तक केवल दो लोग नहीं बच जाते तब तक राउंड के बाद राउंड होते रहते हैं जिनमें केवल पार्टी के संसद-सदस्य मतदान करते हैं। लिज ट्रस पहले के राउंड्स में पीछे थीं, लेकिन बाद के राउंड्स में आगे निकलती चली गईं और जब दो लोग बचे तब दूसरे स्थान पर रहीं।
जब दो लोग बचते हैं तब पार्टी के आम लोगों तक बात पहुंचती है। मतलब यह कि आम लोग पार्टी के असली मालिक, यह असली मालिक जो निर्णय देगा वही अंतिम निर्णय। अब असली मालिक के पास इतना समय तो होता नहीं कि यही सब रायता समेटता रहे, इसलिए पहले सब धींगामुस्ती कर लो, जब दो लोग बचें तब असली मालिक अपना अंतिम निर्णय सुनाएगा।
अंतिम मालिक ने अपना निर्णय सुना दिया कि लिज ट्रस ब्रिटेन की प्रधानमंत्री हैं। यह है अंतिम निर्णय, इसके अलावा सब धींगामुस्ती। भले ही सांसदों का बहुमत कुछ भी हो, अंतिम निर्णय असली मालिक का। सांसदों को प्रभावित कर पाना आसान है, लेकिन असली मालिकों को प्रभावित करना बहुत मुश्किल।
लिज ट्रस लगभग 47 वर्ष की हैं, लंबी राजनैतिक पारी खेलनी है। लगभग ढाई साल का समय है प्रधानमंत्री के रूप के तौर पर, यदि संभाल कर खेलेंगीं तो लंबा दौड़ेंगी। ऋषि सुनक ने एक सुनहरा अवसर खो दिया है, काश उन्होंने एक सीमित क्षेत्र के बाहर देश के आम लोगों के साथ भी खुद को जोड़ा होता। हम भारतीयों को भी गर्व करने का अवसर मिल पाता कि हमारी ब्रीड का एक बंदा ब्रिटेन का प्रधानमंत्री है। यदि लिज ट्रस बड़ी गलतियां नहीं करतीं हैं, तो ऋषि सुनक व उनके पीछे सटे हुए कारपोरेट-जगत की कुछ कंपनियों की लाबी ने बहुत बड़ा व सुनहरा अवसर खो दिया है।