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चीन की भक्ति में डूबे भगतगण

Vivek Umrao

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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चीन की भक्ति में डूबे भगतगण, अंतर्राष्ट्रीय मामलों में स्वयंभू विशेषज्ञ बने हुए कुछ भी ठेले जा रहे थे, बताया जा रहा था कि चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग ने अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन को धमका दिया है, बता दिया है चीन आग का तपता गोला है, सूर्य से अधिक प्रकाशित है (हाल में ही चीन ने चोरी छिपे रूस के सहयोग से कोई फर्जी सूर्य बनाया है, ऐसे सूर्य रूस व अमेरिका तब बना चुके थे जब वर्तमान चीन ढंग से पैदा भी नहीं हुआ था)। अब अमेरिका की औकात नहीं कि अमेरिका की हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की स्पीकर ताइवान चली जाएं। चीन अमेरिका को नेस्तनाबूत कर देगा, आग लगा देगा, अमेरिका को झुलसा देगा। ब्लाह ब्लाह ब्लाह।

जब मैं मित्रवत भाव से इस तरह की बकवास पर ऑब्जेक्टिविली टिप्पणी करता हूं तो लोगों को मेरी बातें बुरी लग जाती हैं, इन लोगों का इगो तड़प जाता है। जबकि मेरा उद्देश्य सिर्फ यह रहता है कि बिना किसी हिडेन एजेंडा के, बिना फर्जी रोमांस के, ऑब्जेक्टिविटी और रेशनल तथ्यों के आधार पर देखने समझने का प्रयास होना चाहिए। जो जैसा है उसको वैसा ही देखने समझने का प्रयास होना चाहिए, अपनी पसंद नापसंद या एजेंडों इत्यादि के आधार पर कुछ का कुछ, नहीं ठेलना चाहिए।

लीजिए अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की स्पीकर ताइवान पहुंच चुकी हैं। मेरा चीन की भक्ति में डूबे व तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों से अनुरोध है, विनम्र प्रार्थना है कि चीन के राष्ट्रपति से कहें कि चीन की औकात हो तो अमेरिका को आग में झुलसा कर दिखा दें।

बार-बार कहता आया हूं, फिर कहता हूं कि चीन की औकात अमेरिका के सामने दो-कौड़ी की है। अमेरिका इतना ताकतवर देश है कि रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान मिलकर भी अमेरिका को पार नहीं लगा सकते हैं। शर्त यह है कि रूस व अमेरिका में परमाणु युद्ध नहीं हो, क्योंकि तब धरती ही नहीं बचेगी तो हार जीत का मायने ही नहीं रहता है।

अब जो बात कहने जा रहा हूं, उससे बहुत लोगों को मिर्च लगेगी। जहां तक अंतर्राष्ट्रीय मामलों की बात है तो भारत सरकार की विदेश सेवा में काम करने वाले अधिकारी, भारत द्वारा विदेशों में नियुक्त राजदूत लोग, भारत की राजधानी दिल्ली में स्थिति जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों टाइप्स विभागों के प्रोफेसर लोगों, इत्यादि-इत्यादि की भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों की समझ कूड़ा होती है। वह तो भारत जनसंख्या के कारण बहुत बड़ा बाजार है इसलिए तुक्के पर विदेश मामले चलते रहते हैं। अपवाद लोगों की बात नहीं कर रहा हूं।

मैं हिंदी में सरल भाषा में बिना फर्जी विद्वता का आभामंडल गढ़े हुए जानकारी व जागरूकता के उद्देश्य के साथ लिखता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं चूतिया हूं।

मैं सभी विकसित देशों, रूस, चीन इत्यादि 100 देशों से भी अधिक देशों के किस स्तर के विशेषज्ञों, शोधार्थियों, नीति-निर्धारकों, नीति-इंफ्लुएंशर्स, प्रोफेसर्स, शोध संस्थानों के निदेशक इत्यादि लोगों इत्यादि के साथ किस बौद्धिक स्तर से जुड़ा हुआ हूं, इसकी कल्पना भी उन लोगों को नहीं हो सकती है जिनको ऑब्जेक्टिविटी, सामाजिक नीति, आर्थिक नीति, सस्टेनेबिलिटी, सामाजिक समाधान इत्यादि की गंभीरता का ककहरा भी नहीं पता।

गूगल में सर्च करके, देशी विदेशी अखबारों की खबरें पढ़ने, यूनिवर्सिटियों में कोर्स की किताबें रटने नंबर पाने नौकरी के लिए छटनी-परीक्षाएं पास करने। इत्यादि-इत्यादि विशेषज्ञता नहीं होती है, समझ का विकसित होना नहीं होता है।

बाकी डिग्रियों की बात छोड़िए पीएचडी तक की डिग्रियों की भयंकर खरीद-फरोख्त होती है, खरीद फरोख्त नहीं भी हो तब भी शोध का कोई स्तर ही नहीं होता है, पीएचडी की डिग्री खरीदने, जुगाड़ से पीएचडी करने से भारत में नौकरी की अहर्ता भले ही पूरी होती हो, प्रमोशन की अहर्ता भले ही पूरी होती हो और नौकरी व प्रमोशन मिल जाते हों।

योग्यता दो कौड़ी की होती है। लेकिन जिन लोगों को जानकारियां नहीं होती है या जो आर्थिक बौद्धिक कमजोर लोग होते हैं उन लोगों के सामने चौड़ाए घूमते हैं। तो लंपटों की ऐसी डिग्रियों को विकसित देशों में कचड़े में फेंक दिया जाता है, पीएचडी या परास्नातक की बजाय स्नातक स्तर का ही माना जाता है।
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बहुत लोग तो केवल इस बात पर खुद को विद्वान व विशेषज्ञ मान लेते हैं क्योंकि उनको व्यापार में लाभ अधिक होता है या उनका वेतन अधिक है या किसी मंत्री या नौकरशाह के तलुवे चाट लेते हैं।

यह जो विशेषज्ञता होती है वह योग्यता कोर्स की किताबें पढ़ने, अखबार पढ़ने, पांच-दस मनचाही किताबें पढ़ने, रटकर परीक्षाओं को पास करके डिग्री लेने या छटनी-परीक्षाओं को पास करके नौकरी पाने से नहीं प्राप्त होती है या विकसित होती है। इसके लिए खपना पड़ता है, दृष्टि ऑब्जेक्टिव होनी होती है, भयंकर स्वाध्याय करना होता है, व्यापक स्वाध्याय करना होता है। थियरी व व्यवहारिकता के तालमेल को समझना होता है, खालिस असली वाली वैज्ञानिक-दृष्टिकोण विकसित करना होता है।

सीखना होता है, समझना होता है, खुद को स्वयंभू विद्वान मानकर, स्वयंभू विशेषज्ञ मानकर एजेंडे व बाएस्डनेस के साथ कुछ भी ठेलने को विद्वता, विशेषज्ञता इत्यादि नहीं कहते हैं। बौद्धिक व वैचारिक संघर्ष करना पड़ता है। बौद्धिक, वैचारिक, मनोवैज्ञानिक कंडीशनिंग्स को तोड़ना पड़ता है, ऑब्जेक्टिविटी विकसित करनी पड़ती है। ऑब्जेक्टिव वैज्ञानिक-दृष्टिकोण के साथ की ओर बढ़ना होता है।

विशेषज्ञता, विद्वता बिना ऑब्जेक्टिव वैज्ञानिक-दृष्टिकोण (ध्यान दीजिए ऑब्जेक्टिव वैज्ञानिक-दृष्टिकोण, न कि केवल वैज्ञानिक-दृष्टिकोण) के संभव ही नहीं, दूर-दूर तक संभव नहीं, असंभव है। हां प्रोपेगैँडा को ही ज्ञान मानना है, विशेषज्ञता मानना है तब तो कुछ कहना सुनना बेकार ही है।
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अब आपमें से बहुत लोगों का इगो भयंकर रूप से तड़पड़ा रहा होगा, तो अब दीजिए गालियां, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से या कुछ समय रुककर भविष्य में ताकि दूसरों को यह नहीं लगे कि इगो की तड़पड़ाहट के कारण ऐसा किया जा रहा है।
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